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जातिगत भेदभाव हमारे देश के बच्चों को कुपोषित बना रहा है

अपने देश को आज़ाद हुए सात दशक से ज़्यादा का समय हो चुका है। इन वर्षों में हमने कई मामलों में काफी तरक्की की है लेकिन ‘कुपोषण’ एक बदनुमा दाग की तरह देश की पहचान के साथ चिपका हुआ है। दुनियाभर में बाल कुपोषण की सर्वोच्च दरों वाले देशों में से हमारा देश भारत भी शामिल है।

कुषोषण क्या है?

कुपोषण एक ऐसी अवस्था है, जिसमें पौष्टिक पदार्थ और भोजन को अव्यवस्थित रूप से लेने के कारण शरीर को पूरा पोषण नहीं मिल पाता है।कुपोषण तब भी होता है, जब किसी व्यक्ति के आहार में पोषक तत्वों की सही मात्रा नहीं होती है। हम स्वस्थ रहने के लिए भोजन के ज़रिए ऊर्जा और पोषक तत्व प्राप्त करते हैं लेकिन यदि भोजन में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, विटामिन और खनिजों आदि पोषक तत्व नहीं मिलते हैं, तो बच्चे कुपोषण के शिकार हो जाते हैं।

दलित और आदिवासी परिवार के बच्चों में सबसे ज़्यादा कुपोषण

फोटो प्रतीकात्मक है।

खास बात है कि कुपोषण के शिकारों में दलित और आदिवासी परिवार के बच्चों की संख्या सर्वाधिक है। इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह आज भी सामाजिक स्तर पर होने वाला भेदभाव है। किसी भी राष्ट्र को विकसित बनाने का सपना तभी पूरा [हो सकता है, जब तक इसके नागरिक स्वस्थ हों। कहा भी गया है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का वास होता है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 और 47, भारत सरकार को सभी नागरिकों के लिए पर्याप्त भोजन के साथ एक सम्मानित जीवन सुनिश्चित करने हेतु उचित उपाय करने के लिए बाध्य करते हैं। अनुच्छेद 47 में कहा गया है,

राज्य का यह कर्तव्य है कि वह लोगों के पोषण स्तर और जीवन स्तर को बढ़ाने तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य को सुधारने के लिए निरंतर प्रयास करे।

जबकि अनुच्छेद 21 के अनुसार,

किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन अथवा निजी स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता है।

यूनिसेफ और विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, कुपोषण की पहचान के तीन मुख्य लक्षण हैं- नाटापन, निर्बलता और कम वजन, जिसके आधार पर कुपोषण के स्तर की पहचान की जाती है।

वर्ष 2019 में आये ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में भुखमरी की स्थिति काफी गंभीर है। रिपोर्ट के मुताबिक,

कुल 117 देशों में भारत 102वें पायदान पर रहा। यह दक्षिण एशियाई देशों में सबसे निचला स्थान है। हमारा देश यहां पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका से भी पीछे है।

यहां हमें सोचने की ज़रूरत है कि सही मायने में हम जा किस ओर रहे हैं? विश्व बैंक की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में वर्ष 2006 से वर्ष 2016 तक 10 वर्षों में लगभग 27 करोड़ लोग गरीबी रेखा से ऊपर आए हैं। गरीबी सूचकांक रिपोर्ट, 2019 के मुताबिक,

देश के कुल गरीबों का लगभग 50 प्रतिशत हिस्सा देश के मात्र चार राज्यों झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में है।

खास बात है कि कुपोषित बच्चों की भी सर्वाधिक आबादी इन्हीं प्रदेशों में है। एक तरफ देश में गरीबी दर में तो गिरावट आ रही है लेकिन कुपोषण और भूख की समस्या आज भी देश में चिंताजनक बनी हुई है।

फोटो प्रतीकात्मक है।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-4) की रिपोर्ट भी बताती है कि सबसे ज़्यादा अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के बच्चे कुपोषण से पीड़ित हैं। यह बताता है कि देश में पिछले सात दशक से लागू स्वतंत्र शासन में विकास और कल्याण की नीतियों का लाभ निचले स्तर के लोगों को नहीं मिला।

यह स्थिति साल-दर-साल सुधरने की जगह बिगड़ती ही जा रही है। सर्वेक्षण के मुताबिक,

संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी द स्टेट ऑफ फूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रिशन इन द वर्ल्ड रिपोर्ट में इस बात की चेतावनी दी गई है कि यदि ऐसे ही चलता रहा, तो विश्व की सभी अर्थव्यवस्थाओं के लिए वर्ष 2030 तक सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करना काफी मुश्किल हो जाएगा।

यहां विकास के दावों को टटोलना भी ज़रूरी हो जाता है, क्योंकि सही मायने में विकास का मतलब वंचित लोगों की क्षमताओं में विस्तार तथा जीवन गुणवत्ता में सुधार लाना है। उदाहरण के तौर पर महाराष्ट्र में वर्ष 2004 के बाद राज्य की प्रति व्यक्ति आय दोगुनी हो गयी लेकिन इस राज्य के जनजातीय क्षेत्रों के बच्चों के बीच आज भी उच्च स्तर का कुपोषण पाया जाता है। क्योंकि, पोषण के मामले में राज्य ने प्रति व्यक्ति आय के समान प्रगति नहीं की है।

हालांकि, कुपोषण से बचने के लिए आदिवासी और दलित समुदायों का अपना पारंपरिक तरीका रहा है। इन तबकों का पारंपरिक खानपान ऐसा रहा है कि खाद्य सुरक्षा के साथ-साथ खाद्य पदार्थों में विविधता बनाये रखना, इनकी संस्कृति का हिस्सा रही है लेकिन आज के बाज़ार केंद्रित राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय आर्थिक परिदृश्य में स्थानीय एवं समुदाय-आधारित परंपराएं और पारस्परिक सहयोग व सुरक्षा देने वाली संस्कृति अस्तित्व खोती जा रही है।

देश में हर दूसरा बच्चा कुपोषण से ग्रसित

फोटो प्रतीकात्मक है।

पिछले दिनों जारी रिपोर्ट ‘द स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स चिल्ड्रन-2019’ के अनुसार, दुनिया में 5 वर्ष तक की उम्र के प्रत्येक 3 बच्चों में से एक बच्चा कुपोषण या कम वजन की समस्या से ग्रस्त है। पूरी दुनिया में लगभग 200 मिलियन तथा भारत में प्रत्येक दूसरा बच्चा कुपोषण के किसी-ना-किसी रूप से ग्रस्त है। आप सोच कर देखिये कि जब हर दूसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है, तो हम दुनिया से विकास की प्रतिस्पर्धा कैसे कर पायेंगे?

रिपोर्ट में यह बात भी सामने आई थी कि वर्ष 2018 में भारत में कुपोषण के कारण पांच वर्ष से कम उम्र के लगभग 8.8 लाख बच्चों की मृत्यु हुई, जो कि नाइज़ीरिया (8.6 लाख), पाकिस्तान (4.09 लाख) और कांगो गणराज्य (2.96 लाख ) से भी अधिक है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि भारत में 6 से 23 महीने के कुल बच्चों में से मात्र 9.6 प्रतिशत बच्चों को ही संतुलित आहार मिल पाता है।

वर्ष 2017 में झारखंड में सिमडेगा ज़िले के कारीमाटी गांव की 11 वर्षीया संतोष कुमारी की मौत ने कुपोषण और भुखमरी को लेकर देशभर का ध्यान खींचा था। ‘माई भात दे-थोड़ा भात दे’, कहते-कहते उस आदिवासी बच्ची ने मां कोयली देवी की बांहों में दम तोड़ दिया था। खबरों के मुताबिक, यह पूरा परिवार कई दिनों से भूखा था। राशन कार्ड का आधार से लिंक ना होने के चलते उनका नाम लिस्ट से हटा दिया गया था और इस परिवार को राशन नहीं मिल रहा था।

यह सरकारी लापरवाही की एक छोटी-सी दास्तान भर है। सिर्फ झारखंड में ही ऐसे दर्जनों मामले सामने आये, इसके इतर देशभर में ऐसे हज़ारों लापरवाही के मामले सामने आते रहते हैं।

क्या हैं भारत में कुपोषण के कारण?

फोटो प्रतीकात्मक है।

पोषण की कमी और विभिन्न बीमारियों को कुपोषण का सबसे प्रमुख कारण माना जाता है। अशिक्षा और गरीबी के चलते भारतीयों खासकर वंचित तबके के लोगों के भोजन में आवश्यक पोषक तत्वों की कमी हो जाती है। इसके अलावा, अपने देश में बेहतर और मुफ्त स्वास्थ्य सेवाओं की अनुपलब्धता कुपोषण की बड़ी वजह है। कई लोग मजबूरीवश डॉक्टर के पास तब तक नहीं जाते, जब तक कि उनकी हालत गम्भीर नहीं हो जाती है।

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक,

भारत में लगभग 1700 मरीज़ों पर एक डॉक्टर उपलब्ध हो पाता है, जबकि वैश्विक स्तर पर 1000 मरीज़ों पर 1.5 डॉक्टर होते हैं।

कुपोषण का एक बड़ा कारण लैंगिक असमानता भी है

भारतीय महिला के निम्न सामाजिक स्तर के कारण उसके भोजन की मात्रा और गुणवत्ता में पुरुष के भोजन की अपेक्षा कहीं अधिक अंतर होता है। दलित व आदिवासी आबादी के बच्चों में कुपोषण के पीछे एक बड़ी वजह लड़कियों का कम उम्र में विवाह होना और जल्दी मॉं बनना भी है। साथ ही साफ पेयजल का आभाव तथा गंदगी कुपोषण का एक बहुत बड़ा कारण है।

सरकारी प्रयास की क्या है स्थिति?

भारत सरकार द्वारा कुपोषण की गंभीर स्थिति को देखते हुए वर्ष 2018 में राष्ट्रीय पोषण मिशन की शुरुआत की गई। इसे पोषण अभियान के नाम से भी जाना जाता है। इस मिशन का लक्ष्य छोटे बच्चों, महिलाओं व किशोरियों में कुपोषण और एनीमिया को कम करना है।

इस मिशन का उद्देश्य कुपोषण को समाप्त करने हेतु विभिन्न योजनाएं बनाना तथा इस कार्य के लिए एक मज़बूत तंत्र स्थापित करना है। इस मिशन की अभिकल्पना नीति आयोग द्वारा राष्ट्रीय पोषण रणनीति के तहत की गई है। इस रणनीति का उद्देश्य वर्ष 2022 तक कुपोषण मुक्त भारत बनाना है लेकिन इस कार्यक्रम के कार्यान्वयन असर तो अब तक दिख नहीं रहा है।

यह एक दुर्भाग्यपूर्ण आंकड़ा है कि जुलाई, 2019 तक राज्य और केंद्र शासित प्रदेश की सरकारों ने इस मिशन के तहत आवंटित धन का केवल 16 प्रतिशत ही उपयोग किया था। इस मिशन के अलावा पहले से चल रहे आंगनबाड़ी और मिड-डे मील जैसी योजना कुपोषण से निपटने में कारगर साबित हो सकती थी लेकिन हर स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार ऐसा होने नहीं देती है।

कुपोषण के रहते कैसे विकसित बनेगा भारत?

एक कहावत है कि ‘चाइल्ड इज़ द फादर ऑफ फ्यूचर’, यानी आज के स्वस्थ व सुपोषित बच्चे ही कल को स्वस्थ नागरिक बनेंगे, इसलिए यह बहुत ही ज़रूरी है कि बच्चों में कुपोषण की समस्या का जल्द-से-जल्द समाधान किया जाए, क्योंकि कुपोषण के कारण मानव उत्पादकता कम हो जाती है, जो सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को कम कर सकता है।

इसके लिए देश की गरीब आबादी तथा अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व पिछड़े वर्ग के बच्चों के पोषण के लिए जागरूकता के साथ-साथ विशेष व्यवस्था करने की ज़रूरत है। साथ ही इस मुद्दे के मूल कारणों में सामाजिक/सांस्कृतिक/लैंगिक भेदभाव भी प्रमुख हैं, इनकी पहचान के बिना कुपोषण की समस्या से पार पाना कतई संभव नहीं है।

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