आज कंकरीट के ऊंचे जंगल देखकर मुझे महसूस होता है कि आज से करीब 450 साल पहले अर्केिटेक्ट्स का क्या दिमाग रहा होगा। ऊंची-ऊंची दीवारें आधुनिक अर्केिटेक्ट का जीता-जागता उदाहरण हैं। करीब 450 साल पहले मुगल सल्तनत द्वारा स्थापित किया गया एक शहर जो कि आज भी मानों एक-एक कहानी बयां करता है उस युग की, जो कि बादशाह अकबर के ज़माने में हुआ करती थी।
जी हां, बात हो रही है आगरा शहर से 35 किमी दूर राजस्थान बॉर्डर से सटे फतेहपुर सीकरी की। मुगल सल्तनत की एक पूरी कहानी इस शहर से जुड़ी हुई है। यहां अकबर के उस रूप की झलक देखने को मिलती है, जो कि उनकी पत्नी के हिंदू धर्म के प्रति आगट आस्था को दर्शाता है।
प्राचीन वैभव की झांकी प्रस्तुत करती दीवारें
मुगल सम्राट अकबर का बसाया हुआ भव्य नगर जिसके खंडहर आज भी अपने प्राचीन वैभव की झांकी प्रस्तुत करते हैं। अकबर से पूर्व यहां फतेहपुर और नाम के दो गाँव बसे हुए थे जो अब भी हैं। इन्हें अंग्रेज़ी शासक ओल्ड विलेजेस के नाम से पुकारते थे।
सन् 1527 ई. में चित्तौड़-नरेश राणा संग्रामसिंह और बाबर ने यहां से लगभग दस मील दूर कनवाहा नामक स्थान पर भारी युद्ध लड़ा था जिसकी स्मृति में बाबर ने इस गाँव का नाम फतेहपुर कर दिया था। तभी से यह स्थान फतेहपुर सीकरी कहलाता है।
दरअसल, अकबर की बड़ी रानी जो कछवाहा राजा बिहारीमल की पुत्री और भगवानदास की बहन थी, गर्भवती हो गई और उसने पुत्र को जन्म दिया। यह भी कहा जाता है कि अकबर ने मरियम-उज़-ज़मानी को प्रसव के लिए मायके भेजने के बदले सीकरी के सलीम चिश्ती के पास ही भिजवा दिया गया थाा और उसका नाम शेख के नाम पर सलीम रखा गया, जो बाद में जहांगीर के नाम से अकबर का उत्तराधिकारी हुआ।
अकबर का सीकरी से प्रेम
शेख चिश्ती से अकबर बहुत प्रभावित थे, उसने अपनी राजधानी सीकरी में ही रखने का निश्चय किया। सीकरी में जहां सलीम चिश्ती रहते थे, उसी के पास अकबर ने सन 1571 में एक किला बनवाना शुरू किया।
अकबर ने निश्चय कर लिया था कि जहां बालक पैदा हुआ है, वहां एक सुन्दर नगर बसाएंगे जिसका नाम फतेहबाद रखा गया, जिसे आज हम फतेहपुर सीकरी के नाम से जानते हैं।
मुगल शासनकाल का यह प्रथम योजनाबद्ध तरीके से बसाया गया, एक वैभवशाली नगर माना जाता है। यहीं रहते-रहते ही सभी धर्मों की अच्छी अच्छी बातों को मिला जुलाकर अकबर ने अपनी “दीन-ए-इलाही” नामक नए धर्म की स्थापना भी की थी, परन्तु इस नए धर्म को स्वीकार करने के लिए किसी को बाध्य नहीं किया गया। बीरबल सहित कई कुलीन दरबारियों ने ही अकबर का साथ दिया था।