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“क्यों मैं अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का समर्थन नहीं करता हूं”

राम मंदिर

राम मंदिर

9 नवंबर 2019 को बाबरी मस्जिद तथा राम जन्मभूमि विवाद पर उच्चतम न्यायालय का फैसला आ चुका है, जिससे सारी दुनिया वाकिफ है। मस्जिद के गुंबद वाली जगह को हिंदू पक्ष के हक में दे दिया गया है। इसके साथ ही उच्चतम न्यायालय ने सरकार को आदेश दिया है कि मुस्लिम पक्ष के लिए 5 एकड़ ज़मीन अयोध्या में मस्जिद के लिए दी जाए।

कई न्यूज़ चैनलों के मुताबिक सभी ने इस फैसले का स्वागत किया है। वैसे लोगों ने भी इसका स्वागत किया है, जो यह कहते थे कि कोर्ट का फैसला जो भी हो मंदिर तो वहीं बनेगा।

मुझे फैसले से असंतोष है

सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट। फोटो साभार- Getty Images

कुछ लोगों में असंतोष भी है, जो इस फैसले का समर्थन नहीं कर रहे हैं। इस लेख के ज़रिये बताना चाहूंगा कि उनमें मैं भी शामिल हूं। संतोष इस बात का है कि जिसके भी हक में यह फैसला आया है, कम-से-कम दशकों से चले आ रहे इस विवाद का एक अंत हुआ परंतु ज़हन में बहुत सारे प्रश्न चल रहे हैं।

सोच रहा हूं कि जब बाबरी मस्जिद को तोड़ा गया था, उस वक्त लोकतंत्र था ना कि राजतंत्र। लगभग 500 वर्षों से मस्जिद उस पर कायम था। इतने वर्षों से उस ज़मीन पर जिसका कब्ज़ा था और जिस पर मस्जिद थी, उसका हक उस समुदाय के लोगों को क्यों नहीं है?

लोकतंत्र में जिन्होंने मस्जिद को तोड़ा और लोगों को उकसाया, क्या वे सज़ा के हकदार नहीं हैं? क्यों आज तक उन पर निचली अदालतों में ही मामले चलाए जा रहे हैं? 

शहरों के नाम क्यों बदले जा रहे हैं?

आइए अब मंदिर-मस्जिद विवाद से अलग हटकर चर्चा करते हैं। अगर भारत में सिर्फ बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद ही था तो मुझे कोई बताए कि शहरों के नाम क्यों बदले जा रहे हैं?

समय-समय पर औरंगज़ेब और टीपू सुल्तान के नाम क्यों उछाले जाते हैं? संसद भवन में जय श्रीराम के नारे क्यों लगाए जाते हैं?

भारत में धर्मनिरपेक्षता नदारद

अभी कुछ दिनों पहले की बात है, जब यूपी के एक मुस्लिम प्रधानाध्यापक को सिर्फ इसलिए निलंबित कर दिया गया क्योंकि वह अपने स्कूल के प्रार्थना में इकबाल की कविता, “लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी” पढ़ाते थे। उन्हें यह कहकर निलंबित किया गया कि यह कानून के विपरीत है।

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है। यहां सरकारी संस्थानों में धर्मनिरपेक्षता का पालन किया जाता है, तो कोई बताएगा कि सरकारी स्कूलों में सरस्वती पूजा क्यों की जाती है? जबकि वहां अल्पसंख्यक समुदाय भी होता है।

क्या यह धर्मनिरपेक्षता की पहचान है? भारत के अधिकतर संस्थानों में आपको माता सरस्वती, शंकर एवं और भी भगवान की तस्वीरें मिल जाएंगी लेकिन इस्लाम से संबंधित कोई भी तस्वीर देखने को नहीं मिलेगी। भारत में हर तरह के कार्यक्रमों में दीप प्रज्वलित किए जाते हैं, जो हिंदू रीति-रिवाज के प्रतीक हैं। क्या यह भारत की धर्मनिरपेक्षता को सुनिश्चित करता है?

क्या सब कुछ सामान्य होने की उम्मीद है?

अभी कुछ दिनों पहले की बात है, जब एनआरसी पर बात करते हुए अमित शाह खुलेआम कहते फिर रहे थे कि इससे हिंदुओं, सिखों और ईसाइयों को डरने की ज़रूरत नहीं है। 

उन्होंने सारे धर्मों का नाम लिया सिर्फ इस्लाम को छोड़कर। यह कैसे मान लिया जाए कि बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद पर कोर्ट के फैसले के बाद सब कुछ सामान्य हो जाएगा?

क्या दुनिया वालों ने भारत में अल्पसंख्यकों के खिलाफ भीड़ द्वारा हत्या नहीं देखी? क्या दुनिया वालों ने यह नहीं देखा कि उत्तर प्रदेश सरकार किस तरीके से 5.51 लाख दीप दीपावली पर जलाती है और नागा साधुओं के ऊपर हेलीकॉप्टर से फूल बरसाए जाते हैं?

क्या कभी खुद को लोकतांत्रिक कहने वाली भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेताओं ने मुस्लिमों के लिए इस तरह का आयोजन किया है?

चुनाव आयोग को सख्त होने की ज़रूरत

दरअसल होना यह चाहिए कि देश की शीर्ष अदालत हो या चुनाव आयोग, इस तरह की धार्मिक राजनीति करने वाली पार्टियों को ही खत्म कर देना चाहिए।

यह लोकतंत्र की खामी ही है कि बहुसंख्यक का झंडा बुलंद है। यह सिर्फ भारत का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह पूरी दुनिया में हो रहा है। बहुसंख्यकवाद की राजनीति पूरी दुनिया में शीर्ष पर है।

इस पूरी दुनिया में सत्ता पाने के लिए सबसे आसान और सरल उपाय है- धार्मिकता, क्षेत्रवाद एवं नस्लवाद को बढ़ावा देना। कोई दल बहुसंख्यक समुदाय को अपना वोट बैंक बनाती है, तो कोई अल्पसंख्यक समुदाय को। 

सत्ता और सत्ता में हिस्सेदारी का खेल

सभी को अपने वोट बैंक की चिंता है। सबको सत्ता चाहिए और जिसे यह नहीं मिल पाती, उसे कैसे भी सत्ता में हिस्सेदारी चाहिए। अब सवाल यह है कि पूर्ण रूप से लोकतंत्र और न्याय कैसे हासिल हो? मुझे तो यह नामुमकिन सा लगता है। आज तक पूरी दुनिया में यही हुआ है और शायद आगे भी होता रहेगा।

भारत के संविधान निर्माता बहुत दूरदर्शी साबित हुए हैं। शायद इसलिए ही उन्होंने अल्पसंख्यकों के लिए कुछ अधिकार सुरक्षित कर दिए थे। अब बड़ा सवाल यह है कि जब बहुसंख्यक ही शक्तिशाली रहेगा तब उसके ही विजयी होने की संभावना ज़्यादा है फिर समान नागरिक संहिता कैसे लागू हो सकती है?

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