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“जब भीड़ और गोलियां ही सज़ा देंगी, तो न्यायपालिका की ज़रूरत क्या है?”

हैदराबाद रेप केस के आरोपी का एनकाउंटर

हैदराबाद रेप केस के आरोपी का एनकाउंटर

इस खूबसूरत बाज़ार में सबसे महंगी है इंसान की वास्तविक संवेदना, जो कैमरे पर आने से संकोच करती है। जबकि सबसे सस्ता है इंसान का लहू, जो एक हिंसक समाज की सामूहिक प्यास मिटाने जब चाहे बिना शरमाये बह जाता है। 

धर्म के नाम पर दंगे जायज़ हो जाते हैं, जिसका मलाल कभी नहीं होता है। याद कीजिए कठुआ में बलात्कार का चरित्र ही राष्ट्रवादी हो गया था। भारत माता की जय बोलकर बलात्कारियों के समर्थन में नारे लगाना ही देशप्रेम का परिचायक था। दुनिया में भारत ही एकलौता ऐसा मुल्क है, जो अपनी डाइवर्सिटी के साथ-साथ बलात्कार जैसे अपराधों और उसके पश्चात होने वाली प्रतिक्रियाओं में भी डाइवर्सिटी बरकरार रखता है। 

बलात्कार एक नागरिक की तरह स्वीकारा जाने लगा है

बलात्कार एक नागरिक की तरह स्वीकारा जाने लगा है। वह सारी पहचान मसलन यहां इसका मजहब भी देखने को मिल जाता है। यहां तक कि राष्ट्रीयता भी देखने को मिल जाती है। गज़ब तो यह है कि जातीयता तो सदियों से देखी जा रही है और तो और बलात्कार स्वयं में खुद को समेटे हुए गौरवान्वित महसूस करता है।

तमाम पाखंडी बाबाओं जिनके खातों में महिलाओं के शोषण की अनगिनत चीखती कहानियां दर्ज़ हैं, उनके चरणों में देश की पुलिस की क्या बिसात? अब तक सभी प्रधानमंत्री सर नवाज़ते आए हैं। क्या उन बाबाओं का एनकाउंटर इस व्यवस्था में संभव है? अरे-अरे पाप लग जाएगा, ऐसा सोचना ही पाप है, क्योंकि शास्त्रों में तो ब्रह्म हत्या सबसे बड़ा अपराध है।

अब तो बन्दुक न्याय बन चुकी है और कटघरा चौराहा

गोली का भी तो धार्मिक रंग होता है, वर्ग चरित्र होता है, वर्ण व्यवस्था ध्यान में रख कर ही गोली बंदूक की हलक से निकलना पसंद करती है। सभी देशों में अल्पसंख्यक समुदाय पर निशाना लगाने से पहले जंग लगी बंदूक भी मक्खन की तरह स्मूथ हो जाती है।

हैदराबाद रेप केस के आरोपियों का एनकाउंटर करने के बाद जुटी भीड़। फोटो साभार- सोशल मीडिया

पिछली शताब्दी में भले ही कुछ देश समाजवादी मूल्य स्थापित करने में कामयाब रहे हों। मगर बंदूक सदियों से समाजवादी ही रही है। इसका तो उद्देश्य ही है कि इंदिरा गांधी का नारा गरीबी हटाओ में संशोधन करके गरीबों को हटा कर वर्गविहीन समाज की स्थापना करना। क्लासलेस सोसाइटी की अवधारणा तो बंदूक, कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो से भी पहले अपने कंधों पर उठाए हुए है।

जिस समाज में बंदूक न्याय बन चुकी हो और चौराहा कटघरा, वहां निश्चित ही जिनके हाथों में बंदूक का ट्रिगर होगा वह सबसे बड़ा देवता स्वीकारा जाएगा और मृतक सदा दोषी ही माना जाएगा।

समाज का तो खून खौल रहा है। उसकी प्यास तो चौराहे पर बिखरे खून को देख कर ही शांत होगी। जांच-पड़ताल के दौरान यदि दोषी कहीं व्यवस्था में बैठा सत्ता की मलाई खा रहा हो, तो क्या फर्क पड़ता है। इंसाफ तो तब होता जब लाशें बिछाते हुए एक हीरो कैमरे के सामने आ जाए।

यह निश्चित मानकर चलना चाहिए कि प्रशासन की गोली जिस शरीर को भेदती है, वह बिना न्याययिक प्रक्रिया में दाखिल हुए ही खूनी, बलात्कारी और उग्रवादी बन जाता है। पता नहीं और क्या-क्या बन जाता है या बना दिया जाता है। अब मृतकों पर लगे इल्ज़ाम की तसदीक के लिए सबूतों और गवाहों की ज़रूरत ही नहीं है। यहां तो गोली हर मर्ज़  का इलाज है। भीड़ और गोलियों से न्याय की पूर्ति करने वाला समाज अपनी सभयता को भी बखूबी परिलक्षित करता है।

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