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“क्या कभी सोचे हो तुम्हारी नज़रें कितनी घिनौनी हैं?”

कभी मैंं हस्ती, कभी मैं रोती,
लेकिन हर पल यह सोचकर कांपती,
कि अगली निर्भया मैं तो नहीं,
कि अगली दिशा तुम तो नहीं।

हज़ारों कपड़े हैं अलमारी में,
लेकिन कुछ नहीं है पहनने को।
कि कहीं मेरा कोई अंग तो नहीं दिख रहा?
कहीं तुमको मुझपर लालच तो नहीं आ रहा?

क्यों यह समाज हमें कहता उड़ने को?
क्यों यह समाज चाहता हमें दौड़ने को?
जब हमेशा डर सताए कि कोई पीछे से पकड़ ना ले,
कहीं कोई ज़मीन पर खींचकर गिरा ना दे।

क्यों हर पल मां बाप डर में रहें?
क्यों शाम होते ही भाई घर में रहने को कहे?

क्या गलती है उस 24 साल की लड़की की?
क्या गलती है उस 3 साल की बच्ची की?

कहते हो हमारे कपड़े छोटे हैं,
क्या कभी सोचे हो तुम्हारी नज़रें कितनी घिनौनी हैं?

ना समाज का लिहाज़ करते,
ना अपने परिवार का।
जहां तुमने लड़की देखी,
तुम्हारे अंदर का हैवान जागा।

कैसे जवाब दोगे अपनी मॉं को?
क्या मुंह दिखाओगे अपनी बहन को?
अरे! तुम्हारी तो अपनी भी एक बेटी है ना?
कैसे बचाओगे खुद से उसको?

कि तुम जैसे की वजह से हर पुरुष हैं पिसते,
हर लड़की है सिसकती,
सुधारो खुद को सुधरेगा समाज।
वरना हम आदि मानव ही थे अच्छे।

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