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“क्या साज़िश के तहत पत्रकारों की स्वतंत्रता खत्म की जा रही है?”

न्यूज़रूम

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“लोकतंत्र के जीवित रहने के लिए ज़रूरी है पत्रकारों की स्वतंत्रता और उन पर हो रहे हमलों का अंत”

जब भी नागरिकों के मुद्दों की बात आती है, तो ज़हन में विचारों की अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता पर मंडरा रहे खतरे की घंटी बज जाती है। इसी गुत्थम-गुत्थी में मानस पटल पर हज़ारों सवाल दस्तक देने लग जाते हैं और यदि आप पत्रकारिता के क्षेत्र से संबंध रखते हैं, तो विचारों की यह उलझन आपको अपने शिकंजे में और कसकर जकड़ लेती है।

निर्भीक पत्रकारिता जोखिम से भरी है

गौरी लंकेश की हत्या ने देश और दुनिया को भयभीत कर दिया है। साथ ही पत्रकारों पर लगातार हो रहे हमलों की वारदातों को एक बार फिर सुर्खियों में लाकर खड़ा कर दिया है। जहां एक ओर स्वतंत्र पत्रकारों की ज़िंदगियों पर मंडरा रहा खतरा एक गंभीर मुद्दा है, वहीं दूसरी ओर दिन-ब-दिन पत्रकारिता के उसूलों, सिद्धांतों और मूल्यों का गिरना एक चिंताजनक विषय है।

फोटो साभार- Getty Images

आंकड़े बताते हैं कि भारत जैसे लोकतांत्रिक राष्ट्र में भी सरकार पत्रकारों की स्वतंत्रता को नियंत्रित करने की कोशिश करती है। वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स 2019 की रिपोर्ट के अनुसार में भारत देश 180 देशों की तालिका में 140वें पायदान पर पहुंच गया है।

जिस पड़ोसी देश को भारतीय मीडिया सारा दिन आतंकवाद का गढ़ कहता रहता है, वह भारत से महज़ एक पायदान नीचे है।

पत्रकारों की आवाज़ दबाने की कोशिश

अगर ध्यान दें तो आप पाएंगे कि जिन पत्रकारों के संघर्षों व कार्यों की मिसालें हम सुन-सुनकर बड़े हुए हैं या जिनके कार्यों को जन-संचार और मीडिया के पाठ्यक्रमों में पढ़ाया जाता है, उन पत्रकारों की स्थिति आज दयनीय है। उनकी आवाज़ को दबाने की पुरज़ोर कोशिश सरकार ने की है और वह अभी भी कर रही है।

अमूमन देखा जाता है कि यदि आप सरकार के खिलाफ कुछ भी कहते या लिखते हैं, तो कुछ ही दिनों में उसका खामियाज़ा भुगतना पड़ता है। दूसरे शब्दों में कहें तो आज हालात ऐसे हैं कि हिन्दू विचारधारा के प्रतिकूल विषयों पर बोलने या लिखने वाले पत्रकारों को धमकाने, गाली देने और मारने की संस्कृति कई अन्य देशों की तरह अब भारत में भी वास्तविकता बन चुकी है।

मीडिया की आव़ाज दबाने की कोशिश  

हमारे सामने कई ऐसे मीडिया हाउसेज़ के उदाहरण हैं, जिनकी आवाज़ दबाने के लिए सरकार ने कई हथकंडे अपनाए हैं। हालांकि यह सिलसिला आज का नहीं है, क्योंकि काँग्रेस ने अपने कार्यकाल में भी मीडिया की आवाज़ को दबाने की पूरी कोशिश की है।

इंदिरा गाँधी। फोटो साभार- Twitter

इंदिरा गाँधी ने भी आपातकाल के दौरान सभी अखबारों के दफ्तरों की बिजली कट करने का आदेश दिया था ताकि कोई भी समाचार लोगों तक ना पहुंच पाए लेकिन आज हालात बद-से-बदतर हो चुके हैं। आज कोई भी सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ बोलने से कतराता है।

महात्मा गाँधी ने कहा था,

कलम की निरंकुशता खतरनाक हो सकती है लेकिन उस पर व्यवस्था का अंकुश ज़्यादा खतरनाक है।

बढ़ रहे हैं पत्रकारों के प्रति घृणा के मामले

‘रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर्स’ की सालाना रिपोर्ट के विश्लेषण के अनुसार पत्रकारों के प्रति घृणा के मामले बढ़ते ही जा रहे हैं। हमारे देश में पत्रकारों के खिलाफ हिंसा के कोई सरकारी आंकड़े उपलब्ध ही नहीं हैं।

वर्ष 2018 में संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने भारत के मध्य प्रदेश के स्थानीय पत्रकार संदीप शर्मा और दैनिक भास्कर बिहार के पत्रकार नवीन निश्चल की कथित हत्या और विश्वस्तर पर मीडिया कर्मियों के साथ हो रही हिंसा के प्रति अपनी चिंता जाहिर की थी।

पत्रकारों की गिरफ्तारी आम बात

आज हालात ऐसे हैं कि सोशल मीडिया पर एक ट्वीट भी लिख देने मात्र पर पत्रकारों को गिरफ्तार किया जा रहा है। हाल ही में यूपी के मिर्ज़ापुर में एक स्कूल में मिड-डे मील के दौरान बच्चों को नमक रोटी देने की खबर दिखाने वाले पत्रकार के खिलाफ सरकार ने साज़िश का केस कर दिया।

खनन माफिया के खिलाफ खबरें लिखने वाले पत्रकारों की हत्याओं की वारदातें अब आम बात हो गई हैं। भारतीय पत्रकारिता में अपने उल्लेखनीय योगदान के लिए रेमन मैग्सेसे पुरस्कार विजेता रवीश कुमार कहते हैं,

उन्मुक्त आवाज़ की जगह सिमट गई है। आप स्वतंत्र पत्रकार हैं, कहना खतरनाक हो गया है। लोगों की आंखें अंधी, कान बहरे और मुंह से ज़ुबान गायब हैं।

पत्रकारों के खिलाफ साज़िश

इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारतीय मीडिया आज संकट की स्थिति में है, जो आकस्मिक या यादृच्छिक नहीं है बल्कि प्रणालीगत और संरचनात्मक है। एक सोची समझी साज़िश के तहत पत्रकारों की स्वतंत्रता को खत्म किया जा रहा है। 

सरकार, बड़े कॉरपोरेट घरानों और कंपनियों को आलोचना पसंद नहीं आती है। मीडिया आज खुद सरकार के बताए रास्ते पर चल रहा है और मात्र एक सरकारी प्रवक्ता व प्रचार का ज़रिया बनकर रह गया है।

आज ज़रूरत है तो निर्भीक पत्रकारों के साथ खड़े होने की, ना कि उस भीड़ का हिस्सा बन जाने की जिसका काम सिर्फ सरकार के बताए निर्देशों का पालन करना है।

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