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बेरोज़गारी के दौर में शरर्णार्थियों को किस तरह से संभालेगा देश?

11 सितंबर 1893 को  स्वामी विवेकानंद ने शिकागो (अमेरिका) में हुए विश्व धर्म सम्मेलन में एक बेहद चर्चित भाषण दिया था। इस भाषण में उन्होंने कहा था,

मुझे ऐसे राष्ट्र पर गर्व है, जिसने सभी धर्मों और पृथ्वी के सभी देशों के शरणार्थियों और शरणार्थियों को शरण दी है।

स्वामी विवेकानंद का एक नाम नरेन्द्र भी था, लेकिन अब हम एक दूसरे नरेन्द्र के दौर में जी रहे हैं, जहां सभी धर्मों को आश्रय देना अब शाायद कोई गर्व की बात नहीं रह गयी है।

सिटीज़नशिप कानून के खिलाफ असम में विरोध, फोटो साभार- सोशल मीडिया

भगत सिंह ने एक किताब लिखी कि “मै नास्तिक क्यों हूं” लेकिन शायद आज के भारत में वे भी नागरिकता के लिए आवेदन करते, तो उन्हें भी प्राथमिकता नहीं मिलती क्योंकि उनका तो कोई धर्म ही नहीं है।

वसुधैव कुटुम्बकम को मानने का दावा खोखला

जो नेता POK के लिए जान तक देने की बातें करते हैं, वे ये क्यों भूल जाते हैं कि वह सिर्फ ज़मीन का एक टुकड़ा भर ही नहीं है, वहां लोग भी हैं, वे लोग मुसलमान हैं। अगर POK हमारा है तो क्या उन लोगों के मांगने पर हम उनको भारत का शहरी होने का दर्ज़ा नहीं देंगे?

अगर हम धार्मिक पहचान के आधार पर भेदभाव करने वाले मुल्क में तब्दील हो गए, तो वैश्विक मंचों पर वसुधैव कुटुम्बकम मानने का हमारा दावा कितना खोखला होगा ना?

विश्वगुरु बनने की तमन्ना पाले मुल्क का कलेजा इतना भी छोटा नहीं होना चाहिए, जिसमें शरण मांगने वाले ‘किसी’ के लिए जगह भर ना हो।

सिर्फ धर्म के आधार पर बहस

सवाल अगर सिर्फ घुसपैठ का है, तो अगर कोई घुसपैठिया है तो वह हमारे संसाधनों पर कब्ज़ा कर रहा है। तो वे चाहे कोई भी हो हमारे लिए तो मुश्किल ही पैदा कर करेगा ,ऐसा कैसे हो सकता है की वो अगर मुस्लिम है तो हमारा नुकसान है लेकिन अगर नॉन-मुस्लिम घुसपैठिया है तो हमारे लिए फायदे का है।

ऐसे में जब बहुत तेज़ी से हम सबसे ज़्यादा नौजवानों वाले देश से सबसे ज़्यादा बेरोज़गारों वाले देश में तब्दील हो रहे हैं, वहां हम पब्लिक डिबेट के सेंटर में हमेशा धर्म को रखकर उनका कौन सा भला कर रहे हैं?

जिनको लोगों ने इतना प्यार दिया, सीटें दी ,बहुत सारे लोगों ने रहनुमा माना, वे ही आज उनके नौजवान बच्चों को धर्म के अंधेरी कोठरी में धकेलने में क्यों अमादा है?

इतिहास की मैनुपुलेटेड समझ देने पर क्यों अमादा हैं

आज सवाल यह है कि

जहां इन्हे हुनरमंद कैसे बनाया जाए पर बात होनी चाहिए थी, वहां हम उन्हें इतिहास की ऐसी मैनुपुलेटेड समझ देने पर क्यों अमादा हैं, जिसका आधार ही नफरत है।

इतनी बड़ी आबादी कि एस्पिरशंस अगर हमारे हुक्मरान पूरा नहीं कर पा रहे हैं तो उनकी (शरणार्थी) शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार जैसी बुनियादी ज़रूरतें भी पूरा नहीं कर पाएंगे। ऐसे में उनका गुस्सा, उनका अवसाद संभाल पाना मुल्क के लिए बहुत मुश्किल हो जाएगा।

ऐतिहासिक भूलों को सुधारने का दम्भ कहीं हमसे ऐतिहासिक गलतियां ना करा बैठे।

कोई एक नेता, कोई एक खास विचारधारा वाली सरकार तो पांच दस साल में चली जाती है, बदल जाती है लेकिन देश तो यूं ही रहेता है। इतनी तरह की नफरतों को पाले हुए हम विवेकानंद को, अम्बेडकर को, गाँधी को, भगत सिंह को कैसे मुँह दिखा पाएंगे? उनके आदर्शों , उनके मूल्यों से कैसे नज़रें मिला पाएंगे? कैसे ये साबित कर पाएंगे और बता पाएंगे आने वाली पीढ़ियों को कि हम इनके ही वंशज हैं।

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