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“अपने राज्य को बेहतर शिक्षा देने में नाकामयाब सुशील मोदी को हमारा JNU चुभ रहा है”

जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (JNU) वर्षों से आकादमिक उत्कृष्टता की पहचान बन चुका है, जिसे NAAC (राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद) ने A++ की मान्यता भी दी है।

बावजूद इसके JNU से नफरत को लेकर फैली कुंठा का आलम यह है कि एक तरफ डॉ स्वामी मानते हैं कि JNU में कैंसर अंदर तक फैल गया है, तो वहीं दूसरी तरफ ट्विटर पर सुशील मोदी का बयान भी काफी निंदनीय है।

सुशील मोदी को गरीबों के हक की बात करने वाले JNU के स्टूडेंट्स चुभते हैं

सुशील मोदी बिहार में BJP के नेता और सत्ता में आसीन बिहार की जनता के कर्णधार भी हैं। इन्हें बद-से-बदतर होते बिहार के सामाजिक, आर्थिक हालात परेशान नहीं करते हैं। अस्पतालों में मरते बच्चे, बाढ़ से त्रस्त बिहार की जनता, नौकरी व शिक्षा के लिए पलायन करते बिहार के युवा विचलित नहीं करते हैं। लेकिन गरीबों के हक की बात करने वाले JNU के स्टूडेंट्स चुभते हैं।

हैरत की बात यह है कि बिहार में गरीबों और उनके हकों, अधिकारों को बचाने की झूठी दलीलें देकर सत्ता में बैठे ये लोग अपने प्रदेश बिहार के भी सगे नहीं हैं। ये जिस विचारधारा के पोषक हैं, उसमें गरीब को और गरीब व अमीर को और अमीर बनाए जाने की मज़बूत नीति का पालन किया जाता है।

पूंजीवाद व बाज़ारवाद के पालने में बैठकर देश चलाने वाले लोग फिलहाल देश की तमाम सार्वजानिक संस्था को निजी हाथों में बेच देने के मूड में है। हर साल दिल खोलकर अमीरों के करोड़ों, अरबों रुपए के लोन माफ करने वाली यह सरकार सरकारी शिक्षण संस्थानों के बजट में लगातार कटौती कर रही है और शिक्षा को बाज़ार के हवाले कर रही है।

सरकारी स्कूलों के हालत किसी से छुपे नहीं हैं। निजी स्कूल देश की बहुसंख्यक आबादी के बजट से बाहर हो चुके हैं। फीस बढ़ोतरी महज़ बहाना है, गरीबों की शिक्षा से दूरी निशाना है।

लगभग महीनेभर से प्रदर्शन कर रहे JNU के स्टूडेंट आखिर क्यों सड़कों पर लाठियां खा रहे हैं?

इस पूरे मसले को समझने की ज़रूरत है। 28 अक्टूबर को Intra Hall Administration (IHA) जो JNU के हॉस्टल को रेगुलेट करती है, उसकी मीटिंग होती है और नए हॉस्टल नियम बनाए जाते हैं, जिसमें सर्विस चार्ज, मेस वर्कर का वेतन, सहित मेस की सिक्योरिटी जोड़ी गई।

सभी चार्जों को जोड़ दिया जाए तो जो खर्च पहले 8 हज़ार के आसपास था, वह बढ़कर 48 हज़ार पहुंच रहा है। यहीं से प्रदर्शन शुरू हुआ जो गिरफ्तारी, लाठीचार्ज वॉटर केनन व महिलाओं के साथ बदसलूकी की शक्ल ले चुका है।

गरीब और महिलाओं को शिक्षा से वंचित करने की साजिश

JNU प्रोटेस्ट के दौरान स्टूडेंट को घसीटते पुलिस। फोटो सोर्स- सोशल मीडिया

असल में मामला पैसे का नहीं है, बल्कि गरीब, किसान-मज़दूरों के बच्चों और लड़कियों को कैंपसों से और शिक्षा से दूर रखने की साज़िश का है। जिस JNU में लगातार कई सालों से लड़कियों की संख्या लड़कों से अधिक रही है, वहां फीस बढ़ने से ना जाने कितनी लड़कियों के बेहतर कल के सपने चकनाचूर हो गए हैं।

पिछले कुछ सालों में प्रवेश परीक्षा का मॉडल बदलकर वंचित समुदायों के बच्चों को JNU से दूर रखने की साज़िशों के बावजूद आज भी JNU में 40% विद्यार्थी उन परिवारों से आते हैं, जिनकी मासिक आय 12000 रुपए से भी कम है।

JNUTA द्वारा जारी की गई 2016-17 की रिपोर्ट बताती है कि 25 प्रतिशत विद्याथियों के परिवार की मासिक आय 6000 रुपए है। सरकार फीस बढ़ाकर इन तबकों से आने वाले विद्यार्थियों के हौसलों और उम्मीदों को तोड़ देना चाहती है।

फीस बढ़ोतरी के मामले को सत्ता द्वारा JNU पर एक और हमले के तौर पर देखा जा सकता है लेकिन ये हमले नए नहीं हैं, ये मोदी सरकार के सत्ता में आने के तुरंत बाद से ही शुरू हो गए हैं।

सवाल यह उठता है कि आखिर क्यों वर्तमान सरकार JNU को बर्बाद करना चाहती है?

कभी देशद्रोही का तमगा देकर तो कभी अर्बन नक्सल बताकर लगातार JNU को बदनाम करने की साजिश की जा रही है। सत्ता को साजिश करने की ज़रूरत तब पड़ती है जब सत्ता में बैठे लोग सवाल से डरने लगते हैं। JNU की रवायत रही है कि वह देश की सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक हालातों पर मुखर होकर सरकार से सवाल करती है। शोध के साथ-साथ सवालों से सरकार को लोकतान्त्रिक मूल्यों को समझाने का JNU का इतिहास रहा है।

इस विश्वविद्यालय में स्थापना के समय से ही देश की लोकतान्त्रिक बहुलता की झलक मिलती रही है, यहां सभी धर्म जाति और सभी विचारधारा के लोग एकसाथ मिलकर अमन और शांति की सीख पूरे देश को देते रहे हैं। यही वजह है कि आज जब फीस वृद्धि का मसला सामने आया तो अलग-अलग विचारधारा को मानने वाले लोग एकजुट होकर सिर्फ JNU को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं।

इस फीस विवाद के बीच देश के पूर्व सलाहकार, पद्मश्री प्राप्त लेखक व प्रोफेसर अमिताभ मट्टू मानते हैं,

JNU वह जगह है, जो बहुलता में लोकतंत्र को समझाता है। किसी भी पृष्ठभूमि को दरकिनार कर स्वाभिमान के साथ कम्युनिटी में रहने की प्रेरणा देता है। यह जेंडर फ्रेंडली जगह है, जहां लड़कों से ज़्यादा लड़कियों की संख्या देखी जा सकती है। बेहद खराब दौर में भी यहां आशावाद ज़िन्दा दिखाई देता है। किसी भी तरह के ऊंच- नीच को खत्म कर संवेदनशीलता को बनाए हुए है, जो किसी भी संस्थान में होना ज़रूरी है। JNU अहिंसक जिज्ञासु लोगों की जगह है।

जितनी शिद्दत से स्टूडेंट्स JNU को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं, उतनी ही बर्बरता से सरकार JNU के आशावादी आन्दोलन को कुचलने में लगी है, ताकि देश के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संसाधनों पर कब्ज़ा करके गरीबों को ज्ञान प्राप्ति से भी दूर किया जा सके। इन्हें JNU मॉडल से इतनी नफरत है।

सत्ता में काबिज़ ताकतों ने हमेशा से वंचित लोगों को ज्ञान से दूर रखने के लिए तमाम तरह के षड़यंत्र रचे हैं, क्योंकि ज्ञान में वह ताकत है, जिसके बलबूते गरीब लोगों के बच्चे अपने जीवन को बेहतर बना सकते हैं। JNU सुनिश्चित करता है कि यहां हर वर्ग के लोग पढ़ाई करके देशहित में काम कर सकें।

आधारभूत बात यह है कि मंदी की मार झेल रही देश की सरकार युवा पीढ़ी सहित देश की तमाम जनता का ध्यान भटकाने की कोशिश में लगी है। लगातार गिरती अर्थव्यवस्था व चौपट होते उद्योग, बेरोज़गार होते युवा, यौन शोषण की शिकार होती महिलाएं, आत्महत्या करते किसानों को गुमराह कर पेट के सवालों पर उलझा देना चाहती है, ताकि जनता सरकार से कोई सवाल करने की हालत में ना रहे।

JNU अपने हौसलों व एकजुटता के दम पर इनके मंसूबों को लगातार नाकाम कर रही है। इस बौखलाहट में इस विश्वविद्यालय पर हमले किए जा रहे हैं। इतिहास गवाह है जब दमन का दौर लम्बा होता है, तो उसकी जीत उतनी ही मज़बूती के साथ सुनिश्चित होती है।

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