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“लोकतंत्र की आड़ में हर चीज़ के विरोध की आदत को कब छोड़ेंगे हम?”

लोकतंत्र में विरोध सुख और दुख जैसा है। अगर एक है तो दूसरा भी हो सकता है। मैं भी कई मुद्दों पर चाहे सरकार के पक्ष में हो या विपक्ष में सबका विरोध करता हूं। पर पिछले कुछ सालों से विरोध करने का स्तर काफी गिर चुका है और इसकी चिंता हर एक आज़ाद सोच वाले व्यक्ति को होती है।

आखिर यह कैसा विरोध है कि अगर कोई आदमी तुम्हारे विचार से सहमत हो जाए तो वह सच्चा वरना झूठा। अगर वह सचमुच में झूठ बोल रहा है तो आपका उसके खिलाफ विरोध करने का हक बनता है, पर जब वह बंदा सच्चा है तब भी क्या उसका विरोध करना सही है?

विरोध प्रदर्शन करती छात्राएं, फोटो साभार – Getty Images

फेसबुक पर गिरते विरोध के स्तर

आज विरोध करने के तरीके बदल गए हैं और इसमें सबसे ज़्यादा बुरा है अभद्र भाषा का प्रयोग। आज गाली-गलौच के बिना विरोध नहीं दर्शाया जाता। ऐसे ही कुछ वाकये हैं जिन्होंने विरोध को गंदा करने वाली सोच को दिखाया।

मुझे याद है कुछ दिन पहले मेरे एक दोस्त ने फेसबुक पर लिखा था कि सुप्रीम कोर्ट का राम मंदिर पर फैसला ही बताएगा कि क्या वे निष्पक्ष हैं या हिंदुत्ववादियों के चमचे।

क्या इस बयान का मैं यह मतलब समझूं कि अगर सुप्रीम कोर्ट ने आप जैसा चाहते हैं वैसा फैसला नहीं दिया, तो आप सुप्रीम कोर्ट को भी बिका हुआ मानेंगे? अगर यह सच है तो दूसरे की सोच को धिक्कारने से पहले अपनी सोच देखनी चाहिए।

भारत विरोधी नारों से किसका विरोध

हम सभी जानते हैं कि 3 साल पहले जेएनयू में क्या हुआ था। वीडियो साक्ष्य हैं कि जेएनयू में भारत विरोधी नारे लगाए गए थे लेकिन फिर भी जब मैंने टीवी पर बहस देखी तो उस प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के किसी भी वामपंथी ने इसके खिलाफ बात नहीं की।

वे दलित और आदिवासियों के बारे में बात कर रहे थे और इसलिए नहीं कि उन्हें आदिवासियों के साथ सहानुभूति है बल्कि इसलिए ताकि विवाद वाला मुद्दा और अपराध कवर हो जाए।

यहां तक कि उस व्यक्ति ने भी यही किया था, जिसने उस मार्च का आयोजन किया था जहां भारत विरोधी नारे लगाए गए थे। एक ऐसा विरोध प्रदर्शन जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में बात की जा रही थी। लेकिन सच्चाई यह है कि राष्ट्र के खिलाफ बोलना कहीं से भी स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी नहीं है।

आज वे कह रहे हैं कि भारत में विरोध करने के अधिकार को कुचला जा रहा है। ऐसे में मैं उनसे कहना चाहता हूं,

यह आपकी वजह से हो रहा है। अगर आपने यह आपराधिक कृत्य नहीं किया होता तो यह बात कभी नहीं होती। यह आपके कार्यों का परिणाम है। जेएनयू के साथ आज जो भी हो रहा है, उसके लिए आप सभी ज़िम्मेदार हैं। आप गोदी मीडिया को दोष दे सकते हैं, आप सरकार को दोष दे सकते हैं लेकिन अंत में आप ही ज़िम्मेदार हैं क्योंकि जेएनयू इन कार्यों के कारण कीमत चुका रहा है।

सबरीमाला और एक्स्ट्रा मारिटीएल अफेयर के मुद्दे पर

पिछले साल 2018 की बात है सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र ने अपनी रिटायरमेंट से पहले सबरीमाला में औरतों के प्रवेश पर मंजूरी दी, तो कुछ लोग जो कुछ महीने पहले ट्रिपल तलाक के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले की तारीफ कर रहे थे, वे सुप्रीम कोर्ट के मुखल्फ़ी बन वाये और कहने लगे कि हम हिन्दुओं के साथ सुप्रीम कोर्ट ने हमेशा यही किया है।

मेरे खुद के ऑफिस के दोस्त ने मुझसे एक बार कहा था कि राम मंदिर पर फैसला दिया नहीं पर सबरीमाला पर दे दिया। सच बताऊं तो मुझे इन लोगों का व्यवहार उन लोगों जैसा दिख रहा था, जिन्होंने 1986 को शाह बानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद कोर्ट के फैसले को लेकर देश में हंगामा खड़ा किया था और कोर्ट के जजों पर गंदी टिप्पणियां करना शुरू कर दिया था।

यहां तक कि उसी दौरान सुप्रीम कोर्ट ने एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर(Adultery) को डीक्रिमिनलाईज़ किया तो काफी दुख हुआ। फिर सुप्रीम कोर्ट के बारे में सारी गंदी और अभद्र टिप्पणियां पढ़ने में आईं।

सबरीमाला मंदिर में महिलाओं की एंट्री पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध करती महिलाएं

हालांकि मैं खुद इस फैसले के खिलाफ था क्योंकि मेरा मानना है कि हर शादी एक विश्वास पर टिकी होती है और जब यह विश्वास टूटता है तो पीड़ित आदमी या औरत अंदर से टूट जाते हैं, इसलिए यह प्रावधान होना चाहिए, पर सुप्रीम कोर्ट ने इसे डीक्रिमिनलाईज़ किया।

उनके इस फैसले के बाद भी मेरे मन में सुप्रीम कोर्ट के लिए सम्मान कम नहीं हुआ क्योंकि मैं जानता हूं कि मैं कोई कानून का बड़ा जानकार नहीं हूं लेकिन सुप्रीम कोर्ट है जो 2 पक्षों के लोगो की बात सुनती है, सबूत और गवाहों की रोशनी में रखती है, कानूनी सलाहकारों की मदद लेती है और फिर जिसका पक्ष सही रखा हुआ हो उसके पक्ष में फैसला देती है।

अगर किसी भी मुद्दे पर हारने वाला वकील अपना पक्ष ठीक से नहीं रख पाया तो इसमें कोर्ट की क्या गलती।

इयू नेताओं के डेलीगेशन पर सवाल

यह मसला अभी का है। सब जानते हैं कि भारत में अभी कश्मीर का दौरा करने के लिए यूरोपियन पार्लिमेंट के 27 मेम्बर आए थे। जब यह खबर आई कि वे आने वाले हैं, तो कुछ लोग यह कहने लगे कि इन 27 लोगों का संबंध यूरोप के राइट विंग संगठनों से है इसलिए इनके शब्द कोई मायने नहीं रखते।

हालांकि इन्हीं में से कई राजनेता लिबरल थे लेकिन फिर भी बेकार की बातें हुई और जब एक मेंबर ने यह कह दिया कि मैं मोदी की पीआर एक्टिविटी का हिस्सा नहीं बनूंगा तो वह आदमी इनके लिए सच्चा हो गया। उसके बयान फ्रंट पर छपने लगे, जैसे वे महान राजा हरिश्चन्द्र जैसा हो। मतलब वही बात तुम्हारे पक्ष में बोले तो सही, वरना झूठा मक्कार। शायद इसमें राजनीति का दोष नही है, इंसानी स्वभाव ही ऐसा है।

ऐसे ही लोगों ने एससी/एसटी (SC/ST) एक्ट में तुरंत गिरफ्तारी ना करने का फैसला देने पर ना सिर्फ सुप्रीम कोर्ट को गाली दी थी बल्कि देश के कई हिस्सों में हिंसक आंदोलन भी किये ओर कहा कि कोर्ट मनुवादियों की गुलाम बन गए हैं और आज जब कोर्ट ने तुरंत गिरफ्तारी पर रोक लगाने के पिछले साल के फैसले को वापस ले लिया तो इनके लिये सुप्रीम कोर्ट पाक-पवित्र हो गयी।

कुछ लोग संजीव भट्ट जिसको अभी इस देश की न्याय प्रणाली ने कस्टोडियल डेथ के मुकदमे में दोषी पाया है, उसका बचाव कर रहे हैं। उन लोगों का कहना है कि इसको (संजीव भट्ट) इसलिए पकड़ा गया क्योंकि वह मोदी के खिलाफ बोला था। हालांकि कोर्ट ने उसे पूरे सबूत और गवाहों को देखकर जेल भेजा था।

यह विरोध दरअसल उसको जेल भेजने का नहीं बल्कि न्याय प्रणाली का विरोध है और इस घटिया काम को मोदी का नाम लेकर जस्टिफाई किया जा रहा है।अगर यही संजीव भट्ट मोदी का साथ देते तो क्या ये लोग इनके पक्ष में खड़े होते? मेरा जवाब है नहीं। तब तो जैसे दहियाजी गोबरजी वंजारा (DG Vanzara) को इन्होंने क़ातिल की उपाधि दी थी, वैसे भट्ट को भी ऐसे ही देखना था। इसलिए मैं इनसे कहता हूं कि अब आपको कोई हक नहीं है मोदी और वंजारा को कातिल कहने का।

आज विरोध की राजनीति को कोई एक पक्ष नुकसान नहीं पहुंचा रहा है बल्कि सब पहुंचा रहे हैं यहां तक वे भी जो इसे बचाने की बातें करते हैं। तो क्यों ना हो विरोध के इस तरीके का विरोध।

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