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“दोनों पड़ोसी देशों में पूंजीवाद से शिक्षा को मुक्त कराने की लड़ाई चरम पर है”

आज उपमहाद्वीप एक बड़े और महत्वपूर्ण बदलाव की गवाही दे रहा है। फासिस्ट और सांप्रदायिक सत्ताधारियों के सान्निध्य में बुर्जुआ आधिपत्य और पूंजीवाद की बेड़ियों से शिक्षा को मुक्त करवाने की लड़ाई दोनों पड़ोसी मुल्कों में चरम पर है।

यह लड़ाई यथा स्थितिवाद से प्रभावित शब्दावली से पटी पड़ी राजनीति को नए शब्द, नए नारे ही नहीं दे रही है, बल्कि आज की राजनीति की प्राथमिकता भी तय कर रही है।

इस आंदोलन की सबसे खास बात यह है कि इसमें शिक्षा के क्षेत्र से ताल्लुक रखने वाले लोग मसलन छात्र- छात्राएं, शिक्षक और सिविल सोसायटी के लोग ना सिर्फ भारी संख्या में सड़कों पर उतर रहे हैं, बल्कि बड़ी मुखरता से अपनी मांगों को मौजूदा सत्ता के समाने पेश कर रहे हैं।

जहां एक ओर दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षकों और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्टूडेंट्स ने कुलपति कार्यालय की उन इमारतों पर अपना कब्ज़ा जमा लिया है, जहां से आज की हुकूमत की शिक्षा को बेचने के नापाक मंसूबों पर मुहर लगाकर फरमान निकाले जाते हैं, वहीं दूसरी ओर पड़ोसी मुल्क के स्टूडेंट और शिक्षकों ने उन सड़कों पर अपना कब्ज़ा जमा लिया है, जो उनसे तीन दशक पहले राजनीति करने के हक को छीने जाने की वजह से सूनी हो गई थीं।

एशिया जल्द ही सुर्ख होने जा रहा है

पाकिस्तान में प्रोटेस्ट करते स्टूडेंट्स। फोटो सोर्स- सोशल मीडिया

इस लड़ाई की खूबसूरती इसमें भी है कि प्रतिरोध के एक स्वर को ना सिर्फ सरहद के भीतर बल्कि बाहर से भी समर्थन और सराहना मिल रही है। यह हौसला मिल रहा है कि हम सब इस लड़ाई में एक हैं। कहा जा रहा है कि एशिया जल्द ही सुर्ख होने जा रहा है।

देश को “विश्वगुरु” बनाने के फर्ज़ी दावे करने वाली हुकूमत ने अपने मुल्क के एक बेहतरीन संस्थान दिल्ली विश्वविद्यालय के पांच हज़ार शिक्षकों के भविष्य पर ना सिर्फ तलवार लटका दी है, बल्कि उनकी अस्मिता पर भी गहरी चोट की है।

प्रोटेस्ट करते DU के शिक्षक। फोटो सोर्स- सोशल मीडिया

शिक्षक की ‘नौकरी’ किसी आम सरकारी वाइट कॉलर नौकरी नहीं होती, शिक्षक सभ्यताओं का निर्माण करते हैं, भविष्य की दिशा तय करते हैं। उन शिक्षकों को सर-आंखों पर बिठाने की बजाय सड़क पर लाने की सरकारी साज़िश के खिलाफ शिक्षक सच में सड़कों पर निकल आए हैं। ये बेखौफ शिक्षक अपने छात्र-छात्राओं, अपनी आने वाली पीढ़ियों को संघर्ष का पाठ पढ़ा रहे हैं।

इन्हीं के नक्शे कदम पर चल रहे जेएनयू और आईआईएमसी के छात्र-छात्राएं अपनी “सबके लिए निशुल्क शिक्षा” सुनिश्चित करवाए जाने की मांग को लेकर महीने भर से चली आ रही लड़ाई से एक कदम भी पीछे हटने को तैयार नहीं हैं।

यह लड़ाई सीधे पूंजीवाद परस्त हुकूमत से लड़ी जाएगी

IIMC में फीस वृद्धि के खिलाफ प्रोटेस्ट करता छात्र। फोटो सोर्स- हृषिकेश शर्मा की फेसबुक वॉल से

बेहतरीन तालमेल है सीखने वालों और सिखाने वालों के बीच। यह लड़ाई अब विश्वविद्यालयों के बाहर सड़कों से लेकर संसद तक, सीधे पूंजीवाद परस्त हुकूमत से लड़ी जाएगी। पूंजी के हाथों शिक्षा को बाज़ार में बेचा जाना, फीस में बढ़ोतरी, छात्र संघों-यूनियनाइज़ेशन पर रोक लगाना, शिक्षकों पर पाबंदियां लगाना, यह सब सत्ता के कॉर्पोरेट परस्त होने के संकेत तो देते ही हैं, साथ ही पब्लिक फंडेड संस्थानों के माध्यम से धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक शिक्षा को खत्म करने की भी क्रूर साज़िश की ओर भी इशारा करते हैं।

यह साझा आंदोलन उपमहाद्वीप के राजनीतिक इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण आंदोलन हो सकता है, जो इस सदी का भविष्य भी तय करेगा। इन आंदोलनों में पूंजीवादी, साम्राज्यवादी देशों द्वारा मृत बताई गई समाजवादी-साम्यवादी राजनीति के उपमहाद्वीप पर व्यापक पैमाने पर स्थापित होने की आहट साफ सुनाई दे रही है। इतिहास गवाह है जब-जब स्टूडेंट्स और शिक्षक सड़कों पर उतरे हैं, तानाशाही हुकूमतें धाराशाई हुई हैं। सभी संघर्षरत साथियों को इंकलाबी सुर्ख सलाम।

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