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“मीडिया से गरीब-वंचितों की खबर गायब करने के लिए मीडिया में उनकी एंट्री बंद कर दो”

सिर्फ पूंजी वाले बनेंगे पत्रकार, क्योंकि ये भारतीय जनसंचार संस्थान नहीं, भारतीय महंगा संस्थान है। भविष्य में जनता की आवाज़ बनने वाला पत्रकार आज शिक्षा की पहुंच को भारत के अंतिम छोर पर खड़े उस व्यक्ति के घर की चौखट पर पहुंचाने के लिए संघर्षरत है, जिसे सरकारी चश्मे में बीपीएल कहा जाता है।

पत्रकार बनने के लिए शिक्षा का अधिकार सिर्फ पूंजीपतियों के बच्चों को नहीं मिलना चाहिए। मध्यम और निम्न वर्ग परिवारों के बच्चों को भी शिक्षा का अधिकार होना चाहिए। हर सामाजिक एवं आर्थिक पृष्ठभूमि तबके से आने वाले स्टूडेंट्स की पत्रकार बनने की ख्वाहिश पूरी होनी चाहिए।

IIMC फीस वृद्धि के विरोध में प्रोटेस्ट करते स्टूडेंट्स। फोटो सोर्स- हृषिकेश शर्मा की वॉल से।

बेतहाशा बढ़ती फीस वृद्धि के खिलाफ हड़ताल

पत्रकारिता की पढ़ाई के देश के सर्वोच्च भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी) में स्टूडेंट्स ने बीते मंगलवार से अनियमित और बेतहाशा फीस वृद्धि के खिलाफ हड़ताल शुरू कर दी है। बुलंद हो रहे विरोध के स्वर में मेरा भी एक स्वर है। शिक्षा के बाज़ारीकरण के खिलाफ है, बाज़ारीकरण का शिकार ना होने का हमारा सामूहिक प्रतिकार है।

जिसके पास पूंजी, उसे ही बनने दिया जाएगा पत्रकार

मीडिया की पढ़ाई महंगी होगी तो पत्रकार वहीं बन सकता है, जिसके पास पूंजी होगी। इस देश में मुट्ठीभर लोगों के पास पूंजी समेत हर संसाधन हैं। क्या उन्हें ही सिर्फ पत्रकार बनने का अधिकार है? समाज में एक ऐसा तबका, जो कई वर्षों से उपेक्षित रहा है, उसकी भागीदारी मीडिया जगत के बागों में गिने-चुने फूल के समान है।

आज के न्यूज़रूम में दलित, शोषित, वंचित, अल्पसंख्यक, महिलाएं और आदिवासी तबके से आने वाले पत्रकारों की भारी कमी है, जिसका दुष्परिणाम इन तबकों से जुड़ी हुई खबरों के स्पेस और विश्लेषण पर दिखता है। उससे भी कहीं ज़्यादा नुकसान एक लोकतांत्रिक गणराज्य भारत को होता है।

लोकतंत्र के बुनियादी आधारों में से एक विविधता है, जिसका आसान शब्दों में अर्थ है कि समाज के हर एक वर्गों की भागीदारी हो। दुर्भाग्य है कि आज़ादी के 7 दशक बाद भी लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया जगत में विविधता का अभाव है।

वर्तमान मुख्यधारा मीडिया में मूलभूत मुद्दों पर चर्चा नदारद रहती है। इसकी वजह गाँव से गरीब-गुरबा, शोषित, वंचित और महिलाओं की भूमिका चमचमाती मीडिया की दुनिया में ना होना है।

अगर इनकी भूमिका मीडिया में मुखर होती तो गरीबी पर चर्चा होती, भुखमरी पर चर्चा होती, महिला सुरक्षा पर चर्चा होती, किसानों की समस्या पर चर्चा होती, हिलती-डुलती अर्थव्यवस्था पर चर्चा होती, पर्यावरण और पानी पर चर्चा होती, ना कि पाकिस्तान पर।

IIMC फीस वृद्धि के विरोध में प्रोटेस्ट करता छात्र। फोटो सोर्स- हृषिकेश शर्मा की वॉल से।

पूंजीवादी वर्ग गरीबों की कैसे बात करेगा?

जिस पूंजीवादी पत्रकार ने गरीबी का दुख नहीं देखा, खेत-खलिहान नहीं देखा, किसानों का दर्द महसूस नहीं किया, भुखमरी नहीं देखा, शोषण का दंश नहीं सहा, मज़दूरों की समस्या को ना समझा, खस्ताहाल सड़कों का दंश नहीं झेला, अर्थव्यवस्था की तरह डगमगाती शिक्षा व्यवस्था को नहीं देखा,ऑक्सीजन की कमी और चमकी बुखार से मर गए छोटे बच्चों के माता-पिता के दर्द को ना समझा, वो पत्रकार प्राइम टाइम में हिन्दू-मुस्लिम करके समाज को बांटेगा, लोकतंत्र की बुनियादी तत्व को नष्ट करेगा।

यकीन मानिए वह पत्रकारिता नहीं कर रहा है, किसी व्यक्ति विशेष की अंधभक्ति कर रहा है। पत्रकारिता के मौजूदा रूख को देखकर लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब हम पत्रकारिता के इतिहास में जनसरोकार का अध्याय पढ़ेंगे।

फोटो सोर्स- हृषिकेश शर्मा की वॉल से।

हमारे हिंदी पत्रकारिता विभाग में खाली हैं SC, ST सीटें

IIMC में मैं हिंदी पत्रकारिता विभाग का छात्र हूं। मेरे क्लास में अभी भी 4 अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों की सीटें खाली हैं। IIMC प्रशासन द्वारा नामांकन के लिए 3 से 4 मेरिट लिस्ट जारी हुई। प्रवेश प्रक्रिया पूरी हो जाने के बाद IIMC प्रशासन को पता चलता है कि दिल्ली समेत अन्य क्षेत्रीय परिसरों में विभिन्न विभागों में 32 आरक्षित अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की सीटें खाली हैं।

सीटों को भरने के लिए 26 अगस्त को प्रवेश परीक्षा और साक्षात्कार हुआ। इसके बावजूद भी 4 सीट हिंदी पत्रकारिता विभाग में खाली पड़ी रहीं। सीट ना भर पाने की सबसे बड़ी वजह है महंगी फीस। IIMC में फीस का निर्धारण करने वाली समिति ने न्याय की देवी की तरह आंखों पर काली पट्टी बांधकर वंचित वर्ग से आने वालों स्टूडेंट्स की सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि को नज़रदांज करने का फैसला किया है।

सरकार की नुमाइंदगी करने वाले तथाकथित नेताओं के भाषण में समाजवाद की धारा बहती है, जब भाषणों से निकलकर औपचारिक कागज़ों के स्वरूप में नीतियां बनती हैं, तो पूंजीवाद की हनक सुनाई देती है। ये आवाज़ें कहती हैं कि गाँव के गरीब मज़दूर और किसान के बेटे और बिटिया पत्रकार बनने का सपना छोड़ दें, क्योंकि ये राष्ट्रद्रोह से बड़ा अपराध है।

गाँव में खेतों की पगडंडियों से होते हुए एक आर्थिक रूप से कमज़ोर स्टूडेंट पत्रकार बनने का सपना लिए देश के सर्वोच्च पत्रकारिता संस्थान में दाखिले के लिए बढ़ता है। तभी महंगी फीस की दिवार उसके सामने खड़ी हो जाती है, उसके सपने को चकनाचूर करते हुए दिवार कहती है कि तुम तो बड़े खुशनसीब हो जो ऊंची इमारत को देख सके। स्पर्श करने के लिए अगले जन्म अमीर घर में पैदा होना।

ऐसी ही धारणाओं को मिथक साबित करने के लिए संस्थान के स्टूडेंट सुबह से लेकर शाम तक और सर्द भरी रातों में शांतिपूर्ण धरना प्रदर्शन कर रहे हैं। तेज़ ठंड भी इन स्टूडेंट्स के साहस के सामने नतमस्तक है।

हम स्टूडेंट्स की मुख्य तौर पर सिर्फ एक मांग है- गरीब, मज़दूर, किसान का बच्चा भी संस्थान में प्रवेश ले सके और जनता की आवाज़ बन सके। मतलब वह पत्रकार बन सके।

मित्र शुभम शर्मा ने बताया कि संस्थान में कार्यत एक गार्ड चाचा ने उनसे कहा,

अब हमारा बच्चा भी आईआईएमसी में पढ़ेगा।

यही तो हमारा उद्देश्य है, चाचा की सोच ने हमें बता दिया कि हमारा विरोध प्रदर्शन सफलता की राह पर है। हम प्रशिक्षु पत्रकारों ने ठाना है कि देश के हर घर शिक्षा पहुंचाना है।

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