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28 साल बाद भी नहीं सामने आ पाया कश्मीर के कुनन पोशपोरा का सच

हिन्दुस्तान में रोज़ हज़ारों केस दर्ज होते हैं और वे सैंकड़ों सालों तक लटके रहते हैं। यहां तक कि उनका निर्णय आने तक बहुत कम लोग ऐसे बचे होते हैं जिन्हें उस केस की कोई याद हो। ये सब आज हमारे जीवन का एक अंग हो गया है। इसलिए इसमें विस्मय भी नहीं होता लेकिन तब भी कुछ मुकदमें ऐसे होते हैं, जिनपर जल्दी निर्णय आवश्यक होता है और आवश्यक होता है, उनसे जुड़े भ्रमों का निवारण, क्योंकि केस की यादें चाहे दिमाग से दूर हो जाएं लेकिन यह भ्रम इतनी जल्दी भुलाया नहीं जाता।

ऐसा ही एक केस जो भ्रमों के मायाजाल को खुद में समेटे हुए है, वह है, कुनन-पोशपोरा बलात्कार केस।

कुनन-पोशपोरा की वह रात जो आज भी राज़ है

वह 23 फरवरी 1991 की शाम थी और जगह थी, कश्मीर घाटी के कुपवाड़ा ज़िले के दो गाँव  कुनन और पोशपोरा। यह वह दौर था जब कश्मीर में आतंकवाद अपने चरम पर था। उसी दौरान शांति के हिमायती कश्मीरियों के धार्मिक नेता मीर वाइज की हत्या की गई थी और सूबे में राष्ट्रपति शासन लागू था। इसके साथ ही कश्मीर का सैन्यकरण शुरू हो चुका था और तलाशी अभियान एक आम बात थी।

अब 23 फरवरी की तारीख में वापस लौटते हैं। उस दिन शाम को चौथी राजपूताना राइफल्स और 68वीं माउंटेन ब्रिगेड के सैनिक पड़ोसी गाँवों कुनन और पोशपोरा में दाखिल हुए। गाँवों से उन्हें कुछ संदिग्ध गतिविधियां संचालित होने का शक था। इसलिए ‘सर्च एंड कार्डन ऑपरेशन‘ शुरू किया गया।

ठीक इसी तरह का घटनाक्रम उस दिन कुनन-पोशपोरा में भी हुआ। सेना ने पुरुषों और महिलाओं को अलग-अलग कतारों में खड़ा किया पर इसके बाद जो हुआ उसपर आज तक संशय है।

कश्मीर

भारतीय सेना पर बलात्कार का आरोप

18 मार्च को खबर आई कि भारतीय सेना ने हथियारों की तलाशी के नाम पर 30 महिलाओं का बलात्कार किया है, हालांकि यह संख्या निश्चित ना रही और वक्त-बेवक्त इसमें उतार-चढ़ाव आते रहे।

कहते हैं कि उस रात गाँव में क्या हुआ यह छिपाने के लिए सेना ने कई दिनों तक गाँव की बाहरी घेरेबंदी नहीं खुलने दी और गाँव की बात गाँव में ही दफ्न हो गई लेकिन वक्त बीता और उस रात की घटना का जिन्न बाहर आया।

दरअसल, घटना के लगभग चौथाई शताब्दी बाद ज़ुबान सीरिज़ से प्रकाशित एक  किताब आई जिसका नाम था, ‘डू यू रिमेंबर कुनन पोशपोरा’। किताब को लिखा था, पाँच कश्मीरी लड़कियों ने, जिनके नाम थे – एसार बतूल, इफरा बट, समरीना मुश्ताक, मुंजा राशिद और नताशा रातहर।

ये पांचों ‘जम्मू-कश्मीर कोएलिशन ऑफ सिविल सोसायटीज़’ के लिए ‘जम्मू-कश्मीर में यौन हिंसा और रोग प्रतिरोधक शक्ति’ पर काम कर रही थीं और इसी दौरान इन्हें कुनन-पोशपोरा हादसे की जानकारी मिली।

कौन से सच थे किताब में?

अब किताब पर आते हैं कि उसमें क्या लिखा है, तो किताब में उस दिन की तथाकथित पीड़िताओं की आपबीती उनके काल्पनिक नामों के साथ दर्ज है और यदि पुस्तक का सार देखें, तो उसमें बस ये बताने का प्रयास किया गया है कि उस दिन भारतीय सेना बलात्कार का विचार लेकर ही गाँवों में दाखिल हुई थी।

किताब Do you remember kunan poshpora, फोटो साभार- सोशल मीडिया

ये सब बताने के लिए कई दृष्टांतों का प्रयोग किया गया है। जैसे, सेना अपने साथ शराब की बोतलें लेकर आई थी।

एक रेप सर्वाइवर का बयान था कि जब मैं घर में दाखिल हुई तो मैंने सैनिकों के पैंट की ज़िप खुली देखी और मैं उनके मंसूबे समझ गई।

लेकिन ये बस कहानी का एक हिस्सा है, एक दूसरा पक्ष भी है जो भारतीय सेना का है और भारतीय सेना ऐसी किसी घटना के अस्तित्व से ही इनकार करती है। साथ-ही-साथ अपने पक्ष में जांचों का भी हवाला देती है, जो कि इस केस के सम्बंध में आज तक हुई हैं।

दर्ज हुई FIR

दरअसल, 25 फरवरी को गाँव वालों ने स्थानीय तहसीलदार को चिट्ठी भेजी और कुपवाड़ा के डिप्टी कमिश्नर एस एस यासी ने 2 मार्च को इस चिट्ठी के मिलने की पुष्टि की। इसी चिट्ठी के आधार पर 8 मार्च को एफआईआर दर्ज की गई।

7 मार्च को डिप्टी कमिश्नर ने तत्काली डिविजनल कमिश्नर वजाहत हबीबुल्लाह को लिखा,

मुझे जिस घटना के बारे में जानकारी दी गई है उसे जानकार मैं सदमे में हूं। बहरहाल, यह घटना मार्च के महीने में सार्वजनिक दायरे में आई। 18 मार्च 1991 को वजाहत हबीबुल्लाह ने गाँव का दौरा किया और इसी दिन घटना की जानकारी मीडिया को भी दी गई।

सरकार को सौंपी गोपनीय रिपोर्ट में हबीबुल्लाह ने आरोपों की सत्यता को लेकर सवाल उठाए लेकिन उन्होंने गाँव वालों के गुस्से को भी स्वीकार किया। उन्होंने इस मामले में उच्चाधिकार समिति बिठाए जाने की मांग की। उन्होंने कहा,

जांच रिपोर्ट में देरी से यह लग सकता है कि घटना को दबाया जा रहा है। साथ ही लंबी देरी की वजह से मेडिकल जांच को लेकर कई तरह की शंकाएं हैं।

हालांकि जब हबीबुल्लाह की रिपोर्ट सार्वजनिक की गई, तो कुछ जानकारियों को गायब कर दिया गया। घटना के करीब 22 सालों बाद हबीबुल्लाह ने यह कहा कि सरकार ने इस घटना को निपटाने में गलत तरीका अख्तियार किया।

गाँव के लोगों के आरोप को ‘बेकार’ करार दिया गया

इन सभी घटनाओं के बाद बी जी वर्गीत की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय समिति गठित की गई, जिसने कुनन-पोशपोरा गाँव के लोगों के आरोप को ‘बेकार’ करार दिया। समिति ने कहा कि इस घटना की आड़ में सेना को बदनाम करने की कोशिश की गई है। अंततः अक्टूबर 1991 में जम्मू-कश्मीर पुलिस ने इस मामले को बंद कर दिया।

सालों तक वर्गीज समिति की रिपोर्ट को लेकर सवाल उठाए जाते रहे हैं। मसलन,

समिति ने कहा,

पेट पर ज़ख्म के निशान कश्मीरी महिलाओं में आम हैं क्योंकि वह कांगरी पहनती हैं। जहां तक हाइमन के डैमेज होने की बात है तो वह कई जाहिर कारणों की वजह से हो सकता है। मसलन, चोट लगना या फिर शादी से पहले सेक्स।

इसी बीच सामूहिक बलात्कार का आरोप झेल रही सेना ने ‘प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया’ से इस मामले की जांच किए जाने की मांग की।

2013 में फिर उठी न्याय की मांग

2011 में राज्य मानवाधिकार आयोग ने कहा कि आरोपी सैनिक घटना की रात शैतान बन गए थे। राज्य मानवाधिकार आयोग ने रेप सर्वाइवर्स को मुआवज़ा दिए जाने की मांग की और साथ ही आरोपियों के खिलाफ आपराधिक मामला चलाए जाने की सिफारिश की। हालांकि राज्य मानवाधिकार आयोग की सिफारिशों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई।

फोटो साभार- सोशल मीडिया

निर्भया बलात्कार कांड के बाद यह मामला फिर सुर्खियों में आया जब रेप सर्वाइवर्स ने 2013 की शुरुआत में हाई कोर्ट के समक्ष एक याचिका देकर राज्य मानवाधिकार आयोग की सिफारिशों को लागू करने की अपील की। हालांकि कोर्ट ने पीआईएल को सही नहीं माना।

हाईकोर्ट से मांग खारिज होने के बाद सर्वाइवर्स सुप्रीम कोर्ट गए लेकिन 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने भी सुनवाई पर रोक लगा दी और बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा कानूनी रूप से ठण्डे बस्ते में चला गया लेकिन बस कानूनी रूप से, राजनीतिक रूप से नहीं और वैसे भी राजनीतिक रूप से तो इतने सालों में कभी-भी इसकी चिंगारी शांत नहीं हुई थी।

विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने घटना की सत्यता को स्वीकारा

जम्मू-कश्मीर के स्थानीय नेता इसे बुलंद करते रहते हैं, तो भारतीय शासन इसे नकारता रहता है लेकिन अंततः एक मर्तबा सन 2013 में तत्कालीन विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने घटना की सत्यता को स्वीकार करते हुए माफी मांगी।

सलमान खुर्शीद, फोटो साभार- सोशल मीडिया

माफी मांग ली गई पर न्याय नहीं मिला। आज कोई नहीं कह सकता कि घटना में किसका पक्ष सही है, इसीलिए निष्पक्ष जांच की तो ज़रूरत है ना? ताकि पता चल सके कि क्या वास्तव में भारतीय सेना ने क्रूरता की थी या ये उसे बदनाम करने की साजिश मात्र थी, क्योंकि जांच होगी तो सच सामने आएगा, दोषी दंडित होंगे और बाकी कुछ हो या ना हो पर कश्मीरियों की रूह को सुकून ज़रूर मिलेगा।

वे जानेंगे कि इस मुल्क में उनकी आवाज़ भी सुनी जाती है और ऐसा होगा तो अलगाववाद कम होगा। साथ ही सेना पर लगे कलंक की सच्चाई सामने आएगी और कश्मीर में सेना का भविष्य निर्धारित होगा।

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