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“हैदराबाद एनकाउंटर के खिलाफ बोला तो लोगों ने कहा पहले निर्भया को न्याय दिला”

यह एक अराजकता का माहौल है जब देश भर के आम-लोग, नेता एवं मीडिया-कर्मी बलात्कार के आरोपियों के एनकाउंटर की खुशी मना रहे हैं, पुलिस पर फूलों की बरसात कर रहे हैं और ज़िंदाबाद नारे लगा रहे हैं।

बेशक उन दरिंदों को सज़ा मिलनी ही चाहिए थी लेकिन किसी भी आरोपी का एनकाउंटर कर देना यह सज़ा का मकसद नहीं हो सकता है।

हैदराबाद रेप केस के आरोपी का एनकाउंटर

पुलिस ने अपनाया शॉर्ट-कट रास्ता

मीडिया में रिपोर्ट्स हैं कि महिला डॉक्टर को ढूंढते हुए जब उनके परिवार-जन  पुलिस के पास गए तो दो घंटे तक पुलिस ने कुछ नहीं किया। संवेदनशीलता की हदें लांघते हुए यह भी कहा गया था कि ‘किसी दोस्त से मिलने गई होगी या भाग गई होगी’।

सवाल उठ रहे थे कि सरकारें और पुलिस महिलाओं की सुरक्षा करने में नाकाम हो रही हैं और शायद अपनी उसी नाकामी को छिपाने के लिए उन्होंने एक शॉर्ट-कट अपनाया, जिसके तहत उन 4 आरोपियों का एनकाउंटर कर खुद की छवि चमका दी गई है और एनकाउंटर की ऐसी कहानी सुनाई गई, जो अब फिल्मी दुनिया के लिए भी पुरानी सी लगती है।

20-22 वर्ष के लड़के जिनके लिए मीडिया में रिपोर्ट्स हैं कि हिरासत में उन्हें खाना नहीं दिया गया, साथी कैदियों ने उन्हें पीटा भी, पुलिस ने भी शायद पीटा होगा, कोई वकील उनका पक्ष लेने को तैयार नहीं था और बाहर खड़ी जनता भूखे शेरों की तरह उनको सौंपने की बात कर रही थी।

इस डर के आलम में यह समझ से परे है कि कैसे उन 4 लड़कों ने 10 प्रशिक्षित पुलिस-कर्मियों पर डंडे और पत्थरों से हमला कर दिया, पिस्टल छीन ली जिसकी जवाबी कार्रवाई में उनका एनकाउंटर हो गया।

सवाल है,

पुलिस द्वारा इसके पक्ष में कहा गया कि लड़के अनुभवी थे लेकिन बात यहां नहीं रुक सकती है। यदि लड़के अनुभवी थे, तो यह क्यों नहीं बताया गया कि उनकी ओर से कितने राउंड फायरिंग हुई? और तो और जिस अनुभव से उन चारों ने 10 पुलिस वालों को चकमा दे दिया, उसके हिसाब से क्या यह संभव है कि किसी भी पुलिस वाले को एक भी गोली ना लगे और पुलिस वालों की गोलियां सीधे उनका एनकाउंटर कर दें।

हैदराबाद रेप केस

शिक्षण देना मुश्किल लेकिन सज़ा देना आसान

हमारा संविधान ‘शिक्षणात्मक सज़ा’ पर ज़ोर देता है ‘शिक्षात्मत सज़ा’ पर नहीं। इसीलिए सुनवाई होती है।

हमारी सरकार, हमारी न्याय-पालिका, मीडिया इसमें से सीख लेती है, जनता के सामने सीख रखती है और समाज आगे बढ़ता है। यही एक सभ्य समाज की निशानी है, लेकिन आज का जश्न हमारे असभ्य होने का सबूत है कि हम किस ओर जा रहे हैं।

किसी को शिक्षण देना एक मुश्किल काम है लेकिन सज़ा देना बहुत आसान। चूंकि हमारी सरकारें और हमारी व्यवस्थाएं शिक्षण देने में नाकाम रही हैं और हम शिक्षण लेने में निकम्मे हैं। इसलिए एक शॉर्ट-कट के रूप में हम इस तरह के एनकाउंटर पर जश्न मना रहे हैं।

निस्संदेह अपराध क्षमा करने योग्य नहीं था लेकिन सज़ा न्यायिक प्रक्रिया से ही मिलनी चाहिए थी।

क्या हम कल को मॉब लिंचिंग को गलत कह पाएंगे?

आज हमारे देश में असंख्य नेताओं, पुलिस वालों एवं सरकारी अधिकारियों पर भी बलात्कार के केस हैं। तो उन्हें भी लाइन में खड़ा कर दीजिये और उन सबका भी एनकाउंटर कर दीजिये। संविधान में समानता का अधिकार है तो उसका भी उपयोग कीजिये।

जन-भावनाओं के आधार पर समाज की किसी इकाई को इस तरह की छूट दे दी गई तो कल को मॉब-लिंचिंग को भी गलत नहीं ठहरा पाएंगे।

एक पत्रकार के नाते जब मैंने हैदराबाद पुलिस के इस कृत्य के खिलाफ सोशल मीडिया पर अपने विचार साझा किए तो इक्के-दुक्के को छोड़कर अधिकतर लोग मेरे खिलाफ हो गए।

कोई कह रहा था कि न्यायपालिका तो केवल तारीख और ज़मानत देती है। कोई कह रहा था उन सभी बदमाशों को सबक सिखाने का यह सबसे अच्छा तरीका है। एक ने कहा उनमें कोई निर्दोष तो था ही नहीं जिस तरह का अपराध किया उसका यही अंजाम होना चाहिए।

हैदराबाद एनकाउंटर पर जश्न मनाते लोग

कुछ ने तो मुझे नसीहत देते हुए चुप करवाना चाहा और कहा,

पहले निर्भया को न्याय दिला फिर बोलना इस पर।

इससे पहले की लोग मेरी देश-भक्ति पर सवाल करना और मेरी माँ-बहन को गालियां देना शुरू करते, मैंने सवाल-जवाब बंद कर दिए।

हम तक फिक्स्ड नैरेटिव पहुंचाया जाता है

मैं समझ गया कि यह भीड़ अब बेकाबू हो चुकी है जिसकी हौसला हमारे नेता, हमारी पुलिस और हमारा मीडिया और तमाम लोग बढ़ा रहे हैं तथा ऐसे मंचो से कर रहे हैं, जहां से पूरा देश सुनता है।

शायद आम जनता को इस दलदल की जानकारी नहीं है। ऊपर-ऊपर, तक बड़े ही लिमिटेड एडिशन में जनता तक सूचनाएं पहुंचाई जाती हैं और उसी के हिसाब से एक नैरेटिव तैयार होता है और जनता इस तरह के कृत्यों पर जश्न मनाने लगती है।

लेकिन यहां रुकने, संभलने और सोचने की ज़रूरत है। किसी शख्स पर आरोप लगाना और आरोप साबित होने में बहुत फर्क है। आरोप आंखों देखा भी क्यों ना हो लेकिन जनता में इतना संयम होना चाहिए कि दूसरे पक्ष को सुने और न्यायपालिका पर भरोसा रखें। सज़ा देना किसी भीड़, सरकार अथवा पुलिस का काम नहीं हो सकता है।

गलत आरोप में लंबी सजाएं काटने वालों का एनकाउंटर होता तो

हम सब पुलिस का रवैया जानते हैं कि एक बेगुनाह को गुनहगार साबित करने के लिए उन्हें ज़्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती है। अक्सर खबरें आती हैं कि फलाने व्यक्ति ने 25 साल या 30 साल तक सज़ा काटी और बाद में पता चला कि उसने वह गुनाह किया ही नहीं था लेकिन 25 साल पहले उसका भी एनकाउंटर कर दिया जाता, तो उसके बेगुनाह होने की हकीकत हम तक पहुंचती क्या?

याद रखिये, एक समाज को वैसे ही नेता, पुलिस और गुनहगार मिलते हैं, जैसा वह समाज होता है। इसी समाज में राम जैसे अनेकों मर्यादावादियों का चरित्र भी हैं, जिन्होंने रावण जैसे शत्रु की मृत्यु से पहले भी उसके ज्ञान को सुनने और समझने के लिए अनुज लक्ष्मण को उसके पास भेजा था।

यदि आज हम पुलिस के इस कृत्य पर जश्न मनाएंगे तो कल को हो सकता है कि आप और मैं कोई हैवानियत ना करें लेकिन हमारा नाम भी उसी तरह उछाला जाए और जनता हमारे खिलाफ हो जाए। क्या तब भी जन-भावनाओं के आधार पर आपका या मेरा एनकाउंटर जायज़ होगा?

कानून व्यवस्था को पुलिस के हाथों में देना घातक

कानून व्यवस्था को पुलिस के हाथों में देना कितना घातक हो सकता है इस बात को समझने की ज़रूरत है। हमारी न्यायिक व्यवस्था उच्च आदर्शों का ख्याल रखकर चलने वाली व्यवस्था है। जिसका एक मकसद यह भी है कि चाहे सौ दोषी छूट जाएं लेकिन किसी निर्दोष को सज़ा नहीं होनी चाहिये। न्यायिक प्रयोगशालाओं में भी इसी बात पर ज़ोर दिया जाता है।

न्यायिक प्रक्रिया दूर से लाचार दिखती है, क्योंकि हम उसकी बारीकियों को नहीं समझते हैं और लाचार व्यवस्था का हवाला देकर यदि हम इस एनकाउंटर को सही कहेंगे तो जो केसेस पेंडिंग हैं, वहां भी इसी तरह के कारनामे की गुंजाईश बढ़ेगी।

आज हैदराबाद में जो हो रहा है, कल यूपी में होगा, परसों गुजरात, केरल, तमिलनाडु और देश के बाकी कोनों में। असहिष्णु समाज जहां नहीं होगा वहां बर्दाश्त नहीं कर पाएगा।

सरकार और व्यवस्था पर जनता का दबाव बनेगा। तब देश और यहां की व्यवस्था एक बेकाबू भीड़ के हाथों में चली जाएगी, जहां भीड़ जो तय करेगी उसी को न्याय समझा जाएगा। इससे फर्क नहीं पड़ेगा की सामने वाला दोषी है या निर्दोष।

‘गंगाजल’ देख तो ली, क्या सीखा हमने? तेजाब को जो लोग गंगाजल कह रहे थे, आज उसी किस्म के लोग एक ‘गुनाह’ को ‘न्याय’ का चोला पहना रहे हैं।

यदि जनता, पुलिस अथवा सरकार इस तरह के फैसले करने लगेंगी तो क्या मतलब है हमारी न्यायपालिका का? उसका भी एनकाउंटर कर देना चाहिए।

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