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अभिव्यक्ति की आज़ादी को पीछे धकेलते हुए भारत इंटरनेट शटडाउन के मामले में सबसे आगे

अभिव्यक्ति की आज़ादी के स्तम्भ जंग खाकर खोखले होते जा रहे हैं और हम हैं कि स्वस्थ लोकतंत्र की वकालत करते नहीं थकते हैं। आवाज़ दबाने का एक नायाब तरीका खोजा जा रहा है। सड़के बन्द कर दो, संस्थान बन्द कर दो, मीडिया चैनल बन्द कर दो और अब इंटरनेट बन्द कर दो।

इंटरनेट पर रोक आज़ादी पर अतिक्रमण

नागरिकता संशोधन विधेयक जब से पारित हुआ है तब से देश बहुत बड़े आक्रोश को आत्मसात कर रहा है। कुछ जगह इसके विरोध में आंदोलन हुए है, तो कुछ जगह इसके समर्थन में पटाखे भी जलाए गए हैं। कुछ जगह विरोध के स्वर इतने मुखर हो गये कि वे आंदोलन में तब्दील हो गए।

कुछ आंदोलन शांति पूर्ण हैं, तो कुछ हिंसात्मक भी हुए हैं। मैं इस ओर नहीं जाना चाहता कि वे हिंसात्मक क्यों हुए व उनके कारक क्या थे। यह जांच का विषय है और प्रशासन अपना कार्य पूर्ण ज़िम्मेदारी से करेगा ऐसी मुझे आशा है। परंतु आंदोलन के पड़ाव पर व स्वस्थ लोकतंत्र में इंटरनेट पर रोक लगाया जाना भी एक तरीके से अभिव्यक्ति की आज़ादी पर अतिक्रमण है।

आंकड़े बताते हैं कि भारत नेट की पाबंदी लगाने वाले देशों की सूची में प्रथम स्थान पर है।

अकेले 2018 में ही भारत में इंटरनेट बंद करने के 134 मामले रिपोर्ट किए गए थे, जो पूरी दुनिया में सबसे अधिक थे। इस सूची में भारत जहां सबसे ऊपर था तो वहीं दूसरे नंबर पर पाकिस्तान था, जहां इंटरनेट बंद किए जाने के मात्र 12 मामले थे।

राजधानी में भी इंटरनेट बंद

आज सूचना मिल रही है कि देश की राजधानी के कुछ हिस्सों में नेट व्यवस्था रोक दी गयी है। आखिर यह कौन सी व्यवस्था है? हम किस लोकतंत्र की बात कर रहे हैं? अभिव्यक्ति की आज़ादी के स्तम्भ जंग खाकर खोखले होते जा रहे हैं और हम हैं कि स्वस्थ लोकतंत्र की वकालत करते नहीं थकते हैं।

एमनेस्टी टेक नाम की कंपनी, दुनिया भर में इंटरनेट पर लगने वाली रोक पर निगरानी रखती है। हालांकि वे सभी जगह की रिपोर्ट नहीं रख सकते । कंपनी के डिप्टी डायरेक्टर जोशुआ फ्रैंको कहते हैं,

दुनिया भर में इंटरनेट पर पाबंदी की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। हमने पाया है कि 2017 में पश्चिमी और मध्य अफ्रीकी देशों में इंटरनेशनल मोबाइल और इंटरनेट सेवाएं स्थगित करने की 12 घटनाएं हुईं हैं, जो 2016 में हुई ऐसी घटनाओं से ज़्यादा हैं। 2018 में तो इसी इलाके में 20 बार इंटरनेट और मोबाइल पर पाबंदियां लग चुकी हैं। हमे आशंका है कि ऐसी मिसालें और भी बढ़ेंगी।

2011 और 2016 की संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की रिपोर्ट में इंटरनेट पर लगाई जाने वाली पाबंदियों की आलोचना की गई थी। दोनों ही बार यह माना गया था कि अभिव्यक्ति की आज़ादी की तरह ही इंटरनेट का अधिकार भी मानवाधिकार हो सकता है। हालांकि बहुत से लोगों का यह भी कहना है कि तकनीकि को अधिकार का स्वरूप देना उचित नहीं है।

अपनी राय रखने की जगह

मेरे विचार से स्वस्थ लोकतंत्र में लोगो को अपनी राय रखने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। घर, सड़क, विद्यालय और देश बन्द कर देने के बाद भी इंटरनेट को बन्द नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि इससे समाज के लोगों की अपनी एक राय तय होती है।

आवश्यकता है कि हम आपत्तिजनक सामग्री को साझा करने वालों को चिन्हित कर उनके विरुद्ध कठोरतम कार्यवाही की जानी चाहिए। किसी व्यवस्था को बन्द कर देना उसका हल नहीं है , हल है तो वह यह  कि हमने उसके सुधार हेतु आखिर क्या कदम उठाए हैं।

यह तो समय बताएगा, सरकार आखिर कब तक नेट बाधित रखती है और कब हमको अपने विचार प्रकट करने की वास्तविक आज़ादी मिलेगी। नेट पर पाबंदी भी एक तरह से विचारो पर कर्फ्यू लगाने जैसा है।

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