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“एक पाकिस्तानी छात्रा का लेदर जैकेट पहनकर नारा लगाना चुभ क्यों रहा है”

पाकिस्तान में स्टूडेंट्स यूनियन की बहाली की मांग को लेकर प्रदर्शन हो रहे हैं। इस बीच वहां के स्टूडेंट्स का एक वीडियो वायरल हुआ है और इस वीडियो से वहां की एक छात्रा लोगों की नज़रों में आ गई हैं। वह छात्रा है अरूज औरंगज़ेब

दिक्कत यह है कि कुछ लोग यहां भी अपनी दकियानूसी सोच लेकर आ गए हैं। इस वीडियो में उन्हें अपनी मांग के लिए नारे लगाते स्टूडेंट्स से ज़्यादा उस लड़की की लेदर जैकेट दिख रही है और लेदर जैकेट को लोग एलीट तबके से जोड़ रहे हैं। इसके साथ ही एक लड़की का इस तरह से अपनी आवाज़ बुलंद करने पर भी लोगों को परेशानी है। मतलब साफ है, ऐसी तंग-ख्याली केवल अपने ही मुल्क में नहीं बल्कि पड़ोसी मुल्क में भी आम बात है।

आवाज़ उठाती लड़कियों को बाज़ारू कहो और मुद्दा गुम

स्टूडेंट्स की जायज़ मांगों पर लोगों का ध्यान ना जाए, इसके लिए तमाम कोशिश होती रही हैं, जैसे अपने देश में लड़कियां जब मुट्ठी तानकर अपनी मांगों को लेकर सड़क पर निकलती हैं, तो वे बाज़ारू कह दी जाती हैं। पड़ोसी मुल्क में अपनी मांगों को लेकर मुखर होने वाली लड़कियों को बुर्जुआ कहना शुरू कर दिया गया है।

सोशल मीडिया पर तेज़ी से वह वीडियो वायरल हुआ है, लोगों की प्रतिक्रियाएं भी देखने को मिली हैं। सवाल तो यह ही उठता है कि किसी खास मुद्दे पर अपनी जहालत भरी प्रतिक्रिया दिखाओ ताकि मुख्य सवाल कभी केंद्र में आ ही नहीं सके।

लेदर की जैकेट पर नज़र रखने वालों को नहीं दिखा सूट-बूट

अरूज औरंगज़ेब

अपनी मांगों को लेकर नज़्म पढ़ते हुए संगठित स्टूडेंट्स समूह में कोट-पैंट और लेदर जैकट पहने पुरुष युवा भी दिखें। अब सवाल है कि इन सूट-बूट वालों को देखकर पूरे समूह को एलीट क्यों नहीं कहा गया? बस अरूज औरंगज़ेब को ही टारगेट क्यों किया गया?

लड़कियों को जिस तरह से आदोलनों में टारगेट किया जाता है, उससे कई सवाल उठते हैं। पहला सवाल यह है कि क्या किसी भी मुल्क के अंदर आधी आबादी अपनी हुकूक के लिए अपनी आवाज़ बुलंद कर भी सकती है?

अगर वह मुट्ठी तानकर समूहों में सड़कों पर उतरती हैं, तो उनके खिलाफ उल्टे-सीधे बयान दिए जाते हैं, जैसे ‘लेदर-जैकट’ पहनी हुई लड़की एलीट क्लास की बुर्जुआ हो गई। हिजाब-बुर्के में अगर कोई लड़की होगी तो वह मज़हबी ख्याल को मानने वाली लड़की होगी।

क्या आधी आबादी का अपना कोई मुल्क होता ही नहीं है? ऐसा ही सवाल वर्जिनिया वुल्फ ने आज से कई दशक पहले उठाया था कि क्या आधी-आबादी की किसी भी वर्ग की महिला बतौर नागरिक अपने हुकूक के लिए अपनी बात नहीं रख सकती है?

मुख्य मुद्दे से भटकाने की साज़िश

बुर्जुआ और गैर-बुर्जुआ के मसले में बांटकर छात्र संगठन की बहाली की मांग को बहस से बाहर करने की कोशिश हो रही है। पूरी बहस में ‘लेदर-जैकेट’ का मसला इस तरह से पेश किया जा रहा है, मानो इसे पहनना एक खास तबके के लोगों का हुकूक है। एक गैर-बुर्जुआ खुद के लिए थोड़ी मेहनत-मशक्त करके ‘लेदर-जैकट’ नहीं खरीद सकता है।

मसला, यह होना चाहिए कि पाकिस्तान के युवा बिस्मिल अज़ीमाबादी की नज़्मों को गुनगुनाते हुए स्टूडेंट्स यूनियन के चुनाव के लिए फिर से बहाली की मांग क्यों कर रहे हैं? खुद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने भी अपनी तालिम विदेश में हासिल की। उस दौरान उनकी सहपाठी स्टूडेंट नेता बेनज़ीर भुट्टो भी थी, जिसका उन्हें पूरा इल्म होगा कि स्टूडेंट्स यूनियन का होना किसी भी यूर्निवर्सिटी के लिए कितना ज़रूरी है।

स्टूडेंट्स यूनियन का महत्त्व

स्टूडेंट्स यूनियन केवल अपने अधिकारों के लिए ही नहीं, देश-दुनिया में चल रही तमाम बहसों से खुद को जोड़ते हैं और तो और दूसरे स्टूडेंट्स को भी बताते हैं कि पूरी दुनिया में चल क्या रहा है। इन संगठनों की आवाज़ चंद स्टूडेंट्स की आवाज़ नहीं बनती, बल्कि ये आवाज़ें उस दौर का आइना होती हैं।

अपने देश की उम्दा यूर्निवर्सिटी JNU में पढ़ाई के दौरान स्टूडेंट्स संगठन की मौजूदगी से होने वाले नफा-नुकसान का जायज़ा लेना चाहिए। दुनिया के तमाम शैक्षणिक संस्थानों में मज़बूत स्टूडेंट्स यूनियन ज़रूर कायम होने चाहिए। ऐसे संगठन किसी भी देश में भविष्य की राजनीति की खाली जगहों को भरते हैं। यही नहीं अपने दौर के हर स्टूडेंट को सही-गलत का चुनाव करने के लिए एक विचारधारा भी देते हैं, क्योंकि बिना विचारधारा के कोई भी इंसान केवल इंसान है, जिसकी चेतना शून्य है।

 

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