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अपने वक्त और महिला विरोधी अवधारणाओं से लड़ने वाली मैरी क्यूरी

मैडम क्यूरी

मैडम क्यूरी

मानव इतिहास के किसी भी समाज में स्त्री के सामाजिक स्तर को देखने पर यह साफ ज़ाहिर होता है कि उनका स्थान सदा ही पुरुषों से दोयम रहा है।

किसी भी दौर में अपनी प्राकृतिक और सामाजिक भूमिका को निभाते हुए भी उन्हें वह सम्मान नहीं मिला, जिसकी वे हकदार थीं। विपरीत स्थितियों में जीते हुए भी इतिहास में कुछ स्त्रियों ने विरले कार्य किए जिससे आज की स्त्री की तस्वीर मुकम्मल होती है। 

पुरुष के समान राष्ट्र का नागरिक बनने के इतिहास में भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में महिलाओं ने ना केवल कदम रखा, बल्कि विकास और उपलब्धि के नए मायने भी दिए।

मैरी क्यूरी। फोटो साभार- Google Free Images

विज्ञान क्षेत्र के लिए स्त्री को प्राकृतिक और बौद्धिक रूप से अक्षम माना जाता था किन्तु 19वीं शताब्दी के अंत में एक मध्यवर्गी महिला ने पूरी दुनिया को ही अपने कार्यों से सोचने पर मजबूर कर दिया कि चिंतन और वैज्ञानिकता पुरुष या स्त्री के खेमों में विभाजित नहीं है।

इसका परिणाम यह हुआ कि जब भी कभी विज्ञान और स्त्री, ये दो शब्द ज़हन में एक साथ आते हैं, तब मैरी क्यूरी का नाम बरबस ही याद आ जाता है। मैरी क्यूरी ना केवल विज्ञान में अपने योगदान की परिवर्तनगामी भूमिका के लिए, बल्कि विज्ञान के सामाजिक सेवा के रूप को विकसित करने के लिए भी सदा याद की जाती रही हैं।

यह उस महिला का नाम है, जिसे पहला नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। जिसने विज्ञान को पुरुषों का क्षेत्र मानने की मानसिकता को ना सिर्फ चुनौती दी, बल्कि अपनी ज़िंदगी से उसे गलत भी साबित कर दिया।

उनके माता-पिता दोनों ही पेशे से अध्यापक थे। इसलिए स्वाभाविक था कि मैरी क्यूरी का झुकाव भी इस ओर रहा। शिक्षा की दिशा में मैरी क्यूरी का रुझान अपने समय की लड़कियों के विपरीत विज्ञान के प्रति रहा। उनके इस रुझान को उनके पिता ने सदा प्रोत्साहित किया।

आर्थिक तंगी के बीच मैरी क्यूरी का जीवन

मैरी क्यूरी। फोटो साभार- सोशल मीडिया

महज़ 10 वर्ष की आयु में ही मैरी क्यूरी ने अपनी माँ को खो दिया था। उनकी माँ टी.बी. रोग से पीड़ित थीं। रोग संक्रामक होने के कारण वह अपने बच्चों से एक निश्चित दूरी बनाकर रखती थीं। अपनी छोटी सी उम्र में मैरी क्यूरी इसकी वजह ना समझ पाती कि उसकी माँ उसे गले क्यों नहीं लगाती और चूमती क्यों नहीं? बाकी बच्चों की माँ की तरह साथ खेलती क्यों नहीं? 

परिवार के आर्थिक दबाव और अपने शर्मीले स्वभाव से लड़ते हुए उन्होंने 15 वर्ष की आयु में हाई स्कूल स्वर्ण पदक के साथ पास किया लेकिन स्कूल में स्वर्ण पदक मिलने के बाद भी उनकी मुश्किलों में कोई अंतर नहीं आया, बल्कि अधिक मानसिक दबाव के चलते वह अवसादग्रस्त हो गईं।

उन्होंने नृत्य की कला में खुद को लगाया जिसने उनके जीवन में अवसाद से निकलने की ऊर्जा भरी थी। घर वापसी के साथ ही उन्होंने पुनः अपने घर में ही रहकर भौतिकी, रसायन और गणित आदि विषयों में पढ़ाई आरंभ करने की योजना को अमल में लाना आरंभ कर दिया।

मैरी क्यूरी के सामने इस वक्त दो समस्याएं थी। पहली यह कि घर की आर्थिक स्थिति काफी कमज़ोर थी और दूसरी यह कि पोलैंड में किसी ऐसी संस्था या कॉलेज का ना होना, जहां लड़कियां विज्ञान की पढ़ाई कर सकें।

मतलब साफ था कि इन विषयों से लड़कियों को दूर रखा जाता था, क्योंकि वहां भी लड़कियों के लिए घरेलू जीवन से जुड़े रहना ज़रूरी समझा गया।

इन दोनों ही समस्याओं से मैरी क्यूरी की बहन ब्रोन्या भी जूझ रही थी। वह मेडिकल के क्षेत्र में काम करना चाहती थी। इन परिस्थितियों ने दोनों बहनों के व्यक्तित्व और ज्ञान के विकास में अंकुश ही लगा दिया था। किन्तु मैरी क्यूरी में आगे पढ़ने की लगन कुछ इस कदर थी कि ये बाधाएं उनका रास्ता ना रोक सकीं।

इन समस्याओं के समाधान की दिशा में मैरी क्यूरी ने बच्चों को ट्यूशन देना शुरू किया। साथ ही बच्चों की देखभाल करने वाली सेविका का काम भी स्वीकार किया।

जब पेरिस पहुंची मैरी क्यूरी

इसी दौरान एक परिवार के लड़के से उनका प्रेम हो गया। उस लड़के ने शादी का प्रस्ताव अपने परिवार को दिया जिसे अस्वीकार कर दिया गया। इससे खिन्न होकर वह लड़का तो अपनी पढ़ाई में लौट गया किन्तु मजबूर मैरी क्यूरी को उसी घर में काम करते रहना पड़ा।

इस घटना ने एक बार फिर उन्हें अंदर तक तोड़ दिया किन्तु कोई चारा भी नहीं था। बहन को आर्थिक मदद का वादा अधिक ज़रूरी था। बहन ब्रोंया ने अपनी मेडिकल की पढ़ाई पूरी कर ली और वादे के अनुसार उन्होंने मैरी क्यूरी को एक सुखद संदेश लिखा, “पेरिस आ जाओ और पढाई करो।”

मैरी क्यूरी। फोटो साभार- Google Free Images

यह मैरी क्यूरी के लिए किसी सपने से कम ना था, क्योंकि पेरिस हर पोलैंड वासी का सपना था। नवंबर 1891 में मैरी क्यूरी अपनी बहन ब्रोन्या के पास पेरिस आ गईं। इसी समय ब्रोंया ने शादी भी कर ली थी किन्तु उसने वादा किया था इसलिए मैरी क्यूरी को उनके ही साथ घर पर रहना था।

पेरिस पहुंचकर मैरी क्यूरी ने सोरबोन यूनिवर्सिटी में भौतिकी पाठ्यक्रम में अध्ययन आरंभ किया। यहीं आकर उन्हें ‘मैरी’ नाम से जाना जाने लगा। किन्तु धीरे-धीरे अपनी बहन के घर में रहते हुए वह कुछ समस्या अनुभव करने लगीं। उन्होंने जल्द ही अपनी बहन का घर छोड़ दिया।

विज्ञान के जगत में सुनहरे दिन की शुरुआत

पैसों की तंगी के कारण वह छोटे सीलन भरे कमरे में रहने को विवश थीं मगर यह विज्ञान के भविष्य में ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक के संघर्ष के कठिन दिन थे। जल्द ही समय के साथ इन अभावों और कटौतियों में जीने का असर उनके शरीर पर पड़ने लगा। वह अनीमिया की शिकार हो गईं। इस वजह से वह अकसर बेहोश हो जाती थीं।

वह अब तक हुए सभी अनुसंधान और खोजों को पढ़ लेना चाहती थीं। उन्होंने विभिन्न विषयों की कक्षाएं लेना भी आरंभ कर दिया था। वैज्ञानिक उपकरणों के प्रति उनकी विशेष रूचि थी। उन्हें प्रयोगशाला का शांत और आत्म केन्द्रित माहौल विशेष पसंद था।

इस वर्ष के परीक्षा परिणाम में उन्होंने कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया। फ्रांस आने के दो वर्षों बाद ही 1893 ई. की गर्मियों में मैरी क्यूरी ने भौतिकी में मास्टर्स की डिग्री उच्च श्रेणी के साथ उत्तीर्ण की।

दूसरी ओर यही वह दौर भी था जिसमें भविष्य में होने वाले पति पियरे क्यूरी ने मात्र 16 वर्ष में स्नातक और 18 वर्ष में परास्नातक की उपाधि प्राप्त की। उसके पश्चात वो विज्ञान फैकल्टी में सहायक भी हुए। लगभग पांच वर्ष तक काम करने के बाद अपने भाई के साथ उन्होंने पीजों इलेक्ट्रिसिटी नामक नई प्रक्रिया को दुनिया के सामने रखा।

लैब में मैरी क्यूरी। फोटो साभार- Google Free Images

इसी तरह स्वतंत्र रूप से मैरी क्यूरी ने चुंबकत्व पर अनुसंधान किया और कई नए विचार प्रतिपादित किए। इन्हें ‘क्यूरी के नियम’ के नाम से जाना गया। पियरे ने तापमान के बदलाव के कारण आने वाले बदलाव को चुंबकीय व्यवहार में देखा था इसलिए उन्हें चुंबकीय जगत के प्रमुख वैज्ञानिकों में गिना जाता था।

भौतिकी में मास्टर्स की डिग्री के बाद आगे चलकर फ्रेंच अकादमी की परियोजना के रूप में मैरी क्यूरी को आर्थिक मदद मिली। इस आर्थिक मदद मिलने पर उन्होंने स्टील की संरचना में चुंबकीय प्रवृत्ति में आए बदलावों के अध्ययन से सम्बंधित विषय पर शोध किया।

इन सफलताओं के बरक्स उनका व्यक्तित्व एक अंदरूनी भावनात्मक समस्या से भी जूझ रहा था। वह होम सिकनेस से जूझ रही थी और अपने देश पोलैंड वापस लौटना चाह रही थी। चुंबकीय प्रवृत्ति विषय के अपने शोध के मध्य ही वह पोलैंड चली गई।

इस उम्मीद के साथ कि वह अपने देश में अपनी क्षमताओं के अनुरूप कोई नौकरी प्राप्त कर लेंगी फिर अपने देश में ही रहकर मानवता के लिए विज्ञान की दिशा में अपना शोध जारी रखेंगी मगर उनके देश पोलैंड में लड़कियों को लेकर मानसिकता में कोई बदलाव अब तक ना आया था। अपने देश आकर उन्हें कोई नौकरी नहीं मिली।

मैरी क्यूरी। फोटो साभार- Google Free Images

एक बार फिर देश से  बाहर आकर उन्होंने एक छात्रवृति प्राप्त की और पुनः गणित में डिग्री लेने के लिए वापस आ गईं। उन्होंने 1894 की गर्मियों में गणित में भी डिग्री प्राप्त की। इस बार छात्रवृत्ति के धन से उन्होंने अच्छा घर किराये पर लिया जो पिछले वाले की तुलना में गर्म और आरामदेह था।

इससे वास्तविक सुविधा उनके शरीर से अधिक ज्ञान की निरंतरता को मिली जो पिछली बार बीमारी के कारण टूटती रही थी। उनका अनुभव ज्ञान की निरंतरता को बनाये रखने में सफल रहा।

लगातार मिल रही आर्थिक मदद से उनके सामने धन की समस्या तो कुछ कम हुई थी किन्तु प्रयोगशाला की समस्या सामने आ गयी। उनके एक मित्र ने इसका समाधान निकला जो पियरे क्यूरी की प्रयोगशाला के विकल्प के रूप में सामने आया।

अनोखे प्रेम का आगाज़

यह जीवन का एक नया मोड़ साबित होने वाला था। पियरे ने ना केवल मारिया के अनुसंधान की व्यवस्था की, बल्कि उनकी वैज्ञानिक प्रयोग में भी सहायता की। इस तरह दोनों में कुछ समानताओं ने उनको नज़दीक ला दिया। वे एक-दूसरे से काम के बहाने मिलने लगे।

मारिया के घर आकर वैज्ञानिक चर्चाओं के मध्य बात आगे बढ़ी। थीसिस लेखन में भी पियरे ने मारिया की सहायता की। पियरे मन ही मन इस सरल, कर्मठ और सुंदर स्त्री को चाहने लगे थे इसलिए कई बार वह क्यूरी के घर की भी बात करते थे।

पियरे क्यूरी। फोटो साभार- Google Free Images

यह अनोखा प्रेम था जिसमें स्त्री-पुरुष समान थे। यहां प्रेम कर्म से उपजा था, सौंदर्य से नहीं। इसी कारण क्यूरी जब परीक्षाओं के बाद पौलेंड गई थीं तब पियरे उनके वापस लौटने पर ज़ोर देते रहे। इन्हीं सबके बीच पियरे ने विवाह का प्रस्ताव भी रख दिया था किन्तु क्यूरी कुछ निर्णय नहीं ले सकीं।

इसका कारण यह था कि वह पोलैंड निवासी और राष्ट्रभक्त थीं जबकि पियरे फ़्रांस के थे। किन्तु क्यूरी ने मित्रता बनाये रखने का वादा ज़रूर कर दिया। इससे साफ ज़ाहिर होता है कि क्यूरी मित्रता को संबंध का मूल आधार बना रही थीं।

यह उस समय के लिए एक बड़ी बात थी। क्यूरी जब घर आ गई थीं तब पियरे के पत्र आते रहे थे। पत्र से जुड़ा एक रोचक तथ्य यह है कि पत्रों में लिखावट की गलतियां अधिक होती थी। क्यूरी उनकी व्याकरण की गलतियों को अक्सर ध्यान से देखती थीं। इसका कारण यह था कि पियरे डिस्लेक्सिया के शिकार थे। वह उनके पत्रों को बहुत ध्यान से पढ़ती थीं।

26 जुलाई 1895 में पियरे और मारिया ने शादी कर ली। सदी के दो महान वैज्ञानिकों की शादी बहुत शांतिमय और सादगीयुक्त वातावरण में हुई। दरअसल, पियरे को धार्मिक रीति-रिवाज़ पसंद नहीं थे और ना ही इसमें मारिया की कोई विशेष दिलचस्पी थी। इसलिए इस शादी में ना इसाई परंपरा के अनुसार सफेद-काले वस्त्र थे और ना ही अंगूठी थी।

शोध और पारिवारिक कर्तव्यों को निभाते हुए 1897 में उन्होंने बेटी आइरीन को जन्म दिया। उसके बाद जहां एक ओर जीवन में नई चहक आ गई थी, वहीं काम और भी बढ़ गया था।

शोध के ज़रिये हासिल की शोहरत

इस शोध-विषय से जुड़ी एक समस्या भी सामने आई। इस शोध कार्य के लिए पियरे की प्रयोगशाला बहुत अनुकूल नहीं थी। वह बहुत ठंडी थी साथ ही उपकरणों पर ठंड और खुलेपन का विपरीत प्रभाव पड़ रहा था। वे इस समस्या से जूझते हुए अध्ययन कर रहे थे।

उन्होंने युरेनियम विकिरण के आयनीकरण की शक्ति को मापने के लिए एक आयनीकरण कक्ष बनाया। धीरे-धीरे यह शोध आगे बढ़ता गया। अब वे प्रश्न करने लगे कि क्या केवल दुनिया में युरेनियम ही विकरण स्रोत हैं या अन्य तत्त्व भी मौजूद हैं?

इस प्रश्न ने उनको थोरियम के निकट ला दिया जो युरेनियम की ही भांति विकरण पैदा करता है। क्यूरी ने इसे ‘रेडियो एक्टिविटी’ नाम दिया। मारिया रेडियो एक्टिविटी की खोज में डूब गईं। वह ना केवल ज्ञात बल्कि अज्ञात तत्वों में भी एक्टिविटी तलाशने लगीं।

पियरे क्यूरी और मैरी क्यूरी। फोटो साभार- Google Free Images

पियरे ने इस कार्य के लिए कई उपकरण बनाये जो इस घातक कार्य को सुरक्षित बनाते थे। इसी शोध में एक अज्ञात तत्त्व पिचब्लेंड मिला, जो युरेनियम से 10 गुना अधिक सक्रिय था। इससे एक नया तत्त्व संज्ञान में आया। यह मारिया की बड़ी उपलब्धि थी।

आगे चलकर पिचब्लेंड में भी दो तत्त्व खोजे गए। जिसमे से एक का नाम क्यूरी ने अपने देश को समर्पित करते हुए ‘पोलोनियम’ रखा। 1898 में यह खोज फ्रांस अकादमी द्वारा प्रकाशित हुई। इसी क्रम में दूसरे तत्त्व को भी जल्द ही प्राप्त किया गया। रेडियम शब्द को लैटिन भाषा के ‘रे’ शब्द से बनाया गया जिसका अर्थ है किरण। इस खोज ने दम्पति को बहुत उत्साहित कर दिया।

इस सफलता के पश्चात मैरी व पियरे ने दो नए तत्वों को मेंदीलीव की सारणी में स्थापित किया

इस तरह क्यूरी दंपत्ति ने कहीं ना कहीं रेडियोएक्टिव युग को पैदा कर दिया, जो विज्ञान को एक बिलकुल नए समय में ले गया। यूरेनियम, पोलोनियम और रेडियम साथ ही थोरियम के ज्ञान ने रेडियोएक्टिव शोधों को बहुत अधिक बढ़ावा दिया। इन खोजों के बाद दुनिया में पियरे दम्पत्ति को एक बड़ी पहचान मिली किन्तु उनका जीवन नहीं बदला।

1902 में रेडियम का शुद्ध रूप प्राप्त हुआ। इस चमकते हुए तत्त्व को देखकर दोनों को जो सुख की अनुभूति हुई होगी उसे शब्दों में नहीं कहा जा सकता। अपने प्रयासों को उन्होंने लगभग 30 से अधिक शोधपत्रों में प्रकाशित किया। ये विज्ञान के इतिहास में युग परिवर्तन था।

इसी सबके बीच सोरबोन विश्विद्यालय से उन्होंने अपनी डॉक्टरेट की उपाधि ग्रहण की। इस शोध कार्य की सफलता से मैरी और पियरे दोनों ही काफी खुश थे। पियरे ने शोध निष्कर्षों को ढूंढने में मैरी क्यूरी की काफी मदद की। यह एक संयुक्त प्रयास ही कहा जाएगा। मैरी क्यूरी ने स्वयं इस कार्य को ‘संयुक्त उद्यम’ घोषित किया। यह उनकी उदारता का ही उदाहरण है।

पियरे क्यूरी। फोटो साभार- सोशल मीडिया

धीरे-धीरे इस शोध के अन्य प्रयोगधर्मी पक्षों पर पियरे का ध्यान जाने लगा। वे रेडियम का प्रभाव प्राणियों पर पड़ने वाले प्रभाव को देखने में करने लगे। पियरे ने इस ओर शोध के लिए चिकित्सा जगत से अनुबंध किया। पियरे की परिकल्पना यह थी कि कैंसर में बढ़ती कोशिकाओं को रेडियम द्वारा नष्ट किया जा सकता है। इससे यह परिणाम भी आ सकता है कि स्वस्थ कोशिकाए पुनः काम करने लगें। इसे ‘क्यूरी थेरेपी’ का नाम दिया गया था।

1902 उनके जीवन में एक परिवर्तन के रूप में आया। इसी वर्ष विज्ञान अकादमी ने एक बड़ी धनराशि रेडियोधर्मी पदार्थों को अलग करने के लिए दी। इसी तरह एक अवसर तब प्राप्त हुआ जब 1904 में एक उद्योगपति ने रेडियम बनाने की फैक्ट्री खोलने का मन बना लिया जिससे वह चिकित्सा जगत की रेडियम संबंधित मांगों को पूरा कर मुनाफा कमा सके।

उस उद्योगपति ने अपनी फैक्ट्री के बगल में ही एक प्रयोगशाला का निर्माण कराया और क्यूरी दम्पति को शोध के लिए आमंत्रित किया। इससे एक गठबंधन करने की परंपरा ही चल निकली। अब क्यूरी दम्पति के पास काफी निवेदन आने लगे।

यह रेडियम के व्यापार में मुनाफे का सौदा था। किन्तु क्यूरी दंपत्ति ने इस मुनाफे से दूरी ही बना रखी थी। यहां तक कि उन्होंने रेडियम को पेटेंट करने के निवेदन को भी ठुकरा दिया जिससे उन्हें भारी मुनाफा हो सकता था। यह उनके मानव-सेवा से भरे निर्णयों में से एक था।

यद्यपि उस दौर में औद्योगिक क्रांति के कारण नई-नई खोजों और आविष्कारों का पेटेंट करने की प्रवृति काफी आम हो गई थी। क्यूरी दम्पत्ति रेडियम शोधन की प्रक्रिया के पेटेंट से अपने लिए बहुत सारा धन प्राप्त कर सकते थे किन्तु दोनों ही पियरे और मारिया ने साथ मिलकर मानव जाति के हित में फैसला करते हुए माना कि रोगियों का उपचार होना चाहिए ना कि हमें व्यावसायिक लाभ उठाना चाहिए।

उन्होंने फ्रांस ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए इसे मुक्त कर दिया। उस शोधन विधि का प्रयोग आज भी मुफ्त और मुक्त रूप से हो रहा है।

1903 में लंदन के रॉयल अकादमी ने पियरे क्यूरी को व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया। यह व्याख्यान रेडियम पर आधारित था। क्यूरी दम्पत्ति साथ-साथ पहली बार लंदन गए। उन विज्ञान सेवियों का बहुत गर्मजोशी से वहां स्वागत किया गया।

रॉयल अकादमी में यह पहला अवसर था कि किसी स्त्री ने भाग लिया था। यह सम्पूर्ण स्त्री-जगत के लिए एक बड़ी सफलता थी। बचपन से स्वभाव से शर्मीली मैरी क्यूरी ने सधी हुई धीमी आवाज़ में अपना व्याख्यान आरंभ किया। पूरा हॉल शांत और एकाग्र था किसी प्रयोगशाला की तरह।

वहां मौजूद सभा एक नवीन उत्साह के साथ उस महिला को सुन रही थी, जो विज्ञान जगत में एक नए युग की शुरुआत कर चुकी थी। उन्होंने ना केवल व्याख्यान दिया, बल्कि प्रयोग द्वारा कुछ रेडियम के गुणों को प्रदर्शित कर हॉल को चकित भी कर दिया।

दोनों ही लंदन में मेहमान थे इस कारण पत्रकार, विज्ञान-प्रेमी और राजनीतिज्ञ सभी के बीच वे आकर्षण के केंद्र बने हुए थे। लेकिन एक बात ध्यान देने योग्य है कि इस अवसर पर भी मैरी क्यूरी बेहद सादे वस्त्रों में थीं। बिना किसी आभूषण के उनके कार्य ही उनके चेहरे की चमक को बनाए हुए थे।

एक साधारण-सी दिखने वाली स्त्री ने चिंतन और अनुसंधान के क्षेत्र में जो बीज बोया था, उससे परिचित होने और प्रसिद्धि का हिस्सा बनाने के लिए हर व्यक्ति उन्हें अपने घर आमंत्रित करने को आतुर था।

इस भव्य यात्रा के बाद दम्पत्ति पुनः अपने काम में खो गए। लंदन की यात्रा के पश्चात उनके पास दिनों-दिन अनुबंध के प्रस्ताव बढ़ने लगे। रॉयल अकादमी द्वारा मिले ‘डेवी चिन्ह’ को उन्होंने अपनी पुत्री के खिलौनों के बीच पाया। यह स्वर्ण पदक था किन्तु किसी साधारण खिलौने की तरह बेटी उससे खेलती थी।

मैरी क्यूरी। फोटो साभार- Google Free Images

इसी वर्ष 1903 में ही नोबेल पुरस्कार मिलने की घोषणा हुई। इस पुरस्कार को संयुक्त रूप ने हेनरी बैकरल और क्यूरी दम्पत्ति ने स्वीकार किया। यह घटना उस समय काफी चर्चा में रही कि नोबेल कमेटी पहले यह पुरस्कार सिर्फ हेनरी और पियरे को देना चाहती थी किन्तु बाद में पियरे के कहने पर इस क्षेत्र में मारिया के योगदान को स्वीकार करते और सराहते हुए उन्हें यह नोबेल पुरस्कार दिया गया।

इस दौर में हथियारों के बनाने की होड़ मची हुई थी। एक बड़ा वैज्ञानिक समूह नरसंहार के नए-नए हथियार बना रहा था। यह व्याख्यान बहुत सफल रहा और विश्वभर में क्यूरी दम्पत्ति प्रसिद्ध हो गए। अब वे विश्व नागरिक थे। 

नोबेल पुरस्कार की धनराशि उन्हें प्राप्त हुई तो पति-पत्नी के सुख का ठिकाना न रहा किन्तु सेवाभाव के चलते उन्होंने इस बड़ी राशि को भी गरीब बच्चों की पढाई, शोध और आवश्यक खर्चों में ही जाने दिया। यह उनके अभावग्रस्त जीवन का अनुभव था, जिसे वे दूसरों के जीवन में कम करने की कोशिश करते रहे।

सामाजिक सेवा के लिए ही मारिया ने अपनी बहन ब्रोंया को भी कुछ राशि दी ताकि वह मेडिकल कार्यों को सुविधाजनक बना सके।

पति की मृत्यु

सन् 1904 में मैरी क्यूरी ने दूसरी बेटी ईव को जन्म दिया। इस अवसर पर उनकी बहन ब्रोंया भी साथ थी। पियरे अपने अनुसंधान के कार्यों में व्यस्त थे किन्तु अचानक एक दुर्घटना घट गई। 18 अप्रैल 1906 को अपनी चर्चाओं के दौर से बाहर खुली हवा में सैर करते हुए उस विज्ञान सेवी की सड़क हादसे में मृत्यु हो गई।

पियरे से खास लगाव रखने वाले वैज्ञानिक लॉर्ड केल्विन भी जल्द ही पेरिस पहुंच गए थे। पियरे को शांत माहौल और सादगी के साथ उनकी माँ के पास दफना दिया गया। लंबे समय तक फ्रांस सहित पूरी दुनिया में पियरे को याद करते हुए कई सभाएं हुईं. विज्ञान जगत ने एक सच्चे सेवी को अचानक ही खो दिया था।

पियरे के जाने के बाद मैरी क्यूरी को पेंशन की पेशकश की गयी जिसे उन्होंने ठुकरा दिया। इस कठिन समय में भी वह स्वाभिमानी स्त्री के रूप में अडिग थीं। फ्रांस और विश्वविद्यालय ने अपना दायित्व मानते हुए आपसी  सहमति के साथ पियरे के पद को मैरी क्यूरी को देने का प्रस्ताव रखा। यह इसलिए भी हुआ क्योंकि मैरी क्यूरी ही उन शोध कार्यों को आगे बढ़ा सकती थीं, जिनमें वे सहभागी भी थीं। इस प्रस्ताव को उन्होंने मंज़ूर कर लिया। इसमें उनके ससुर का भी अनुरोध शामिल था जिसे वह अस्वीकार ना कर सकीं।

1910 तक आते-आते मैरी क्यूरी ने रेडियोएक्टिविटी और अपने रेडियम के प्रयोगों को लिपिबद्ध किया। उन्होंने अपने कार्य को अपने पति पियरे को समर्पित किया। किन्तु वह यहीं पर नहीं रुकी। उन्होंने शुद्ध रेडियम की खोज लगातार जारी रखी। साथ ही उसके परमाणु भार और उसके तौल के लिए भी कार्य किया।

उनके कई रिश्तेदार इस अनुसंधान में सहायक बने। रेडियम को तौलने की प्रक्रिया इतनी शुद्ध थी कि वैज्ञानिकों और डॉक्टरों की लाइन लग गई। इसके लिए उन्होंने प्रयोगशाला में ही एक विशेष प्रबंध कर दिया और एक प्रमाण-पत्र भी देने लगीं।

इससे काफी सामाजिक लाभ हुआ लेकिन काम की अधिकता के कारण उनका स्वास्थ्य लड़खड़ाने लगा। वास्तव में पियरे की मृत्यु के बाद उन्होंने काले कपड़े अपनाये थे और अपना ध्यान भी रखना बंद कर दिया था। उन्होंने शोध और घर में खुद को खपा दिया था। इसका सीधा प्रभाव उनके स्वास्थ्य पर पड़ना स्वाभाविक था।

जब विवादों से जुड़ा मैरी क्यूरी का नाम

एक स्त्री होने के नाते उनको उपलब्धियों के साथ सामाजिक समस्याओं का भी सामना करना पड़ा। ऐसा संभव ही नहीं था कि वैज्ञानिक मैरी क्यूरी का नाम विवादों से बचा रहे। स्त्री पर सबसे पहला सामाजिक हमला उसकी भावनात्मकता और उसके चरित्र पर होता था।

उस समय के एक अन्य वैज्ञानिक लांगेविन के साथ उनका नाम जोड़ा गया। वह उनके साथ जुडी थीं मगर सामाजिक अपमान के लिए लांगेविन की पत्नी ने कुछ प्रेम पत्रों को अखबार में छपवा दिया और इस रिश्ते के प्रति काफी आक्रामक तेवर दिखाए।

उनके व्यक्तित्व पर यह काफी बड़ा हमला था। बात यहीं तक नहीं थमी, बल्कि इसी समय उनके गैर-मुल्क के होने की चर्चा भी गर्म रही। इस दौरान धार्मिक मामले को भी हवा दी गई। साथ ही मार्क्सवादी विचारधारा से जुड़े होने का अरोप भी लगा।

शोध के ज़रिये फिर हुई नई शुरुआत

उनके विरोधियों द्वारा उन्हें चारों ओर से घेरा जा रहा था लेकिन मैरी क्यूरी ने इसका सरल और शांत हल ही चुना। वह अशांत नहीं हुईं और ना ही उन्होंने कोई सफाई दी, बल्कि इन समस्याओं से किनारा करते हुए उन्होंने अपने को नए शोधों में व्यस्त कर दिया और प्रेम को त्याग दिया। यही वह समय भी था जब स्वतंत्र रूप से उन्हें नोबेल पुरस्कार मिलने ही वाला था।

मैरी क्यूरी। फोटो साभार- सोशल मीडिया

स्टॉकहोम में उन्हें पुनः स्वतंत्र रूप से नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा कर दी। इस बार उन्हें रसायनशास्त्र के लिए पुरस्कार मिला। सन् 1910 में उन्होंने शुद्ध रेडियम को प्राप्त किया जिसे उन्होंने 12 वर्ष पहले एक तत्व के रूप में खोजा था। वर्ष 1911 में उन्हें स्वतंत्र नोबेल पुरस्कार मिला लेकिन गर्म विवादों के मध्य उन्हें आयोजन में शामिल होने का आमंत्रण नहीं दिया गया।

इस अपमान को वह सह ना सकीं और सख्ती के साथ वैज्ञानिक और व्यक्तिगत जीवन को अलग-अलग रखने की तीखी बात कहने स्वीडन चली गईं। उन्होंने वहां पियरे को याद किया किन्तु तीखी आलोचना ही झेलनी पड़ी। इससे आहत हुई मैरी क्यूरी ना सिर्फ टूट गई, बल्कि आत्महत्या के कगार तक पहुंच गईं।

जब ढलान पर जाने लगी सेहत

इसी समय उनके गुर्दे खराब होने का भी पता चला। उनका इलाज हुआ लेकिन वब एक अंतिम घड़ी की ओर जाने लगी थीं। इस अवस्था में देशप्रेम ने ही उनमें एक नई जान फूंकी। पोलैंड एक बार फिर खड़ा हो रहा था। उसके नागरिकों ने मैरी क्यूरी को याद किया और क्यूरी ने अपने देश की संस्कृति और ज्ञान-विज्ञान के विकास के लिए हर संभव प्रयास के लिए कमर कस ली।

उन्होंने पेरिस में ही रहते हुए वर्साय के अकादमी का पद संभाला और दैनिक गतिविधियों के लिए अपने दो शिष्यों को वहां भेज दिया। 1913 में प्रयोगशाला बनकर तैयार हो गई। वह इस अवसर पर वर्साय गईं, जहां उनके देशवासियों ने उनका भव्य स्वागत किया। इस आत्मीय यात्रा से मानसिक रूप ने उन्हें काफी लाभ हुआ। उन्होंने बाद में अन्य कई यात्राएं कीं।

इन सबके बाद जीवन के अंतिम पड़ाव पर मैरी क्यूरी ने ग्रामीण इलाके में एक घर लिया और वहीं बस गईं। उसी इलाके में कई वैज्ञानिक और प्रोफेसर भी बस गए। नाविकों और किसानों का छोटा-सा नगर आकर्षण का केंद्र बन गया।

यह समुद्र का किनारा था। मैरी क्यूरी को प्रकृति से विशेष लगाव था। यह उनके यहां बसने और बगीचे से जाहिर होता है। यहां नावों की मौजूदगी उन्हें खास आकर्षित करती थी। तट पर वक्त गुज़ारना और समुद्र में जाना उन्हें पसंद था फिर भी वह खाली नहीं रहती थीं। किसी विषय को बुनती रहती थीं। नाचना, गाना और रात का भोजन सब होता रहता था। 

जीवन के अंतिम पड़ाव में मोतियाबिंद ने उन्हें काफी परेशान किया। उनका ऑपरेशन हुआ किन्तु असफल रहा और रक्तस्राव के कारण स्थिति और भी खराब हो गई। कई और भी इलाज हुए मगर लाभ ना हुआ। उनके अंदर मौजूद जिजीविषा ने जीवन के अंत में भी अधिक से अधिक कार्य करने के लिए उन्हें शक्ति प्रदान की।

एक एक्स-रे टेस्ट से पता चला कि उनके पुराने गुर्दे की परेशानी बढ़ गई है। इसके बाद उन्होंने अपने जीवन को जैसे समेटना शुरू कर दिया।

उनका स्वास्थ्य और अधिक गिरने लगा। जल्द ही असर इतना बढ़ गया कि बिस्तर से उठाना भी मुश्किल हो गया। टी.बी. होने की आशंका ने पहाड़ी की खुली हवा में जाने का मन बना दिया। वह वहां पहुंच गईं लेकिन उन्हें बुखार आ गया।

वब अनीमिया की शिकार थीं। सुबह 4 जुलाई 1934 को पहाड़ों की तेज़ धूप ने दस्तक तो दी किन्तु मैरी क्यूरी जा चुकी थीं। उनके शरीर को पेरिस लाया गया जहां पति पियरे की कब्र में उन्हें एक सादगी से संपन्न हुए समारोह में दफना दिया गया।

मैरी क्यूरी ने ना केवल सेवा और ज्ञान से युक्त जीवन जिया, बल्कि एक ऐसी नई पीढ़ी भी खड़ी कर दी जिसने आगामी रेडियोएक्टिविटी के अनुसंधानों को आगे बढाया। उनकी बेटी आइरीन ने अपने पति के साथ मिलकर कृत्रिम रेडियोएक्टिविटी से युक्त तत्वों को बनाने में सफलता हासिल की।

मैरी क्यूरी और पियरे क्यूरी। फोटो साभार- Google Free Images

सन् 1935 में अगले ही वर्ष उन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। आइरिन ने अपने माता-पिता का कार्य आगे बढाया। सन् 1991 में इसी संस्था के एक और सदस्य को भी नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। मैरी क्यूरी द्वारा स्थापित संस्थान आज भी सफलतापूर्वक कार्य कर रहे हैं।

मैरी क्यूरी ना केवल प्रयोगशाला की सफल वैज्ञानिक थी, बल्कि आवश्यकता पड़ने पर अपनी योग्यता का उन्होंने मानव कल्याण की दिशा में प्रयोग करते हुए राष्ट्र व मानव विकास संबंधित अपनी ज़िम्मेदारियों का भी कुशलता से निर्वहन किया।

वह उन कुछ वैज्ञानिकों में से थी, जिनकी मृत्यु का प्रमुख कारण उनका शोध ही रहा फिर भी इसकी परवाह ना करते हुए उन्होंने विज्ञान में महत्वपूर्ण कार्य किए। हज़ारों स्त्रियों की प्रेरणा बनकर उन्होंने अब तक सिर्फ पुरुषों के समझे जाने वाले क्षेत्रों को ना केवल सफलतापूर्वक विजित किया, बल्कि उसे स्त्री समाज के लिए पूरी तरह से खोल दिया।

उन्होंने विकिरण युग को जन्म दिया। यब उनके ही प्रयासों का फल है कि आज हम रेडियोथेरेपी में कोबाल्ट तक का सफर तय कर चुके हैं। उन्हें मानव-ज्ञान का इतिहास सदा स्मरण करता रहेगा।

नोट: लेख में प्रयोग किए गए तथ्य विनोद कुमार मिश्र की किताब “मैरी क्यूरी” से लिए गए हैं।

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