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“विकास के नाम पर आदिवासियों को प्रकृति से दूर करना पूरी मानव जात के लिए खतरा है”

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

इस पृथ्वी के सभी प्राणियों में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो सबसे विकसित और संगठित सामाजिक समूह में रहकर नई चीज़ों को सृजन करने की क्षमता रखता है।

सूर्य की किरण इस पृथ्वी को नया जीवन देती है। वर्षा की बूंदें जैविकता के हर आयाम को नूतन कर देती है। यह प्रकृति इतनी दयालु है कि जटिल व्यवस्थाओं द्वारा इस पृथ्वी के सभी जलीय, स्थलीय एवं आकाशीय जीवों तक अपना नया जीवन प्रदान करती है।

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

यह प्रकृति मुरझाई हुई पत्तियों में नया जीवन डाल देती है। पृथ्वी फिर से हरी-भरी हो जाती है और सब नया हो जाता है। भोर की ओस की बुंदें जब सूरज की पहली किरण को स्पर्श करती है, तब मानो भूमि में मोती बिखर जाती है। ऐसे मनोहर दृश्य को देखकर मन मंत्रमुग्ध हो जाता है।

जब मनुष्य प्रकृति से जुड़ता है तब जाकर प्रकृति की सुंदरता का आनंद ले पाता है अन्यथा मनुष्य प्रकृति की सुंदरता को देखने और समझने से वंचित रह जाता है।

जब प्रकृति अपनी सुंदरता बिखेरती है, तब मनुष्य के अंदर का कवि जीवित हो जाता है। जब प्रकृति अपने रंग बिरंगे मेघ-धनुष के रंगों को आकाश में बिखेरती है, तब मनुष्य के अंदर का चित्रकार बाहर आकर उन रंगों को अपने कैनवास में कैद कर लेता है और एक अद्भुत कलाकृति को उकेरकर कोई शिल्पकार उसे मूर्त रूप देता है।

आदिवासियों को जंगली कहने की मानसिकता शर्मनाक है

आदिवासी समुदाय। प्रतीकात्मक तस्वीर

मनुष्य प्रारम्भ से ही प्रकृति के समीप रहने की ख्वाहिश रखता था। यही कारण था कि कुछ मानव प्रजातियां प्रकृति के निकट रही हैं लेकिन सभ्य और ज्ञानवान लोगों ने उन्हें जंगली कहकर मानव प्रजातियों का अपमान किया, जो बेहद शर्मनाक है। यही मानव प्रजातियां जिसे आदिम जाति कहते हैं, वे जीवनदायनी प्रकृति की रक्षा करते रहें। आज भी वे अपने कर्तव्यों को पूरा कर प्रकृति प्रदत्त जल, जंगल और ज़मीन की रक्षा कर रहे हैं।

दुखद बात यह है कि बुद्धिमान कहे जाने वाले कुछ मनुष्य उन ‘आदिम जाति’ को खत्म करना चाहते हैं। उन्हें प्रकृति की गोद से विमुख और विस्थापित करना चाहते हैं ताकि प्रकृति के सभी बहुमूल्य संसाधनों पर अपना अधिकार कर लें।

पहाड़ों की चोटियों को देखकर उन पर पहुंचने की ख्वाहिश हर कोई रखता है। समुद्र के नीले जल के अंदर का नज़ारा देखने की इच्छा हर कोई करता है। पंछी की तरह आकाश में उड़ने की चाह हर किसी के अंदर होती है। मनुष्य ने जब भी किसी चीज़ का निर्माण किया है, उसकी प्रेरणा हमेशा प्रकृति ही रही है। शायद मनुष्य इस बात से इंकार करे लेकिन सत्य यही है।

लालच के कारण मनुष्य प्रकृति से हो रहे हैं दूर

मनुष्य द्वारा उसके ज्ञान के ज़रिये जिन चीज़ों का निर्माण किया गया, उसके पीछे प्रकृति ही थी। जब मनुष्य ने पानी में चलना चाहा तो मछलियों को देखा और नौका बनाकर जल पर कब्ज़ा कर लिया। जब उड़ने की इच्छा हुई, तब पक्षियों को देखा और उसने हवा में उड़ने वाले जहाज बना लिए।

महत्वाकांक्षाओं से भरा हुआ मनुष्य अपनी इच्छा और ज़िद्द को पूरा करने के लिए प्रकृति पर ही निर्भर था। वह प्रकृति से भी बड़ा और महान बनने की इच्छा रखता था। उसने अपने लिए नई-नई सभ्यताओं की नींव रखी। नगर बसाने के साथ-साथ किले भी बनाए।

युद्ध लड़े, एक-दूसरे का बेरहमी से गला रेतते और हत्या करते रहें। प्रकृति की इस पवित्र भूमि पर एक-दूसरे का रक्त बहाते रहें। महत्वाकांक्षाओं ने मनुष्य को क्रूर बना दिया।

यह पूर्ण सत्य है कि जो भी प्रकृति से सम्बन्ध तोड़ता है, उसके अंदर क्रूरता के सभी गुण व्याप्त हो जाते हैं फिर वह प्रकृति का सम्मान नहीं करता और ना ही प्रकृति से कोई मोह रह जाता है। वह लोभ-लालच में इतना अंधा हो जाता है कि प्रकृति को अपने हाथों मार डालना चाहता है।

पेड़ों की कटाई। फोटो साभार- Getty Images

प्रारम्भ से ही ऐसा होता आया है कि कुछ मनुष्य प्रकृति के सानिध्य में रहें और कुछ मनुष्यों ने अपनी महत्वाकांक्षाओं में प्रकृति को बर्बाद करने की ठान ली। आज उनके परिणामस्वरुप प्रकृति के हर स्रोत को मनुष्य ने दूषित कर दिया है।

प्रकृति के खात्मे की चरम सीमा पर पहुंचने के बाद बुद्धिजीवी मनुष्यों को चिंता सताने लगी। उन्होंने अपने नए अभियान शुरू कर दिए। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संगठन बनें और विश्व मानव समुदाय को मनुष्य द्वारा प्रकृति के विनाश की गाथा सुनाई गई। इसी के साथ ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ की घोषणा की गई।

मानव समुदाय को प्रकृति की रक्षा के उपाय बताए गए लेकिन अब भी मनुष्य का मन कठोर है और प्रकृति को नष्ट करने की हर एक प्रयास जारी है। मनुष्य को कौन समझाए कि प्रकृति की मौत यानी सम्पूर्ण मानव जाति की मौत।

चरम सीमा पर है प्रकृति की सहनशीलता

एक मनुष्य का औसत जीवन 70-80 वर्ष का होता है। अब तो लोग दूषित पर्यावण के कारण गंभीर रोगों से बेवक्त मर रहे हैं। अस्थमा, त्वचा संबंधित रोग, कैंसर, नए-नए संक्रमण वाले रोग, मानव जनित रोग जैसे- एड्स, हेपेटाइटिस, हैजा, तपेदिक कोढ़ और खाद्य पदार्थों से शारीरिक रोग-अवरोधक क्षमता का ह्रास हो रहा है।

प्रकृति ने ही मनुष्य को शारीरिक रूप से मज़बूत बनाया था लेकिन मनुष्य ने जीवन के स्रोत को ही बर्बाद करने की ठान ली। मनुष्य तो उस विकास चक्र के आखरी पायदान में सबसे छोटा है लेकिन दम्भ इतना कि अपने आपको सबसे श्रेष्ठ बनाने की कोशिश करता रहता है और आखिर में भूमि की मिट्टी में मिल जाता है।

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

मनुष्य का दम्भ मुझे आज तक समझ में नहीं आया। किस बात का इतना दम्भ? किस बात का इतना रोष? किस बात की इतनी अकड़? एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को मारता है, एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को अपना दास बनाता है, एक मनुष्य दूसरे मनुष्य पर अत्याचार करता है और यहां तक कि एक मनुष्य दूसरे मनुष्य पर अपना अधिकार जमाने की कोशिश करता है। मनुष्य के जीवन में इतनी महत्वाकांक्षाएं क्यों हैं?

कब तक? एक दिन मृत्यु आती है और सब कुछ मिट्टी में मिल जाता है। सारे घमंड, अहंकार, दम्भ, बाहुबलता, क्रूरता और स्वार्थ का अंत मृत्यु ही तो है।

प्रकृति की गहराई और उसकी विशालता को तुम कभी नहीं समझ पाओगे। प्रकृति तुम्हारे लिए सिर्फ एक पहेली है लेकिन प्रकृति की सहनशीलता चरम सीमा पर है। उसका कारण तुम मनुष्य ही हो। भू-गर्भ से लेकर समुद्र तक तुमने दूषित कर दिया है। वन प्रदेशों को तुमने अपने ही लाभ के लिए उजाड़ दिया। चंद सोना-चांदी के लालच में तुमने पहाड़ों और पठारों को तबाह कर उसे समतल बना दिया।

नदी और तालाब जैसे जल स्रोत जो तुम्हारे लिए जीवनदायी थे, उन्हें तुमने अपने कृत्यों से दूषित और मैला कर दिया है। अगर प्रकृति से जुड़े होते तो मालूम होता कि तुमने क्या खोया है। तुमने अपनी माता (प्रकृति) के आंचल छोड़कर ज्ञान, बुद्धि और अपनी महत्वाकांक्षाओं को स्थान दिया है और यही तुम्हारे विनाश का कारण है।

वापस आओ प्रकृति के आंचल में

वही सुरक्षा है, वही जीवन है,

वही तुम्हारा अस्तिव है।

एक प्रयास करो। प्रकृति को दूषित मत करो, जल स्रोतों को साफ करो और जंगलों को मत काटो। हे प्रकृति के रक्षकों, आदिवासियों को  प्रकृति के निकट रहने दो। उन्हें विस्थापित मत करो। पहाड़ों को ना काटो। ऐसा करने पर प्रकृति तुम्हें माफ नहीं करेगी।

सुनामी, बाढ़, महामारी, आकाशीय तड़ित की बौछार तुम्हारे दम्भ को तोड़ डालेगी। भूमि की कंपन तुम्हारे ह्रदय की गति को बढ़ा देगी और तुम्हारे विशालकाय गगनचुंबी इमारतों को पल भर में मलवे में बदल देगी।

तुम्हारी आकांक्षाओं को पल भर में मिट्टी में मिला देगी। तुम्हारे बनाए कागज़ के टुकड़े (रुपये) तुम्हें बचा नहीं पाएंगे। तुम्हारा दम्भ पल में टूट जाएगा। चारों तरफ रुदन नाद सुनाई पड़ेगी।

क्या फिर तुम जीने की इच्छा रखोगे? फूलों की सुगंध के बदले मानव मांस की सड़ाहट की गंध तुम्हें जीने नहीं देगी। प्रकृति से प्यार करो, वापस आओ प्रकृति के आंचल में।

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