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“क्या होता अगर अयोध्या विवाद का फैसला मुस्लिम पक्ष में होता?”

लगभग दो पीढ़ियों से मंदिर-मस्जिद विवाद में पूरा देश बंटा हुआ था, जिसे सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने खत्म कर दिया। अयोध्या मंदिर विवाद के दोनों पक्षधर दशकों से एक ज़मीन के बंटवारे को लेकर अपने-अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते रहे और आखिरकार हिन्दुओं को उनका अस्तित्व मिला लेकिन अब सवाल यह है कि क्या होता अगर इस लड़ाई को मुस्लिम पक्ष जीत लेता?

इस सवाल का जवाब सत्तारूढ़ बीजेपी पार्टी और उसकी नीतियों से जोड़कर देखा जा सकता है। दरअसल, बीजेपी ने ही राम मंदिर का महत्व हिन्दू समुदाय के लोगों को समझाया या यूं कहें कि बीजेपी ही थी जिसने हिन्दुओं को इस बात का आभास कराया कि अयोध्या की राम जन्म भूमि ही उनका असली अस्तित्व है।

राम मंदिर को मुद्दा बनाने की शुरुआत

इस अभियान की शुरुआत 1980 में हुई जब बीजेपी का जन्म हुआ था। उस वक्त बीजेपी में ज़्यादातर आरएसएस और वीएचपी के लोग शामिल हुए। तब हालात ऐसे बने कि पार्टी को खुद के लिए जगह बनानी थी जिसके लिए राम मंदिर का मुद्दा गढ़ा गया लेकिन उस समय काँग्रेस अपने पूर्ण अस्तित्व में थी इसलिए बीजेपी इस मुद्दे को भुना नहीं पाई थी।

बीजेपी ने यहां हार नहीं मानी और एक बार फिर

यही वह समय था जिसने पूरे देश को हिन्दू-मुस्लिम नाम के दो खेमों में बांट दिया था। जिसका सीधा फायदा बीजेपी को मिला और कभी ज़मीन तलाशती बीजेपी पार्टी, देश की सबसे बड़ी पार्टी बनने की कगार पर पहुंच गई।

हिन्दू राष्ट्रवाद की उपयोगिता समझाने का श्रेय बीजेपी को

हालांकि 2014 यानि की सत्ता में आने से पहले तक इस मुद्दे ने कभी फ्रंट-फुट पर आकर बीजेपी का अस्तित्व बचाया, तो कभी बैक-फुट पर रहते हुए आगे की रणनीति बनाने में मदद की लेकिन पूर्ण रूप से देखा जाए तो देश में हिन्दुओं को राम मंदिर और हिन्दू राष्ट्रवाद की उपयोगिता समझाने का श्रेय बीजेपी को ही जाता है।

अब उस सवाल का असल जवाब।

इसलिए वे कुछ भी कर गुज़रने के लिए आज़ाद हैं और किसी भी कानून से परे हैं।

यहां एनआरसी को भी नहीं भूलना चाहिए क्योंकि यह एक ऐसा मुद्दा है जो वर्तमान समय में मुस्लिम समाज के लिए लटकती तलवार से कम नहीं है। एक तरफ जहां मुस्लिम समाज अपने अस्तित्व की लड़ाई के लिए कागज़ातों में उलझा हुआ है, वहीं अयोध्या फैसला शांत भाव के साथ मुस्लिम समुदाय द्वारा स्वीकार कर लेना समझ आता है।

ऐसा माना जा रहा है कि कोर्ट ने हिन्दुओं की धार्मिकता को ध्यान में रखते हुए फैसला सुनाया जबकि विशेषज्ञों का कहना है कि तथ्यों पर ध्यान नहीं दिया गया है। कुछ का यह भी कहना है कि अगर ऐसा ना होता तो दंगे होना तय थे।

 मुस्लिम समुदाय की मजबूरी

एक बार को मान लीजिये कि अयोध्या फैसला मुस्लिम पक्ष में होता फिर? क्या वाकई हिन्दू इस फैसले को स्वीकार करता? क्या बीजेपी करती? नहीं बल्कि स्थिति गंभीर होती।

दरअसल, देश में पिछले कुछ सालों से अल्पसंख्यक/मुस्लिम समुदाय के लिए ऐसा माहौल बनाया गया है कि किसी निर्णय पर असहमति जताना तो दूर बल्कि किसी बात पर अपना पक्ष रखना भी इस समुदाय के लिए जानलेवा साबित होता रहा है। जिसके लिए बकायदा बीजेपी की सोशल मीडिया टीम ने जमकर मेहनत की है।

एक तरफ ट्विटर है तो दूसरी तरफ व्हाट्सएप, जहां फर्ज़ी खबरों और अफवाहों के चलते भीड़ सड़कों पर बुला ली जाती है और किसी भी मुस्लिम को ज़रा सी बात पर मौत के घाट उतार दिया जाता है। यह मनगढ़ंत बातें नहीं हैं  बल्कि इनके आंकड़ें मौजूद हैं। ऐसे कई मामले हैं जो मुस्लिम समुदाय की मजबूरी को दर्शाते हैं।

हिंदुओं के मंदिर कई मुसलमानों के जीवन यापन का ज़रिया हैं

वैसे इसका एक पक्ष यह भी है कि खुद मुस्लिम समुदाय इस फैसले के खिलाफ जाकर अपने लिए सर दर्दी नहीं बढ़ाना चाहता है क्योंकि पहले से ही अयोध्या मामला मुस्लिम समाज के जीवन में मुसीबत की तरह रच-बस रहा है। हर बार हिन्दू-मुस्लिम मुद्दे पर यह मामला तूल पकड़ता रहा है और अब मुस्लिम समाज खुद इन सबसे उकता गया है या ये भी कह सकते हैं कि यह फैसला खुद उनके गले की हड्डी बना हुआ था।

यहां इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि

ऐसे में अगर फैसले के पलट जाने से गाज गिरती तो सीधे मुसलमानों के पेट पर गिरती।

वैसे मैं खुद इस बात के लिए मुस्लिम समुदाय की तारीफ करती हूं कि इस ऐतिहासिक फैसले के बाद सभी ने शांति के साथ इसका समर्थन किया। हां वो बात अलग है कि कोर्ट द्वारा दी जाने वाली 5 एकड़ जमीन इस वक्त उन्हें खैरात लग रही है, जिसके खिलाफ मुस्लिम नेता बोल रहे हैं।

अब सोचिये कि जो मुस्लिम अपने पक्ष की बात तक नहीं रख सकता, वह अयोध्या फैसले पर इंकार कैसे करेगा? और अगर करेगा भी, तो फिर क्या वह मॉब लिंचिंग से बच पायेगा? क्या वह एनआरसी से बच पाएगा? क्या वह दंगों से बच पाएगा?

यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या वह इस देश की सबसे बड़ी पार्टी के कार्यकर्ताओं के प्रकोप से बच पाएगा?

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