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उत्तराखंड के इस कॉलेज के स्टूडेंट्स भी फीस वृद्धि के खिलाफ कर रहे हैं 50 दिनों से प्रोटेस्ट

मुख्य बिंदु

केदारनाथ आपदा के बाद पूरे देश का ध्यान उत्तराखंड की तरफ मुड़ा था। उस वक्त के बाद से राज्य के हालातों और हादसों के बारे में सब जागरूक हुए। यहां का निवासी होने के नाते मैं आपको बताना चाहूंगा कि प्रदेश में लोग अपनी आजीविका जैसे-तैसे चलाते हैं क्योंकि यहां पर आर्थिकी का ज़रिया मैदानी इलाकों की तरह कृषि या अन्य उद्योग नहीं है।

ज़्यादातर लोग पलायन कर होटल या फैक्ट्रियों में या अन्य जगहों पर काम करके अपना गुज़ारा कर रहे हैं लेकिन इन सबके बावजूद यहां का मध्यम वर्ग या गरीब वर्ग भी अपने बच्चों को चिकित्सक के रूप में देखना चाहता है। इस आशा में जिनके पास पैसा है वे बड़े-बड़े संस्थानों में पैसा दे रहे हैं, जिनके पास ज़मीन है वे उसे गिरवी रख रहे हैं और जिनके पास कुछ नहीं है वे हार मान रहे हैं।

फीस वृद्धि का विरोध प्रदर्शन करते उत्तराखंड आयुर्वेद कॉलेज के विद्यार्थी, फोटो साभार – bleeding ayurveda फेसबुक पेज

इन तमाम संघर्षों का सामना करते हुए कुछ युवा कॉलेज जा रहे हैं लेकिन उन्हें वहां भी धोखा मिल रहा है। आज उत्तराखंड के सोलह आर्युवेदिक कॉलेज के हज़ारों छात्र-छात्राएं 50 दिनों से आंदोलन कर रहे हैं। हुआ यह है कि बिना नियमों का पालन किए मेडिकल फीस 80,000 सालाना से बढ़ाकर 2 लाख 15 हज़ार कर दी गई है।

सिर्फ JNU का विद्यार्थी नहीं, उत्तराखंड का विद्यार्थी भी आज सड़क पर है

उत्तराखंड के 16 आयुर्वेद के कॉलेज के स्टूडेंट्स फीस बढ़ोतरी के खिलाफ पिछले 50 दिन से विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। देहरादून की सड़कों पर नारे लगाते हुए यह विद्यार्थी अब भूख हड़ताल पर हैं। वजह सीधे तौर पर यह है कि

इस फैसले के बाद विद्यार्थियों ने केस लड़ा और हाईकोर्ट के सिंगल बेंच से केस जीत भी गए थे। उसके बाद डबल बेंच से भी जीत गए लेकिन इसके बाद भी फीस वृद्धि वापस नहीं हुई है।

सोचिए, यह किस तरह की मनमानी है? सरकार और प्राइवेट कॉलेज संचालकों का यह रवैया अत्यंत निराशाजनक है। जो फीस वाजिब दर पर पहले से चली आ रही है, उसे कोर्ट के निर्णय के बावजूद भी वापस नहीं लिया जा रहा और उसे बढ़ा दिया गया।

मेरा मेडिकल कॉलेज सिर्फ कागज़ पर था

इन कॉलेजों की व्यवस्था और मनमानी का मैंने खुद सामना किया है। मैं अत्यंत उत्साह के साथ 2 वर्ष की मेडिकल की तैयारी के बाद कॉलेज में पहुंचा था। बाकी छात्रों की तरह मेरे अंदर भी चिकित्सक बनने का उत्साह चरम पर था।

जब पहली बार मैं कॉलेज पहुंचा तो एक बड़ी सी इमारत देखी, सोचा यह मेरी कॉलेज की बिल्डिंग है लेकिन वह मेरे कॉलेज की बिल्डिंग नहीं थी। मेरा कॉलेज कागज़ पर था और उसकी बिल्डिंग निर्माणाधीन थी।

जैसे-तैसे करके एक बालकनी जैसी जगह पर हमारी क्लास स्टार्ट हुई। इसके बावजूद भी मन में हेय दृष्टि नहीं आई, सोचा पढ़ाई की जाए। हम पढ़ने के लिए आए थे और पढ़ने भी लगे।

उस समय मेडिकल नाम से हटकर अचानक से आयुर्वेद की चर्चा हुई। आत्मा, शरीर, पंचभूत सुनकर थोड़ा अजीब भी लगा कि संस्कृत पढ़ने तो नहीं आए थे लेकिन जब पढ़ाई की और उसको समझा तो लगा कि हां, जो हमारे आचार्य कह कर गए हैं वह यथार्थ सत्य है।

जब आयुर्वेद विषयों में मॉडर्न विषय जैसे, एनाटॉमी और फिज़ियोलॉजी सामने आए तो थोड़ा उत्साह बढ़ गया। लगा हां, डॉक्टरी कर रहे हैं। सेकंड इयर, जिसे हम इयर नहीं प्रॉफ कहते हैं, उसमें भी फार्मोकोलॉजी, पैथोलॉजी जैसे विषय रहे आगे हमने गायनीक सर्जरी, ऑप्थाल्मोलॉजी और ईएनटी जैसे विषय पढ़े।

फीस वृद्धि का विरोध प्रदर्शन करते उत्तराखंड आयुर्वेद के कॉलेज के विद्यार्थी, फोटो साभार – bleeding ayurveda फेसबुक पेज

अपनी फीस का लोन आज तक चुका रहा हूं

जब हम ग्रैजुएट हुए और नौकरी करने के लिए बाहर निकले, तो समझ नहीं आया कि शुरुआत कहां से की जाए? सौभाग्यवश मुझे एक जगह पर 17000 मासिक आय पर नौकरी मिल गई। बेरोज़गारी के मैंने बहुत सारे डरावने किस्से सुने और देखे थे, उनके बीच यह 17000 रुपए की नौकरी बहुत सुकून देने वाला पल था।।

मैं अपने संस्थान और गुरुजनों सबका शुक्रगुज़ार हूं लेकिन इसके बावजूद भी यही कहना चाहूंगा कि कॉलेज में साढ़े 4 वर्ष बिताने और एक साल की इंटर्नशिप करने के बाद भी, मैं जहां पहुंचना चाहता था, वहां नहीं पहुंच पाया हूं। आज स्थिति ये है कि मैं 5,85000 की कुल फीस में 4 लाख का लोन को चुका रहा हूं।

इतना कुछ होने के बावजूद दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि एक आयुर्वेद चिकित्सक को ना तो समाज अपना रहा है और ना सरकार। मेरी तो यही गुज़ारिश है कि शिक्षा मुफ्त ही होनी चाहिए और अगर मुफ्त नहीं कर सकते तो कम से कम न्यूनतम दरों पर हो।

आयुर्वेद और एमबीबीएस के साथ भेदभाव

सरकार समान समय देने और समान विषय पढ़ने के बाद दो पैथियों (आयुर्वेद और एमबीबीएस) को भिन्न दृष्टि से देखती है। ये युवाओं के सपनों पर कुठाराघात करने जैसे है।

यदि आप उचित सुविधा उपलब्ध नहीं करवा पा रहे हैं और व्यवसाय की दृष्टि से चीज़ों को देखते हैं तो आप किसी और सामान की दुकान खोल लीजिए लेकिन मध्यमवर्ग का पढ़ने वाला एक छात्र जो पुरातन निर्दोष स्वास्थ्यप्रद और सस्ती पैथी, जो कि उत्तराखंड जैसे राज्य में बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकती है; में अध्ययन कर प्रदेश और समाज की सेवा करना चाहता है, तो उसे बढ़ी हुई फीस के बोझ तले दबाना निश्चित ही उसके सपनों पर कुठाराघात है।

उत्तराखंड एक विषम भौगोलिक परिस्थिति वाला राज्य है, जहां आयुर्वेद चिकित्सक हेल्थ सिस्टम की महत्वपूर्ण कड़ी साबित हो सकते हैं।

फीस वृद्धि का विरोध प्रदर्शन करते उत्तराखंड आयुर्वेद के कॉलेज के विद्यार्थी, फोटो साभार – bleeding ayurveda फेसबुक पेज

बीएएमएस (BAMS) ग्रैजुएट आखिर जाएं तो जाएं कहां?

आज देहरादून, हरिद्वार, हल्द्वानी और रुद्रपुर जैसे शहरों में छोटे एवं बड़े अस्पताल और नर्सिंग होम्स में आयुर्वेद चिकित्सक आकस्मिक चिकित्साधिकारी (EMO) के तौर पर कार्य कर रहे हैं और ICU भी संभाल रहे हैं।

जब सरकारी स्तर पर बीएएमएस (BAMS) के हित में निर्णय की बात होती है, तो MBBS लॉबी विरोध में आ जाती है और जब अपने अस्पतालों में 15000 रुपए में चिकित्सक चाहिए तो बीएएमएस (BAMS) से परहेज़ नहीं।

सरकारी और सामाजिक स्तर पर लगातार अवहेलना का शिकार बीएएमएस (BAMS) ग्रैजुएट आखिर जाएं तो जाएं कहां?

सरकार हमें नौकरी तो देती नहीं और हमारा समाज, फास्टफूड कल्चर में चिकित्सा भी फास्ट चाहता है। ऊपर से फीस वृद्धि जैसे निर्णयों से सामान्य छात्र की कमर टूटनी लाज़मी है। जब सरकार के पास या कॉलेज संचालकों के पास संसाधन नहीं हैं, तो ऐसे कॉलेज खोले ही क्यों जा रहे हैं?

शिक्षा व्यवसाय का ज़रिया बन चुकी है और राजनीतिक संरक्षण प्राप्त लोगों के लिए कोर्ट का निर्णय भी कोई मायने नहीं रखता है। इन सबकी वजह से जो आम विद्यार्थी अपने परिवार की न्यूनतम ज़रूरतों के बाद चिकित्सक बनने का ख्वाब संजोए बैठे हैं, उन्हें बढ़ी हुई फीस के कारण अपना भविष्य अंधकार में दिख रहा है। ऐसा होने से सामाजिक भेदभाव व्यवस्थागत भेदभाव स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है।

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