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जातिगत भेदभाव वाले देश में आर्थिक आधार पर आरक्षण कितना सही होगा?

जातिगत भेदभाव

जातिगत भेदभाव

संस्कृत नाटक वेणीसंहारम् में कर्ण का वक्तव्य है,

सूतो वा सूतपुत्रो वा यो वा को वा भवाम्यहम्।
दैवायतं   कुले   जन्मः  मयायत्तं  तु  पौरुषम्॥

अर्थात, मैं चाहे सूत हूं या सूतपुत्र अथवा कोई और। किसी कुल-विशेष में जन्म लेना यह तो दैव के अधीन है, मेरे पास जो पौरुष और पराक्रम है, उसे मैने पैदा किया है।

 आरक्षण पर विभिन्न मत

समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों का आरक्षण पद्धति के प्रति अलग-अलग मत है। कोई कहता है होना चाहिए तो कोई कहता है नहीं होना चाहिए लेकिन हमारा मानना है कि समाज में ऐसी परिकल्पना की आवश्यकता है, जिससे समाज के वे लोग (जो चाहे किसी भी जाति, धर्म, समुदाय से संबंध रखते हों) जो सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से वंचित रह गए हैं, उन सभी वंचितों को साथ लाकर राष्ट्र निर्माण में भागीदारी सुनिश्चित की जा सके।

आरक्षण हमारे देश के होनहार लोगों को समाज की मुख्यधारा में लाने की सर्वोत्कृष्ट कल्पना थी लेकिन देश की आज़ादी के शुरुआती वर्षों को छोड़ दें तो जैसे-जैसे समय गुज़रता गया, लोकतंत्र के दूरदर्शी स्वार्थी राजनेताओं की सरकार में कल्पांत तक बने रहने की लालसा ने इसे अपना मज़बूत हथियार बनाना शुरू किया। वे आरक्षण के आधार पर भारतीय समाज को बांटने की शुरुआत करने लगे व अंग्रेज़ों की तरह “फूट डालो और शासन करो” की नीति अपनाने लगे, जबकि आरक्षण के उद्देश्य में कहीं भी जाति विशेष की बात नहीं की गई थी, सिर्फ वंचितों की बात थी, फिर चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, समुदाय से संबंध क्यों ना रखता हो, क्योंकि वंचितों की कोई जाति नहीं होती।

गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा जाति देख कर नहीं आती। जिन शब्दों के उच्चारण मात्र से जनमानस का हृदय स्पंदित हो उठता था और एक जुनून सा जाग उठता था, आज उन शब्दों का बखूबी इस्तेमाल कर जनमानस को ठगने का काम हो रहा है। जबकि “दलित शब्द” का सरोकार उन लोगों से है

फिर चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, समुदाय से क्यों ना संबंध रखते हों मगर इसे जाति सूचक का ब्रांड एंबेस्डर बना दिया गया।

क्या हो आरक्षण का आधार?

आरक्षण का आधार वह होना चाहिए था, जिससे सभी जाति, धर्म और समुदाय के वंचितों को लाभ मिलता है परंतु ऐसा शुरुआती दौर से ही नहीं हुआ था। सरकार में बने रहने के लिए इसका भरपूर उपयोग किया जाता रहा।

भारत में कई जातियां हैं परंतु मंडल कमीशन ने कुछ ही जातियों को शुरुआती दौर में आरक्षण के दायरे में रखा, परिणाम स्वरूप यह हुआ कि शुरुआती दिनों में ही जिसने आरक्षण का लाभ ले लिया, वह आज भी ज़्यादातर उन्हीं के वंशज लाभ ले रहे हैं। यानी “आरक्षण में परिवारवाद”। इससे हुआ यूं कि उस जाति के गरीब भी आरक्षण का लाभ लेने से वंचित होते चले गए।

जाति के नाम पर कुछ मुट्ठी भर लोग आरक्षण का लाभ लेते आ रहे हैं तथा उन्हीं की अगली पीढ़ी लाभ लेने में आगे है। गरीब व उनके बच्चों का समय तो जीविकोपार्जन में ही बीत जाता है। नहीं तो आज आज़ादी के 73 साल बाद भी आरक्षण से लाभान्वित पिछड़ी जातियों का समुचित विकास क्यों नहीं हो पाया है? हद तो तब हो गई जब आरक्षण के लिए क्रीमी लेयर की सीमा को समय-समय पर बढ़ाया जाने लगा।

फोटो साभार- getty images

सर्वप्रथम तमिलनाड़ू सरकार द्वारा गठित “सतनाथन आयोग” ने 1970 में क्रीमी लेयर की सिफारिश की थी। 1992 में इंदिरा साहनी केस में सुप्रीम कोर्ट ने एक लाख रुपया सालाना आय से अधिक वाले को क्रीमी लेयर में रखा। उसके बाद समय-समय पर इसकी सीमा बढ़ाई जाने लगी, जो 2004 में 2.5 लाख, 2008 में 4.5 लाख, 2013 में 6 लाख और अक्टूबर 2015 में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने इसे 15 लाख प्रतिवर्ष आय वाले परिवार को भी आरक्षण का लाभ देने की संस्तुति की।

वर्तमान सरकार ने इसे 2017 में 8 लाख करने की घोषणा की, जो केवल ओबीसी आरक्षण पर ही लागू होती है, अनुसूचित जाति व जनजाति आरक्षण पर नहीं। जबकि स्वतंत्र भारत के लोकतंत्र की सरकारों को आर्थिक स्थिति को आरक्षण का आधार बनाना था। जिस मापदंड के अंतर्गत राष्ट्र के सभी जाति, धर्म, समुदाय के वंचित तबके के लोगों को सामाजिक न्याय मिलता और राष्ट्रीय कल्याण में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करते। परंतु हुआ इसके ठीक विपरीत, आर्थिक आरक्षण को दरकिनार कर जातिगत आधार को मापदंड बनाया गया।

वर्तमान भारत में आरक्षण

आज़ादी के 73 साल बाद आज की स्थिति काफी भयावह हो गई है। देश की जनता जाति के आधार पर टुकड़ों में बट गई, सामाजिक सौहार्द, भाईचारा खतरे में पड़ गया। जबकि हमारे महापुरुषों को पता होना चाहिए था कि आरक्षण का यह जातिगत मापदंड भविष्य में देश की एकता के लिए खतरा होगा। फिर भी सरकार में बने रहने की लालसा से उन्होंने इसे महत्वपूर्ण हथकंडा बनाया।

समय के साथ बहुत से नेता राष्ट्र कल्याण और विकास की राजनीति के बगैर जातिगत राजनीति कर अपने राजनैतिक करियर में शीर्ष पर गए और अपने अपात्र वंशजों के लिए अकूत संपत्ति संग्रहित करने लगे। जबकि जातिगत राजनीति के पैदावार नेता को उनकी जाति की प्रगति से ज़्यादा, अपनी प्रगति प्यारी लगने लगी। नहीं तो आज़ादी के 73 साल बाद भी पिछड़ी जाति में उतना उत्थान नहीं हुआ, जितना होना चाहिए था।

वर्तमान के नीति निर्धारक ने “आरक्षण में परिवारवाद” बनाए रखने के लिए समय-समय पर क्रीमी लेयर की सीमा में बढ़ोत्तरी कर उसी जाति के आर्तजनों का गला घोटा है। अब आज स्थिति अत्यंत हीं दुष्कर हो गई है तो  कोई भी लोकतांत्रिक सरकार आरक्षण के संदर्भ में बदलाव करने की नहीं सोच सकता। सबको सरकार में बने रहने की पड़ी है।

जिस प्रकार क्षेत्रीय नेताओं का अभ्युदय सिर्फ जाति, धर्म और समुदाय के नाम पर हो रहा है उस परिस्थिति से ना केवल राष्ट्र की एकता और अखंडता बल्कि सम्प्रभुता के लिए भी खतरा बनते जा रहा है। ऐसे नेतृत्वकर्ता अपने को सम्बंधित समुदाय के मूर्ख भोली-भाली अबोध जनता के सामने अपने को उसका रहनुमा बताकर उन्हें बरगला रहे हैं व भारतवर्ष की अखंडता को खंडित करने का काम ले रहे हैं।

वर्तमान में अधिकतर नेता सिर्फ जातिवाद की राजनीति कर रहे हैं, किसी को राष्ट्रीय कल्याण से कोई सरोकार नहीं।

जबकि बात होनी चाहिए कि सही लोगों को इसका लाभ मिले।

कैस सुधरे यह संतुलन?

आज ज़रूरत है समय के साथ आरक्षण के आधार प्रणाली में वैज्ञानिक सोच के साथ संशोधन की जिससे इसे एक सहारे के रूप में विकसित किया जा सके। आरक्षण पद्धति का आधार अब आर्थिक हो जिससे सभी सभी जाति धर्म समुदाय के गरीब इसका लाभ ले सके। जैसे,

यदि ऐसा ना हो पाया तो सामाजिक सौहार्दपूर्ण भाईचारे के साथ आज़ादी की शताब्दी वर्ष मनाना भी हमें लगता है कि  मुश्किल हो जाएगा। अतः इस संदर्भ में अब समाज के शिक्षाविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, नौकरशाही व्यवस्था, विधायिका व न्यायपालिका को मिलकर इसपर मंथन कर एक साम्यवादी समाज की स्थापना पर सर्वसमता से चिंतन कर यथाशीघ्र कोई ठोस निदान निकालना चाहिए।

परिस्थितियों से जूझते हुए चेहरे

माथे की सिकुड़न, आंखों की नमीं

सूखे होठों पर एक चुप्पी थमीं

जीवन के संघर्ष की एक बेबस कहानी

एक तिनका, एक लत्ता, एक दाना

और दो बूंद पानी।

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