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झारखंड के किसानों के पास अब नहीं बच रहा है परंपरागत बीज

किसान

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झारखंड का प्रमुख फसल धान है। यहां की मिट्टी अम्लीय है मगर भू-क्षरण एक विकराल समस्या बनी हुई है। सिंचाई की कमी के कारण यहां के किसान खरीफ फसल अधिक लेते हैं। रबी में फसल कम होता है।

झारखंड में किसानों के समक्ष परंपरागत बीज का अभाव हो रहा है। यहां के किसान परंपरागत रूप से खेती करते आ रहे हैं। आधुनिक विकास के दौर में परंपरागत खेती और परंपरागत बीज लुप्त हो रहे हैं। प्राचीन कृषि तकनीक का अपना अलग महत्व रहा है।

ग्रामीण क्षेत्रों में परंपरागत बीज को बचाने के लिए बीज मेला लगाया जाता है, जिसमें किसान आपस में बीज का आदान-प्रदान करते हैं।

ग्रामीण स्तर पर ‘बीज बचाओ अभियान’ के तहत किसान पदयात्रा कर रहे हैं, जिसमें महिला किसान बीज बचाने में अधिक सक्रिय हैं। आदिवासी गाँव के किसान अपने खेत में आज भी परंपरागत बीज का ही प्रयोग कर रहे हैं।

बीज बचाओ अभियान के तहत सक्रिय हैं किसान

दुमका ज़िले के गोपीकांदर प्रखंड के पिंडरगड़िया गाँव के किसान महादेव राय, टेंजोर की आशा मरांडी, चीरापाथर की मनकी मुर्मू, नामुडीह के दुर्गा देहरी, काठीकुंड के झीकरा गाँव के कंचन राय सहित सैकडों गाँव के किसान बीज बचाओ अभियान में सक्रिय हैं।

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार: Getty Images

किसानों का मानना है कि प्रकृति ने उन्हें उन्नत किस्म के बीज दिए हैं, जो माॅनसून के फेल होने पर भी कारगर होते हैं। यह लुप्त ना हो इसके लिए वे प्रयासरत हैं। झारखंड में परंपरागत धान के बीज भदई, साठी, सनिया, डंगाल धान, पोठिया, जड़हन, लघुशाला और करौनी सहित 72 किस्म के धान के बीज अब भी बचे हुए हैं।

परंपरागत मक्का के बीज डिबरी मक्का एवं पहाड़ी मक्का, अरहर, घंघरा यानी बरबट्टी, कुर्थी एवं तारामीरा सूर्यमुखी जैसा पौधा जिनसे तेल निकाला जाता है, वे अब भी बचे हुए हैं। कुर्थी की परंपरागत खेती पहले झारखंड में अधिक होती थी। वह अब कम हो रहा है। कुर्थी एक आयुर्वेदिक दाल है, जिसे पथरी जैसे रोग में भी लोग प्रयोग करते हैं।

हाइब्रीड बीज के उपयोग में बढ़ोतरी

सरसों जिसे झारखंड में लोटनी कहा जाता है, पहले बहुतायत मात्रा में इसका पैदावार होता था मगर अब उसकी उपज कम हो रही है।

झारखंड में मडुआ, कोदो और कुंदली का उत्पादन कम हो रहा है। बुज़ुर्ग किसान शिवराम साहा बताते हैं,

परंपरागत बीज से उत्पादन कम होने के कारण वे हाइब्रीड बीज का प्रयोग करने लगे हैं। हाइब्रीड बीज के फसल का लाभ तुरंत नगदी में मिलता है। इसलिए वे इसका ज़्यादातर प्रयोग करते हैं।

सरकार से किसानों को नहीं मिल रहा है प्रोत्साहन

फोटो साभार- Getty Images

इन सबके बीच परंपरागत बीज को बचाने की मुहिम चलाई जा रही है। रांची स्थित जीन कैंपेन नामक संस्था की सुमन सहाय परंपरागत बीजों को बचाने के लिए प्रयासरत हैं। किसानों के बीच परंपरागत बीज के महत्व को समझाने के लिए जागरूकता अभियान चला रही हैं।

संताल परगना में अग्रेरियन अस्सिटेंस एसोसिएशन नामक संस्था आदिवासी गाँवों में परंपरागत बीज को बचाने की दिशा में कार्य कर रही है।

किसानों के विकास की दिशा में प्रयास किया जाना चाहिए। परंपरागत बीज किसानों के पास हैं लेकिन सरकार उन्हें प्रोत्साहित नहीं कर रही है। किसान को धान से भूसे और पुआल मिल जाते हैं, जिससे वे अपने छत बना लेते हें और मवेशियों को भोजन भी मिल जाता है।

वर्षा जल संरक्षण पर भी ज़ोर नहीं

परंपरागत बीज को बचाने की दिशा में हज़ारीबाग स्थित अपलैंड राइस रिसर्च सेंटर कार्यरत है, जिसने धान की कई किस्मों को विकसित किया है। झारखंड बने 15 वर्ष बीत गए मगर अब तक कृषि नीति नहीं बनी है। राज्य सरकार अब तक इस मामले में गंभीर नहीं है।

किसानों को सिंचाई के लिए कोई सुविधा नहीं दी जा रही है। झारखंड की दामोदर, स्वर्णरेखा, खरकई, कोयल, शंख, कारो, कोयना, अजय और मयुराक्षी जैसी नदियां प्रदुषित हो चुकी हैं। प्राकृतिक झरनों को विकसित नहीं किया जा सका है।

वर्षा जल के संरक्षण के लिए कोई ठोस प्रबंध नहीं होने से वर्षा जल बर्बाद हो रहा है। राज्य में कृषि, पशुपालन और सहकारिता को एक साथ मिलाकर एक विभाग बनाया गया है।

मुख्यमंत्री रघुवर दास ने विधानसभा में घोषणा की है कि राज्य के विकास के लिए कृषि, उद्योग और आईटी बढ़ावा दिया जाएगा। राज्य में फुड प्रॉसेसिंग नीति भी बनने जा रही है।

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