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हम पर्यावरण के प्रति सचेत होते, तो एंटी पॉल्यूशन प्रोडक्ट की ज़रूरत ही नहीं पड़ती

अब तो कमोबेश हर साल मौसम के बदलते ही प्रदूषण का अचानक बढ़ जाना एक पर्व-त्यौहार सरीखे हो गया है। बस इसका उत्सव ही नहीं मनाया जाता है, सब जगहों पर मातम और चिंताएं पसरी हुई हैं कि क्या-से-क्या हो गया?

अब तो साल के कैलेंडरों पर रेड-अलर्ट का निशान लगा देना चाहिए,

सावधान, साल के इन महीनों में देश में प्रदूषण की समस्या बढ़ी रहती है, अपना सेहत का ख्याल रखें और खुश रहें।

चलो एक पल के लिए यह मान भी लें कि समस्या जब हमारी और आपकी है तो हम सरकार के भरोसे क्यों बैठे हैं? क्यों हमें प्रदूषण जैसी समस्या गंभीर समस्या नहीं लगती है? जबकि स्कूली परीक्षा में प्रदूषण वाले सवाल का जवाब देकर पास तो सभी हुए हैं, हम सब जानते हैं कि प्रदूषण के फैलने के कारण क्या-क्या हैं, इसपर नियंत्रण कैसे किया जा सकता है?

देश, राज्य और समाज का नागरिक होने के नाते हम अपनी ज़िम्मेदारी तय क्यों नहीं करना चाहते हैं? हमको लगता है, हमने अपनी हर समस्या के समाधान के लिए एक सरकार चुन ली है, हमारी ज़िम्मेदारी खत्म। अब जो करना है, वह सरकार तय करेगी और हम सुविधानुसार किसी खांचे में बंटकर अपना खेमा तयकर लेंगे और एक-दूसरे पर शब्द-बाण चलाकर प्रदूषण की समस्या का समाधान खोज लेंगे।

अमां यार छोड़ो, जब दुनिया के देशों ने कुछ नहीं किया, जिनका लोकतंत्र हमारे लोकतंत्र से कई सौ साल पुराना है, तो हम क्या ही कर लेंगे, अभी तो हमारे मुल्क को आज़ाद हुए सौ साल भी नहीं हुए हैं।

मुआफ करें, शायद मैं गलत हूं। आम जनता के कुछ सिविलाइज़ लोग, जिनको प्रदूषण से सच में समस्या है, उन्होंने बहुत कुछ किया भी है। मसलन, अपने घरों के अंदर इंडोर प्लांट्स लगवा लिए हैं, घर का पेंट तक बैक्टैरिया से लड़ने वाला करा दिया है, जिसका प्रचार दीपिका पादुकोण और रणवीर कपूर करते हैं। यहां तक कि एलईडी बल्ब जो लगाया है, वह भी बैक्टैरिया किलर है।

प्रदूषण में बढ़ता बाज़ार

अभी एयर प्यूरीफायर ईएमआई से कैसे मिल सकता है, इसके बारे में बजट प्लान कर रहे हैं और घर से बाहर के प्रदूषण से निपटने के लिए ब्रीदिंग मास्क तो है ही। उससे काम नहीं चलता है तो कार में भी एयर प्यूरीफायर लगवा लूंगा और इन सबसे भी बात नहीं बनी तो एक-दो सुट्टा मारकर मामला बैलेंस कर लिया जा सकता है।

सुना है अभी जो हालात हैं वह इस तरह के हैं कि रोज़ दस-बारह सिगरेट पीने के बाद होते हैं। कितने फुद्दू हैं ना हम बतौर नागरिक। बाज़ार ने हमारी विवशता की भी मार्केटिंग कर ली और हमको पता भी नहीं चला।

मार्केंटिग के बंदे ने पूरे आत्मविश्वास के साथ यह कह दिया कि घरों और वर्किंग प्लेस में इंडोर प्लांट्स लगाने से सांस लेने की समस्या से निपटा जा सकता है। यह हम नहीं फलां संस्था की रिसर्च कह रही है।

जिस तरह से मौत और खर्च का डर दिखाकर इंशोरेस कंपनी अपना व्यापार चलाती है। जीवन को संकट में बताकर कंपनियों ने लोगों को व्यक्तिगत स्तर पर लड़ने-भिड़ने के उपाए बता दिए हैं। हमने एक बार भी नहीं सोचा, प्रदूषण की समस्या व्यक्तिगत तो है ही पर इससे अकेले नहीं लड़ा-भिड़ा जा सकता है।

इसके लिए सामाजिक रूप से संगठित होकर प्रयास करने होंगे और सरकारों को भी मजबूर करना होगा कि वे वातावरण को साफ करने के लिए नीतिगत फैसले लें। राजनीतिक दल अपने चुनावी घोषणा पत्र जो संकल्प पत्र हो गया है में इस बात का ज़िक्र करे कि प्रदूषण जैसी समस्या से निपटने के लिए उसके पास क्या-क्या योजनाएं और नीतियां हैं।

कमाल ही ना है हम बचपन में जब छठ पूजा के घाट पर सुबह वाले अर्ध के लिए जाते थे, तो सूरज कुहासे के कारण सात बजे से पहले नहीं दिखता था। छठ का व्रत रखने वाले लोग पूरब दिशा की तरफ मुंह ताकते खड़े रहते थे, लाल सूरज दिखा और अर्ध दे दिया। अब प्रदूषण से हालात ये हो गए हैं कि सूरज धुंध में दिखता ही नहीं है। सूर्य देवता के उगने का टाइम देखकर सूर्य को अर्ध देकर आस्था से मुक्ति भर पा ली जाती है और पूजा सम्पन्न कर ली जाती है।

इस तरह का मंज़र पांच-सात सालों से है पर किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है। किसी को फर्क नहीं पड़ता है इसलिए देश, राज्य, सरकार और नागरिक सब खामोश होकर समस्या से मुंह फेरकर उकड़ू होकर बैठे हुए हैं। सबों को यही लगता है कि देश में प्रदूषण की समस्या बस कुछ महीनों की है।

कोई कैसे इनको समझाए?

फोटो सोर्स- Getty

बच्चों के स्कूली किताब में भी बता दिया गया है कि प्रदूषण कुछ महीनों की नहीं, पूरे साल की समस्या है और इससे लड़ने-भिड़ने के लिए पहले हमको जागरूक होना ही होगा और फिर सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी गंभीर होना होगा। सांस्कृतिक इसलिए क्योंकि प्रदूषण से लड़ने-भिड़ने के लिए सामाजिक गतिशीलता पीढ़ी-दर-पीढ़ी होनी ज़रूरी है।

अब प्रदूषण के प्राकृतिक और मानव-निर्मित आपदा से निपटने के लिए देश, राज्य, सरकार और देश के हर नागरिक की ज़िम्मेदारी तय करनी होगी, तभी हम पर्यावरण को बेहतर करने की दिशा में सफल हो सकेंगे। वरना दिल को खुश रखने के लिए हर ख्याल अच्छे हैं पर उससे कुछ होना नहीं है।

मौत मनुष्य की अंतिम नियती है, वह तो कभी-ना-कभी आनी ही है। जैसे हालिया रिलीज़ फिल्म “लाल कप्तान” के अंतिम संवाद में कहा गया है,

आदमी के पैदा होते ही काल चल पड़ता है, अपने भैंसे पर बैठकर उसे वापस ले आने के लिए। आदमी की ज़िन्दगी उतनी ही जितना समय उस भैंसे को लगा उस तक पहुंचने में। काल सबका आ जाएगा, आकाश, पाताल, देवता, ब्रह्मांड, सब खत्म हो जाएगा, महादेव के ताडंव में। फिर एक बार जन्म लेने के लिए, फिर एक बार मरने के लिए, यही है मनुष्य का इतिहास।

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