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दिल्ली की आज़ादपुर मंडी में मज़दूरों की ज़िंदगी खतरे में है

दिल्ली के आज़ादपुर मंडी में 40 साल के एक मज़दूर की डेंगू से मौत हो गई। अशोक नाम का यह मज़दूर मंडी में पल्लेदारी का काम करता था। यह उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ का रहने वाला था और पिछले 20 सालों से मंडी में काम कर रहा था।

पल्लेदार वे लोग होते हैं, जो मंडी में फल और सब्ज़ियां लेकर आने वाली गाड़ियों को लोड या अनलोड करते हैं। अशोक को कई दिनों से बुखार था, उसके बावजूद वह मज़दूरी करता रहा। एक दिन काम के दौरान वह गिर गया। अगले दिन अस्पताल में उसकी मौत हो गई। उसकी दो बेटियां और एक बेटा है।

डेंगू कोई लाइलाज बीमारी नहीं है, फिर अशोक की मौत क्यों हुई?

डेंगू होने पर हम फल खाते हैं लेकिन एशिया की सबसे बड़ी फल मंडी में काम करने वाला अशोक डेंगू से मर गया। आज़ादपुर मंडी फल और सब्ज़ियों के मामले में एशिया की सबसे बड़ी मंडी है, जिसको भारत सरकार की ओर से राष्ट्रीय महत्व की मंडी (MNI) का दर्जा मिला हुआ है।

इस मंडी में लगभग 40 हज़ार से अधिक की संख्या में पल्लेदार काम करते हैं। दिल्ली में अलग-अलग खाद्य पदार्थों की 7 मंडियां हैं। इन मंडियों के प्रशासन की ज़िम्मेदारी, वहां के ऐग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट कमिटी (APMC) की होती है।

अशोक की तरह कई मज़दूर (पल्लेदार) बीमारी या सड़क दुर्घटना से मंडी के अंदर मर जाते हैं। भारी सामान लिए कीचड़ में गिरने से शरीर में चोट आने, फ्रैक्चर आने जैसी घटनाएं भी आम है। किसी भी दुर्घटना की स्थिति में सरकार, APMC या दुकान का मालिक जिसके यहां ये लोग काम करते हैं द्वारा इन्हें कोई मुआवज़ा या सहायता नहीं मिलती है।

मंडी में गंदगी का आलम बन रहा है बीमारी की वजह

APMC आज़ादपुर की वेबसाइट के अनुसार,

हर साल मंडी से होने वाली कमाई को खर्च करने के बाद 2-4 करोड़ रुपये बच जाते हैं। सरप्लस आमदनी होने के बावजूद मंडी में कीचड़ और कचड़े का अंबार है। मंडी में पानी के कुल 26 प्याऊ लगे हैं, जिनमें से खारा पानी आता है।

मज़दूर छोटी दुकानों और ठेलों पर खुले में मिलने वाला खाना, जिसमें मंडी की गंदगी और धूल जाती है, खाने पर मजबूर हैं।

मज़दूरों से हुई बातचीत में उन्होंने बताया,

भारी वज़न उठाने से उनकी मांसपेशियों में तनाव आ रहा है और गंदे पानी/भोजन की वजह से उनको तरह-तरह की बीमारियां हो रही हैं। विकल्प की कमी और महंगा इलाज होने के कारण वे दुकानों या मोहल्ला क्लिनिक से मिलने वाले कैप्सूल/टेबलेट खाकर ज़िन्दा हैं।

अशोक भी इन्हीं दुकानों से अपना इलाज कराता रहा और एक दिन व्यवस्था के बोझ तले अपना दम तोड़ दिया।

पल्लेदारों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति-

इस देश के हुक्मरान 18 घंटे काम करने का दावा करते हैं, ऐसा न्यूज़ चैनल 24 घंटे बताते हैं लेकिन मंडी में काम करने वाले पल्लेदार रोज़ाना 18 घंटे से अधिक काम करते हैं। अधिकतर पल्लेदारों का दिल्ली में कोई ठिकाना नहीं है। यह आसपास के रैन बसेरों या फिर मंडी में ही सो जाते हैं। जिनके कमरे हैं, वहां स्थिति यह है कि एक छोटे से कमरे में 5 लोग रहने को मजबूर हैं, जो सिर्फ सोने के लिये वहां जाते हैं।

इनके काम का कोई सुनिश्चित घंटा नहीं है। इनको प्रति गाड़ी या प्रति पीस के हिसाब से मज़दूरी मिलती है इसलिए गाड़ियों के इंतज़ार में यह मंडी में बैठे रहते हैं। इनको जितनी मज़दूरी मिलती है, उसका आधा हिस्सा ठेकेदार ले लेते हैं।

मंडी में काम करने वाले लगभग सभी मज़दूर माइग्रेंटेड हैं, जो नौकरी की तलाश में यूपी, बिहार और राजस्थान से दिल्ली आ गए हैं। इनमें से ज़्यादातर लोग दलित और पिछड़े समुदाय से आते हैं, जिनके पास कोई ज़मीन या रोज़ी-रोटी के अन्य संसाधन नहीं हैं। ये पल्लेदार अपने परिवार या बच्चों को दिल्ली में नहीं रख सकते हैं।

कम मज़दूरी और बढ़ती महंगाई के कारण वह अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा नहीं दे पाते हैं, जिसकी वजह से आने वाली पीढ़ियां भी मज़दूर के रूप में तैयार हो रही हैं।

पहचान का संकट-

भारत में 94 प्रतिशत लोग असंगठित क्षेत्रों में काम करते हैं, जिनके सामने पहचान का संकट एक बड़ी समस्या है। पल्लेदार किसी अन्य जगह से पलायित होकर दिल्ली आए हैं। ये यहां के वोटर भी नहीं हैं, इसलिए स्थानीय राजनीति इनकी समस्याओं और इनकी तरफ बिल्कुल ध्यान नहीं देती।

इसी साल अगस्त के महीने में एक पल्लेदार मंडी के अंदर ट्रक से दबकर मर गया। सरकार या APMC की तरफ से उनको कोई सहायता नहीं दी गई, उल्टे पुलिस ने मुआवज़े की मांग कर रहे मज़दूरों से मरने वाले व्यक्ति के पल्लेदार होने का सबूत मांग लिया।

दिल्ली कृषि उपज विपणन विनिमयन अधिनियम- 1998 के अनुसार APMC 7 तरीके का लाइसेंस जारी करती है, जिसमें पल्लेदारों के लिये G श्रेणी के लाइसेंस का प्रावधान है। कभी संसाधनों और मैन पावर की कमी तो कभी तकनीकी खामियों का हवाला देकर पल्लेदारों को लाइसेंस देने के सवाल को टाल दिया जाता है।

महाराष्ट्र में बहुत लड़ाइयों के बाद ‘महाराष्ट्रा मथाड़ी-हमाल एवं अन्य शारीरिक कामगार (रोज़गार नियमन एवं कल्याण) अधिनियम, 1969’ के रूप में एक प्रभावशाली कानून आया। यह कानून असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिकों को रोज़गार सुरक्षा, आय सुरक्षा, व्यापक सामाजिक सुरक्षा एवं बेहतर कार्य दशाएं सुनिश्चित करता है।

अगर कामगार काम के लिए उपलब्ध हैं और उसको काम नहीं मिलता, तो रोज़गार क्षतिपूर्ति के लिए बेरोज़गारी भत्ते का भी प्रावधान है। इस कानून के अंतर्गत एक बोर्ड होता है, जिसमें नियोक्ता मज़दूरों की मज़दूरी जमा करता है।

इसके अलावा मज़दूरी का 30 प्रतिशत अतिरिक्त नियोक्ता को लेवी के रूप में बोर्ड में जमा करना होता है। इससे मज़दूर को उसकी पूरी मज़दूरी मिलती है और ठेकेदारों द्वारा किए जाने वाले शोषण से मुक्ति मिलती है।

वहीं 30 प्रतिशत लेवी का इस्तेमाल 7 अलग-अलग फंड बनाकर मज़दूरों को सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित कराने हेतु किया जाता है। दिल्ली में भी इस कानून की मांग चल रही है लेकिन व्यापारियों और राजनीतिक दलों के बीच सांठ-गांठ इस कानून को पारित होने में एक बड़ी बाधा है।

नागरिक समाज के संगठनों, NGOs आदि द्वारा दिल्ली मथाड़ी कानून तैयार किया गया है। The Delhi Mathadi, Palledars And Other Unprotected Manual Workers’ (Regulation Of Employment And Welfare) Bill, 2019 नाम से आए इस बिल में असंगठित मज़दूरों के रोज़गार और जीवन की सुरक्षा की गारंटी के लिए कई सारे प्रावधान किए गए हैं।

एक अच्छा खासा कानून राजनीतिक उदासीनता की भेंट चढ़ गया

बहुत कोशिशों के बाद यह दिल्ली विधानसभा सत्र के अंतिम 2 दिनों में सदन में पेश होना था लेकिन केंद्र सरकार और लेफ्टिनेंट गवर्नर की अड़चनों के कारण पारित नहीं हो सका। एक अच्छा खासा कानून राजनीतिक उदासीनता की भेंट चढ़ गया। आम आदमी पार्टी की सरकार ने मोहल्ला क्लिनिक और रैन बसेरा जैसी सुविधाओं की शुरुआत की, जिससे पहले की अपेक्षा मज़दूरों की हालत में थोड़ा सुधार हुआ है।

कुछ मज़दूरों को रहने की छत और छोटी-मोटी बीमारियों में कुछ टैबलेट/कैप्सूल मिल जाते हैं लेकिन मज़दूरों का बड़ा तबका आज भी अपने हालात से जूझ रहा है।

कोई संरचनागमक बदलाव दूर तक दिखाई नहीं देते हैं, जिससे मज़दूरों के जीवन में व्यापक परिवर्तन दिखाई दे। बढ़ते शहरीकरण के साथ ही शहरों की जनसंख्या में बेतहाशा वृद्धि हो रही है, वहीं गाँव वीरान हो रहे हैं। रोज़गार की तलाश में लोग शहरों में आ रहे हैं और असंगठित रोज़गार में सम्मिलित हो जा रहे हैं।

सरकार शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन आदि को प्राइवेट हाथों में दे रही है। कम मज़दूरी और बढ़ती महंगाई के कारण मज़दूर असुरक्षाओं के बोझ तले दबे जा रहे हैं। यह स्थिति बहुत भयावह है। एक बड़ी आबादी को उसके हाल पर छोड़ दिया गया है। ये मज़दूर 18 घंटे से अधिक काम करने के बावजूद अपनी ज़रूरतों को पूरा नहीं कर पा रहे हैं। देश में असंगठित क्षेत्र लगातार बढ़ते जा रहे हैं। इनका आज आपका कल हो सकता है।

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सोर्स- http://labour.delhi.gov.in/sites/default/files/All-PDF/comments_mathadi.pdf

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