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“JNU स्टूडेंट्स पर तुगलकी फरमान लादकर प्रशासन क्या सिद्ध करना चाहती है?”

फोटो साभार- फेसबुक

फोटो साभार- फेसबुक

जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू), जो देश के मध्यवर्ग और गरीबों के बच्चों के लिए उच्च शिक्षा का वह केंद्र है, जहां वे कम पैसे में पढ़कर बेहतर नागरिक बनाने का सपना लिए आते हैं।

मैं अगस्त 2010 में यहां आया और अपनी पीएचडी थीसीस जमा करने तक कैंपस के उस सामाजिकता का हिस्सा रहा जिसमें रात ढाई बजे जब लाइब्रेरी से ढाबे पर चाय पीने जा रहा होता था, तब अपनी एक खेप की नींद पूरा कर कंधे पर बैग लटकाए साथी मित्र कॉमरेड लाइब्रेरी की तरफ जाते दिखते और मैं उनसे पूछता, “क्या हुआ कॉमरेड?” फिर वह मुझे जवाब देते हुए कहते,

अरे, सुपरवाइज़र का मेल आया है। फलां रीडर पढ़कर क्लास आने के लिए कहा है और कुछ लिखकर भी मांगा है। दिन भर तो प्रोटेस्ट में चला गया अब जाकर पढ़ लेते हैं। सुबह तक तो हो ही जाएगा।

यानी तमाम राजनीतिक गतिविधियों के साथ पढ़ाई भी। जहां किसी भी खाली बस स्टैड पर बैठकर आप वहां के स्टूडेंट नहीं होकर भी, जेएनयू की सामाजिकता का हिस्सा हो सकते थे।

प्रोटेस्ट के दौरान जेएनयू स्टूडेंट्स। फोटो साभार- फेसबुक

जहां तमाम महिला साथी या कॉमरेड कहती हैं कि यहां के गर्ल्स हॉस्टल में शाम के 8 बजे ही गेट बंद ना होने की वजह से एक लड़की रात की खूबसूरती और उसकी रौशनी में किसी भी ढाबे पर जाने के लिए स्वतंत्र है, किसी भी हॉस्टल में जाने के लिए स्वतंत्र है, यह हमारे लिए सिर्फ लैंगिक समानता का मसला भर नहीं है, बल्कि यह सेल्फ रेगुलेशन का भी उदाहरण है।

अब जेएनयू काफी बदल गया है

हम किसी भी सहपाठी या दूसरे पाठयक्रम के स्टूडेंट्स से बेझिझक अपने विषय पर बात ही नहीं, बल्कि डायवर्सिटी को भी उसके नज़रिये से समझ सकते हैं। एक मध्यवर्ग और निम्न मध्य वर्ग परिवार की लड़की के लिए यह माहौल मिलना जन्नत से कम नहीं है।

यहां की सामाजिकता ही है जो ब्वॉईज़ हॉस्टल में जाते समय लड़कियों को कोई डर नहीं लगता कि कोई कमेंट मार रहा होगा या मेरे चरित्र के बारे में राय बना रहा होगा।

जेएनयू, एक ऐसी जगह जहां बेखौफ और बिदांस लड़कियां समाज के किसी भी खाप से ही नहीं, बल्कि खाप के बाप से भी आंखे तरेरती हुई पूरे आत्मविश्वास के साथ सवाल पूछती हैं कि पहले यह बताओ बिना हमारी भागीदारी के हमारे हक का फैसला करने वाले तुम हो कौन? तुमको यह हक दिया किसने?

विरोध प्रदर्शन करते स्टूडेंट्स। फोटो साभार- फेसबुक

अब यह जेएनयू काफी बदल गया है या कहें बदल दिया गया है। देर-रात तक ढाबों का खुलना बंद हो गया है, हॉस्टल में पॉलिटिकल डिबेट्स या बातचीत पर रोक लगा दी गई है, जिसका असर क्लास पर भी दिख रहा है।

राम शरण जोशी ने भी जेएनयू की स्थिति पर चिंता व्यक्त की थी

पिछले दिनों वरिष्ठ पत्रकार राम शरण जोशी जब मेरे वाइवा के लिए आए तो स्टूडेंट्स द्वारा पूछे जा रहे सवालों के स्तर से अंचभित थे। बाद में उन्होंने पूछा,

क्या मैं उसी जेएनयू में आया था जहां बड़े-बड़े विद्धान, लेखक, पत्रकार, समाजसेवी और चिंतक आने से पहले काफी तैयारी करके आते थे फिर भी घबड़ाहट होती थी कि पता नहीं जेएनयू के लड़के क्या सवाल पूछ दे?

जब मैंने हाल में हुए बदलावों की बात कही, तो उन्होंने कहा, “यह इस देश के लिए दुखद स्थिति है।”

स्टूडेंट्स की आज़ादी पर हमला

अपने कैंपस की इसी समाजिकता और विरासत में मिली परंपरा को मज़बूत करने और बचाने के लिए जेएनयू के तमाम स्टूडेंट्स प्रशासनिक भवन जिसे “आज़ाद चौक” भी कहा जाता है, वहां बीते शुक्रवार से हड़ताल पर जमे हुए हैं।

तब जब दिल्ली का पूरा वातावरण प्रदूषण की समस्या के कारण आपात स्थिति में है, प्रशासन के उस नादिरशाही फरमान के बाद भी कि प्रशासनिक भवन के सौ गज़ के दायरे में किया गया कोई भी प्रदर्शन दंडनीय होगा।

दरअसल, पूरा मामला यह है कि पिछले दिनों जेएनयू प्रशासन ने हॉस्टल स्टूडेंट्स के लिए एक नया फरमान जारी किया है, जो सीधे-सीधे स्टूडेंट्स की आज़ादी पर हमले के समान है। जेएनयू स्टूडेंट्स यूनियन ने इसके लिए कड़ा ऐतराज़ जताया है। उनका कहना था कि वीसी जेएनयू में कर्फ्यू राज चलाना चाहते हैं।

फोटो साभार- फेसबुक

आनन-फानन में स्टूडेंट्स की राय लेने का वादा करने के बाद भी, बिना उनसे राय लिए इस नए फरमान को पास कर दिया गया। स्टूडेंट्स इसका विरोध करेंगे तो उससे निपटने के लिए पूरे कैंपस को सीआरपीएफ की छावनी में तब्दील कर दिया गया है।

स्टूडेंट्स जो पहले से ही इस नादिरशाही फरमान के विरोध में हड़ताल पर हैं, अब और अधिक मुखर रूप से अपना प्रतिरोध दर्ज़ करने प्रशासनिक भवन में जमा हुए मगर कुलपति कैंपस से लापता हो गए। हलिया जानकारी यही है कि स्टूडेंट्स कुलपति के गायब होने की शिकायत आर. के. पुरम थाने में दर्ज़ करा चुके हैं और अपने प्रतिरोध में डटे हुए हैं।

उड़ीसा के स्टूडेंट इस नियम के कारण घर जाने के लिए मजबूर हैं

मुख्य सवाल यही है कि जेएनयू प्रशासन इस तरह का हॉस्टल मैनुअल क्यों लागू करना चाहती है? जो आचार संहिता सरीखी लगती है। स्टूडेंट्स के मुताबिक जेएनयू प्रशासन चाहती है कि हॉस्टल से रात 11 बजे के बाद निकलने में पाबंदी लगा दी जाए।

स्टूडेंट्स के लिए ड्रेस कोड लाया जाए। इसके अलावा लाइब्रेरी की समय सीमा रखी जाए। आरोप यह भी है कि प्रशासन चाहती है कि हॉस्टल के कर्मचारियों की तनख्वाह भी स्टूडेंट के हिस्से से ली जाए। कैंपस के गेट को शाम 6 बजे बंद कर देने जैसे नोटिस जेल सरीखे नियम की तरह हैं। 

बीते शुक्रवार को पेरियार हॉस्टल के मेस में जब खाना खाने पहुंचा, तब उड़ीसा के एक स्टूडेंट ने कहा,

अगर यह मैनुअल लागू हो गया तो मैं घर लौट जाने को विवश हो जाऊंगा। मैं आगे की पढ़ाई जारी रखने की स्थिति में नहीं हूं, क्योंकि हॉस्टल का ही खर्च एक छमाही में जितना आएगा, उतनी तो मेरे परिवार की आय भी नहीं है। शायद हम जैसे निम्नवर्गीय लोगों को सरकार पढ़ने नहीं देना चाहती है।

यह उदासी केवल उस स्टूडेंट की नहीं, बल्कि कैंपस में पढ़ने वाले चालीस फीसदी स्टूडेंट्स की है। मुझे याद है जब मेरा एक आदिवासी साथी कॉमरेड फेलोशिप के पैसे से लैपटॉप खरीदकर अपने घर गया, तब उसका फोन आया,

यार, मेरे घर में तो मेरा लैपटॉप देखने के लिए लोग इस तरह आ रहे हैं जैसे शादी करके मैं अपने घर पत्नी लाया हूं। मेरे समाज की स्थिति का अदांज़ा तुम लगा सकते हो कि कहां खड़ा है मेरा समाज और मेरे लिए जेएनयू तक पहुंचने और पढ़ने के क्या मायने हैं?

मुख्यधारा की मीडिया में कोई बहस नहीं

दिलचस्प बात यह है कि हमेशा की तरह जेएनयू की खबरों से अपनी टीआरपी पर चार चांद लगाने वाली मुख्यधारा की मीडिया अभी तक जेएनयू के हलिया समस्या पर कोई खबर लगाने के लिए सक्रिय नहीं हुआ है। अपवाद स्वरूप कुछ चैनलों ने स्टूडेंट्स का पक्ष सामने लाने का प्रयास किया है और कुछ वेबसाइट्स पर भी खबरें दिख रही हैं।

विरोध प्रदर्शन करते स्टूडेंट्स। फोटो साभार- फेसबुक

दूसरी दिलचस्प बात यह है कि स्टूडेंट्स के साथ विद्यार्थी परिषद द्वारा भी प्रशासन के फैसले के विरोध में प्रतिरोध दर्ज़ किया जा रहा है। तीसरी दिलचस्प बात यह है कि कैंपस में सीआरपीएफ की तैनाती के बारे में चीफ प्रॉक्टर तक को कोई जानकारी नहीं है।

बहरहाल, मुख्य सवाल यह भी है कि जेएनयू कैंपस में पढ़ने वाले एक समान्य स्टूडेंट की उम्र 25 साल से ज़्यादा ही होती है। वे अपने फैसले खुद लेने में सक्षम हैं। ऐसे में इस तरह की निगरानी की क्या ज़रूरत है?

सवाल यह भी है कि स्टूडेंट्स की निगरानी करने या उन पर तुगलगी फरमान लादकर प्रशासन सिद्ध क्या करना चाहती है? जब जेएनयू के स्टूडेंट्स अब के माहौल में ही बेहतर परिणाम देते रहे हैं, तब इन नियमों को लादकर उन पर अंकुश लगाने का तुक क्या है? क्या एकेडमिक एक्सीलेंस के लिए इस तरह की बंदिशें अनिवार्य शर्त होती हैं?

या फिर यह मौजूदा कुलपति के कार्यकाल के अंतिम समय में अपने आकाओं के लिए उनकी आखरी सलामी का तोहफा है कि कुलपति के पद से मुक्त होने के बाद उनका ख्याल रखा जाए या अपनी भक्ति सिद्ध करने का एक और मौका दिया जाए?

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