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“पशुओं को हम आहार के तौर पर ही क्यों देखते हैं?”

गाँव में पशु

गाँव में पशु

घर में जब हम रात्रि भोजन के लिए बैठते थे, तो माँ यह वाक्य रोज़ दोहराती थीं, “यह पहली रोटी गाय को दे दो और बछड़े के लिए भी एक ले लो।” हम लेकर जाते और उन्हें अपने हाथों से रोटी खिलाते। कई बार वह अपनी गर्दन हमारे शरीर में रगड़ने लगती अर्थात उनके तरफ से उसे सहलाने की मांग होती और उनकी मांग पूरी किए बगैर हमारी छुट्टी नहीं होती थी। 

खैर, अगर सब ठीक रहा तो हम भी शांति एवं प्रसन्नतापूर्वक भोजन ग्रहण करते मगर किसी कारणवश गाय ने रोटी ग्रहण करने से मना कर दिया तो घर में भोजन किसी के गले से उतरता नहीं था।

मैंने यहां गाय का उदाहरण लिया है। वास्तव में इस प्रकार की घटना किसी भी जंतु के साथ आप महसूस कर सकते हैं। बस शर्त यह है कि आपके परिवार में उसे सदस्य का दर्ज़ा प्राप्त हो।

हमारे परिवार की परंपरा

वर्तमान नगरीय जीवन में जहां वस्तुओं के प्राण को ही अंत समझा जाता है, हमारे परिवार की यह परंपरा आपको बेतुकी लग सकती है मगर वास्तव में यह अधिक मूल्यवान, संवेदनशील एवं गंभीर है। 

हमारे परिवार में किसी भी सदस्य को यह स्वीकार करने में बिल्कुल मुश्किल नहीं हुई कि गाय एवं उसके बछड़े हमारे परिवार के सदस्य हैं, क्योंकि हमें इस बात का ज्ञान था कि मनुष्य भी तो एक सामाजिक जंतु ही है।

यह प्रसंग हर जीव पर लागू होता है

मुझे याद है एक बार जब मेरे अभिभावक किसी प्रयोजन से बाहर गए थे और गाय को प्रसव पीड़ा शुरू हो गई थी, उस वक्त उसकी आंखों से आती भावनाओं को अगर कोई इंसान एक बार महसूस कर ले, तो शायद ही उस जीव के प्रति कभी भी उसके हृदय में कठोरता उतपन्न होगी।

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

यह प्रसंग सिर्फ गाय के लिए ही नहीं अपितु सभी जानवरों के लिए लागू होता है। आज अनेक समस्याओं का कारण मनुष्य को माना जाता है एवं उसके ऐसे व्यवहार के पीछे उसके आहार एवं विहार सर्वाधिक प्रभावशाली तत्व माने जाते हैं। क्या हम अपने आहार-विहार में प्राकृतिक सामंजस्य रख पा रहे हैं? सकारात्मक उत्तर की गुंज़ाइश बहुत कम नज़र आती है।

विचार को समझने की ज़रूरत है

आज कल किसी जानवर विशेष को लेकर जो विशेष प्रेम प्रायोजित हो रहा है, उसका कोई खास फायदा नहीं होगा क्योंकि इस मुहिम की शुरुआत तो एक विचार के साथ हुई थी मगर इससे जुड़ने वाले ज़्यादातर उस विचार को समझने में भारी गलती कर चुके हैं।

संविधान निर्माण के समय बाबा अंबेडकर पर भी गाय के प्रति श्रद्धापक्ष को रेखांकित कर इसे विशेष दर्ज़ा देने हेतू दबाव बनाया गया था और तब उन्होंने एक दूर दृष्टि होते हुए कहा था,

अगर आप गाय को एक पशु नहीं, बल्कि अपनी माता मानोगे और उसी तरह व्यवहार करोगे, तो यह गाय के साथ एवं सम्पूर्ण आहार तंत्र के साथ अन्याय होगा। गाय एक पशु है और उसे वह अधिकार मिलना ही चाहिए।

कुछ जानवरों को संरक्षण प्रदान करेगी सरकार

इसी अनुसार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 48 में स्पष्ट किया गया है कि कृषि प्रक्रिया में महत्वपूर्ण एवं दूध देने वाले जंतुओं को सरकार खास संरक्षण प्रदान करेगी।

उनकी यह सोच इस नज़रिये के साथ देखी जानी चाहिए कि वास्तव में किसी पर भी अन्याय करने का अधिकार किसी को नहीं है। अर्थात किसी मनुष्य को यह अधिकार नहीं है कि किसी जानवर की हत्या करे परंतु अपनी आदतों के आधार पर मानव समाज ने कुछ परिपाटियों को सर्वकालिक एवं सर्वव्याप्त बनाया है।

कुरैशी समुदाय का पारंपरिक व्यापार

आज़ाद भारत में महाराष्ट्र एवं बिहार जैसे कुछ राज्यों में संविधान के इस अनुच्छेद को लागू करने की कोशिश हुई है। भारत में कुरैशी नामक समुदाय का पारंपरिक पेशा दुधारू पशुओं के मांस का व्यापार रहा है। 

अतः 1955 के करीब जब बिहार सरकार ने गौ-हत्या पर जब प्रतिबंध लगाया, तब इस समुदाय द्वारा सरकार के उस फैसले को अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत जीवन के अधिकार के उल्लंघन के आधार पर चुनौती दी गई। 

उन्होंने यह भी दलील दी कि जब गाय दूध देना बंद कर देती है, तब उसका आर्थिक महत्व समाप्त हो जाता है और तब वह प्रजनन के काबिल भी नहीं रह जाती। ऐसे में उसे मारकर आहार में तब्दील करना उसका बेहतर उपयोग है। 

सर्वोच्च न्यायालय का जजमेंट

तब सर्वोच्च न्यायालय ने उस केस में अपने जजमेंट में कहा, “चुंकी यह समुदाय कोई और काम करना जानता नहीं है। अतः जीवन के अधिकार को सुनिश्चत करते हुए गाय के आर्थिक महत्व के बावजूद उन्हें अपने पेशे को जारी रखने की अनुमति दी जाती है परंतु उन्हें यह सुझाव भी दिया जाता है कि वे अपने पारंपरिक पेशे को जल्द से जल्द तात्कालिक रूप से प्रासंगिक पेशों से प्रतिस्थापित करें, क्योंकि दुधारू जंतु और उनमें गाय अपने जीवन पर्यंत आर्थिक उपयोगिता रखती है।”

दलील एक पारंपरिक पेशा

गाय के मूत्र एवं गोबर से उत्कृष्ट खाद बनते हैं और यह प्रक्रिया जीवन भर चलती है। आखिर जंतुओं को भी प्राकृतिक मृत्यु का अधिकार है। 1976 में महाराष्ट्र सरकार के ‘गौ-हत्या प्रतिबंध’ के निर्णय को भी कुरैशी समुदाय के एक सदस्य द्वारा चुनौती दी गई मगर वह पुनः पारंपरिक पेशा ही था।

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

तब सर्वोच्च न्यायालय ने अपने सुझाव को याद किया और 21 वर्षों के अंतर के बाद भी सामान आधार को नकार दिया और सर्वोच्च न्यायालय ने गौ-हत्या प्रतिबंध को समाज के कल्याण में सरकार की अनिवार्य ज़िम्मेदारी बताई और तब से विभिन्न राज्यों में इस निर्णय का अनुसरण हो रहा है। 

सर्वोच्च न्यायालय ने गाय के अलावा अन्य दुधारू पशुओं को एक मान्यता प्रक्रिया के बाद बूचड़खाने में ले जाने की अनुमति दी है।

पशुओं के ना होने से परेशानी

आज पशुओं के हमारी ज़िंदगी में नहीं होने की वजह से हरियाणा एवं पंजाब के खेतों में पराली जलने की नौबत आ रही है, जिसे आसानी से पशु आहार में तब्दील किया जा सकता था।

आज एक तरफ पशुओं का हमारी ज़िंदगी में नहीं होना वायु प्रदूषण जैसी गंभीर समस्या उत्पन्न कर रहा है, तो दूसरी तरफ हम दूध में मिलावट की समस्या से उबर नहीं पा रहे हैं।

दूध इतना महंगा हो गया है कि गरीबी से लड़ रहे परिवारों के बच्चों को यह विरले ही मिल पता है। ज्ञात हो कि दूध बच्चों के लिए एकमात्र सम्पन्न आहार है।

मुद्दे का गलत परिपेक्ष्य

आज जब इस मुद्दे पर समाज के ताने-बाने में समस्या आ रही है, तो इसकी वजह समुदाय विशेष नहीं बल्कि मुद्दे का राजनीतिक ध्रुविकरण हेतू गलत परिपेक्ष्य में रखा जाना है। भावनात्मकता अपनी जगह है मगर समाज का आर्थिक संतुलन समाज से संतुलित एवं निर्णायक नज़रिया अपेक्षित करता है।

यह बात बिल्कुल स्वीकार्य है कि इस भौतिक दुनिया में किसी समुदाय को किसी पशु के प्रति संवेदनशीलता है मगर उस संवेदनशीलता से उन्माद पैदा हो, यह स्वीकार्य नहीं है। इस मुद्दे पर व्यापक तकनीकी जागरूकता की ज़रूरत महसूस होती है। 

सरकार की यह ज़िम्मेदारी है कि मान्यता प्रदत करने वाली एज़ेंसी की ज़िम्मेदारी एवं कार्य-प्रक्रिया को पारदर्शिता उन्मूख होकर तय करे।

कुछ प्रासंगिक बातों पर ध्यान

यह अत्यंत प्रासंगिक है कि हम अपने परिवार की कल्पना को विस्तार दें। पेड़-पौधों में जीवन की सच्चाई को महसूस करें, जीवों के निःशब्द भावनाओं को सुने एवं तार्किक चिंतन से अपने दृष्टि को सशक्त बनाएं।

हमें यह समझना होगा कि दूध बाज़ार से नहीं आता, प्रेम बाज़ार में नहीं मिलता और किसी जीव हेतू दया एवं प्रेम उत्पन्न करने की कोई फीस नहीं है। यह बेहद शर्मनाक है कि वर्तमान समय में पशुओं को लोग महज़ आहार के तौर पर ही देखते हैं।

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