तख्ती लेकर
एक अकेली लड़की
बैठ गयी थी संसद के आगे
कि संसद के भीतर जो हैं
उनमें शर्म हया कुछ तो जागे!
मगर, सत्ता को कहां कबूल
कि उसकी चौखट पर
पिद्दी सी कोई लड़की आकर
बात का बतंगड़ बनाये
तख्ती लहराकर आंखें दिखलाये!
लड़की को उठा लिया गया
उठाता है हथेलियों पर खेलने की खातिर दैत्य
जैसे किसी मानुष को!
और, हुआ क्या है
अनवरत होते बलात्कारों की भीड़ में
एक बलात्कार ही तो और जुड़ा है
कोई पहाड़ तो नहीं टूट पड़ा है
(बलात्कार पश्चात हत्या एक मामला है)
पर, जो हैं अभिषिक्त ‘भोग्या’ पद से
उनके माथे ही तो यह विधान मढ़ा है!
यह सत्ता कर भी क्या सकती है
भोग्या सम्मत वैचारिकता में
जिसकी अगाध भक्ति है!
तभी तो सत्ता का वह योगी
पाता है बल यह बोल कर
” जरूरत पड़ी तो कब्र खोद कर … “
ऐसे में
तख्ती लेकर एक अकेली लड़की
कितना क्या कर लेगी सत्ता का
बजे है नगाड़ा संसद में जब तक
भोग्या सम्मत वैचारिकता का!