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क्या भारत की 45 प्रतिशत ज़मीन हो चुकी है खराब?

पर्यावरण शब्द संस्कृत भाषा के ‘परि’ उपसर्ग (चारों ओर) और ‘आवरण’ से मिलकर बना है। इसका अर्थ है-ऐसी चीज़ों का समुच्चय, जो किसी व्यक्ति या जीवधारी को चारों ओर से आवृत्त किए हुए हैं। पारिस्थितिकी और भूगोल में यह शब्द अंग्रेजी के environment के पर्याय के रूप में इस्तेमाल होता है।

‘Environment’ फ्रांसीसी भाषा से उद्धृत शब्द है, जहां इसे ‘state of being environed’ के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। इस शब्द का पहला ज्ञात प्रयोग कार्लाइल द्वारा जर्मन शब्द ‘Umgebung’ के अर्थ को फ्रांसीसी में व्यक्त करने के लिए किया गया था। हमारी धरती और इसके आसपास के कुछ हिस्सों को पर्यावरण में शामिल किया जाता है, इसमें सिर्फ मानव ही नहीं, बल्कि जीव-जंतु और पेड़-पौधे भी शामिल किये गये हैं। यहां तक कि निर्जीव वस्तुओं को भी पर्यावरण का हिस्सा माना गया है।

सरल शब्दों में कहें, तो धरती और इसके आस-पास मौजूद वातावरण में जिन चीज़ों को भी हम देखते और महसूस करते हैं, वह हमारे पर्यावरण का ही हिस्सा है। इनमें मनुष्य, जीव-जंतु, पहाड़, चट्टान जैसी चीज़ों के अलावा हवा, पानी, ऊर्जा आदि सब कुछ शामिल है।

पर्यावरण सुरक्षा बनाम आर्थिक लाभ

हमारे शास्त्रों के अनुसार मानव जीवन के आचरण का मूल मंत्र ‘धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष’ को बताया गया है। इसके अनुसार हमारे जीवन में धर्म का स्थान सर्वोपरि है। लेकिन यहां धर्म का अर्थ हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन आदि धर्मों से नहीं है, बल्कि धर्म का तात्पर्य पर्यावरण, शांति एवं सौहार्द से है।

कहा गया है कि धर्म के लिए हमें अपने अर्थ का त्याग करना चाहिए और अर्थ के लिए काम को त्याग देना चाहिए। जो इंसान ऐसा करता है, वहीं मोक्ष प्राप्त कर सकता है। कहने का अर्थ यह है कि है कि पर्यावरण की रक्षा करने के लिए हमें आर्थिक लाभ के मोह को त्याग देना चाहिए, पर अफसोस कि ऐसा हो नहीं रहा।

विकास की अंधी दौड़ में आज हम इतना आगे निकल चुके हैं कि शायद पीछे लौटना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। जो विशाल आबादी हमने खड़ी कर ली है, उसे बेवजह मार तो सकते नहीं, तो अब आबादी है, तो उसकी ज़रूरतें भी होंगी और ज़रूरतें हैं, तो उन्हें पूरी करने की कोशिश भी होगी। ऐसे में सोचने वाली बात यह है कि आज धरती पर जितनी आबादी है, क्या हमारा पर्यावरण उसकी ज़रूरतें पूरी करने में सक्षम नहीं है?

इस संदर्भ में एक उदाहरण देना चाहूंगी। मान लें किसी घर के बाहर एक नीम का पेड़ है, जो उस घर के आसपास की आबोहवा को शुद्ध करता है। घर के मालिक को उस जगह पर एक दुकान बनानी है। अब यह उसके विवेक पर निर्भर करता है कि वह दुकान बनाने के लिए उस नीम का पेड़ को काट दे या फिर दुकान का आकार कुछ इस तरह का बनाये, जिससे कि पेड़ भी ज़िंदा रहे और दुकान भी बन जाये।

उसे यह सोचना चाहिए कि छोटी दुकान बनाने से जितनी आय की हानि होगी, उससे कहीं ज़्यादा लाभ एक पेड़ को बचाने से हो सकता है। क्योंकि पेड़ की आयु अपेक्षाकृत लंबी होती है। वह लंबे समय तक पर्यावरण को शुद्ध रखेगा। फलत: बीमारियां कम होगी। लोग स्वस्थ रहेंगे, तो उनकी कार्य क्षमता में वृद्धि होगी और वे अधिक उत्पादन कर पायेंगे।

अफसोस कि आज लोगों के पास इतना सोचने के लिए वक्त ही कहां हैं। उन्हें तो बस विकास की अंधी दौड़ में शामिल होना है। वह विकास, जिसका कोई आदि-अंत नहीं है। जो उच्च महत्वाकांक्षाओं और अनंत इच्छाओं की नींव पर खड़ा है। जिसमें ‘पाना और सिर्फ पाना’ ही एकमात्र लक्ष्य है। ऐसे में देने की कौन सोचे-फिर चाहे वह समय हो, सुरक्षा हो या फिर थोड़ी-सी देखभाल।

सम्मेलन, सेमिनार और कार्यशालाएं, पर नतीजा वही ढाक के तीन पात

पर्यावरण के संरक्षण एवं विकास को लेकर पूरी दुनिया में न जाने कितने संघ, संगठन और मंत्रालय कार्य कर रहे हैं। ‘पर्यावरणीय समस्याओं’ पर चर्चा के लिए नियमित रूप से विकसित एवं विकासशील देशों के वैश्विक सम्मेलन भी होते रहते हैं, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात।

भारत सरकार द्वारा जारी स्टेट ऑफ द इन्वायरमेंट रिपोर्ट-2009 में बताया गया था कि देश की कुल ज़मीन में 45 प्रतिशत ज़मीन खराब (degraded) हो चुकी है। देश के सभी शहरों में हवा का प्रदूषण भी बढ़ रहा है और वनस्पतियों तथा पशु पक्षियों की प्रजातियां भी तेज़ी से विलुप्त हो रही हैं। रिपोर्ट कहती है कि भारत अपने कुल जल संसाधन का जितना पानी प्रयोग कर सकता है उसका 75 प्रतिशत इस्तेमाल कर रहा है।

भारत दुनिया का 17वां बहुविविधता वाला देश है लेकिन अब देश की प्राकृतिक विविधता का दस प्रतिशत से ज़्यादा हिस्सा खतरे के निशान के पास पहुंच गया है। अगर अब भी हम नहीं चेते, तो आनेवाली भीषण तबाही को रोकना नामुमकिन होगा। जल्दी ही सब खत्म हो जायेंगे।

रिपोर्ट में इसका मुख्य कारण बताते हुए कहा गया है कि जिस तरह से देश में जैव-विविधता के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है, प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया जा रहा है उससे पशु पक्षियों के साथ ही पर्यावरण की विविधता पर खतरा मंडरा रहा है।

हालांकि दुनिया के कुल ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में भारत का हिस्सा 5 फीसदी ही है, लेकिन आज देश में रहनेवाले डेढ़ अरब लोगों पर पर्यावरणीय बदलावों का खतरा मंडरा रहा है। जलवायु परिवर्तन का सीधा प्रभाव देश की खेती और उत्पादन प्रणाली पर पड़ रहा है जिसके बहुत भयावह परिणाम निकलने की आशंकाएं बढ़ती जा रही हैं।

विकास और पर्यावरण के संतुलन को बनाये रखने के लिए निम्न सुझावों पर अमल किया जा सकता है।

1. सबसे ज़रूरी है पेड़ लगाना, ताकि दिन-ब-दिन प्रदूषित होती आबोहवा को ज़हरीले स्तर तक पहुंचने से रोका जा सके। जो लोग अपार्टमेंट में रहते हैं, वे अपने घर की बालकनी या छतों पर गमलों में ऐसे कई पौधे लगा सकते हैं, जो हवा को शुद्ध करने का काम करते हैं, जैसे- garden mum, spide plant, Ficus plant, Boston fern, Snake palnt आदि।

2. वैसे पौधे लगाएं, जिन्हें कम पानी की ज़रूरत पड़ती है, जैसे कि- Aelovera, Rubber plant, cast iron plant, Bougainvillea, Portulaca,Verbena, Lantana, Sage, Poppy, Oleander, Sedum, Adenium आदि। पानी कम सोखने के कारण ये पौधे सूखा प्रभावित क्षेत्रों के लिए बेहद उपयोगी साबित हो सकते हैं।

3. वर्षा जल संचयन (rain aater conservation) की नई तकनीकों का विकास करना और लोगों में इस बारे में जागरूकता फैलाना, ताकि सिंचाई आधारित प्रणाली पर हमारी निर्भरता कम-से-कम हो जाये।

4. अगर आपके आस-पास ऐसी कोई ज़मीन नहीं हो, जहां आप पेड़-पौधे लगा सकें, तो आप इसके लिए गमलों का उपयोग कर सकते हैं। ऐसे कई लोग हैं, जो आज अपने छतों पर ही फसलों की खेती कर रहे हैं। अब तो हाइड्रोपोनिक्स तकनीक के ज़रिये बिना मिट्टी या नाम मात्र की मिट्टी में भी अच्छी खेती की जा सकती है।

5. उद्योगों से निकलने वाले अवशिष्ट पदार्थों के रिसाइकिल करना, खासकर वैसे अपशिष्टों का जिनके अपघटन में काफी अधिक समय लगता है। जानकारी के लिए बताऊं कि एक शीशे की बोतल को पूर्ण रूप से अपघटित होने में अमूमन चार हज़ार साल तथा प्लास्टिक बोतल के अपघटन में एक हज़ार साल का समय लग जाता है। ऐसे में इन्हें जितना और जिस हद तक रिसाइकल करके दोबारा यूज़ किया जा सके, उतना बेहतर है।

6. जहां तक जल स्रोतों की बात है, तो राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी) नागपुर के वैज्ञानिकों फाइटो नामक एक पौधा तैयार किया है, जो गंदगी युक्त पानी को सोखता है और साफ पानी छोड़ता है। इसी तरह और भी करीब 27 प्रजातियों के अलग-अलग पौधों के समूह हाइड्रोफाट्स को प्लांट में लगाया जाता है। पौधे जहां लगाये जाते हैं, वहां मिट्टी की जगह गिट्टी डाले जाते हैं। सीवरेज का पानी प्लांट में पहुंचने पर इन पौधों की जड़ें पानी में घुले नाइट्रेट और फास्फेट को अवशोषित कर लेते हैं। गिट्टी भी पानी को फिल्टर करने का काम करता है।

7. प्रदूषित पानी की दिशा में काम करना बेहद ज़रूरी है। एक अनुमान के मुताबिक एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में करीब एक अरब व्यक्ति अपनी रोज़मर्रा की ज़रूरतों के लिए गंदे स्रोतों से प्राप्त पानी को उपयोग करने के लिए मजबूर हैं। इस वजह से हर साल लगभग 20-30 लाख लोग प्रदूषित पानी से होने वाली बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में आसानी से उपलब्ध सहजन (drum stick) नामक पौधे के बीज से पानी को काफी हद तक शुद्ध करके पेयजल के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।

8. वायु प्रदूषण को रोकना ज़रूरी है। वायु प्रदूषण आज के समय की एक विकट समस्या है और इसका एक बहुत बड़ा कारण है फैक्ट्रियों और गाड़ियों से निकलने वाला धुआं है। इस धुएं में सल्फर-डाई-ऑक्साइड की मात्रा होती है, जो कि पहले सल्फाइड व बाद में सल्फ्यूरिक अम्ल (गंधक का अम्ल) में परिवर्तित होकर वायु में बूंदों के रूप में परिणत हो जाती है। जब यह वर्षा धरती पर गिरती है जिसमें भूमि की अम्लता बढ़ती है और उत्पादन-क्षमता कम हो जाती है। साथ ही, यह ओज़ोन परत के क्षरण के लिए भी उत्तरदायी है, जिसकी वजह से कैंसर जैसा रोग हो सकता है। इससे बचने के लिए एक उपाय है कारपूलिंग करना और दूसरा उपाय है, ईंधन की आवश्यकता पूर्ति के लिए सौर ऊर्जा स्रोतों का अधिकाधिक उपयोग करना।

अंतत: हमें यह समझना होगा कि स्वच्छता, स्वास्थ्य और देश का विकास एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। स्वच्छता से स्वास्थ्य एवं स्वास्थ्य से समृद्धि के अतिरिक्त स्वच्छता एवं सफाई से देश विश्व में पर्यटन मानचित्र पर अपनी असल पहचान बन सकती है। अस्वच्छता के कारण देश की उत्पादक क्षमता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है, क्योंकि बीमारी के कारण ‘मानव पूंजी’ का उचित निर्माण नहीं हो पाता।

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