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पीरियड चैंपियन्स, जिन्होंने टैबू के साथ-साथ समाज में चुप्पी भी तोड़ी

इस साल के शुरुआत में एक खबर पढ़ने को मिली। खबर नेपाल की थी, जहां एक महिला और उसके दो बच्चों की मौत हो गई है। दरअसल, उन तीनों की मौत दम घुटने के कारण हुई। ठंड का मौसम था और वह महिला अपने घर से बाहर अपने दोनों बच्चों के साथ एक झोपड़ी में थी। रात को जब ठंड ज़्यादा बढ़ी तो महिला ने झोपड़ी के अंदर अलाव जलाया, जिसके धुएं के कारण उन तीनों की मौत हो गई।

प्रतीकात्मक तस्वीर

सवाल यह उठता है कि कड़ाके की ठंड में वह महिला घर से बाहर झोपड़ी में गई क्यों थी। जवाब है, एक प्रथा के कारण। यह प्रथा (जो कि भारत में भी मौजूद है) कहती है कि अगर महिला को पीरियड्स हो रहे हैं, तो वह घर, मंदिर और किसी भी वस्तु या इंसान को छूने से वर्जित रहेगी। 4 -5 दिन वह अलग रहेगी।

नेपाल की वह महिला भी उसी प्रथा को निभा रही थी।

82 फीसदी महिलाएं पीरियड्स में गंदा कपड़ा और राख उपयोग करती हैं

हमारे देश भारत में 35 करोड़ 5 लाख लोगों को माहवारी यानी कि पीरियड्स होते हैं। फिर भी हम आज भी पीरियड्स पर बात करने से कतराते हैं। हमें समझना होगा कि पीरियड्स महीने के सिर्फ 3-5 दिनों के बहते खून की बारे में नहीं है। यह एक महिला या हर वह व्यक्ति जिसे पीरियड्स होते हैं, उसके स्वास्थ के बारे में है।

एक रिपोर्ट के अनुसार 13% लड़कियों का माहवारी के कारण स्कूल जाना बंद हो जाता है। FOGSI (The Federation Of Obstetric & Gynecological Societies Of India) ने कहा है कि देश की सिर्फ 18 फीसदी महिलाएं और लड़कियां ही माहवारी के दौरान सेनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल करती हैं जबकि 82 फीसदी महिलाएं आज भी पुराना कपड़ा, घास और यहां तक कि राख जैसी खतरनाक और अस्वच्छ चीज़ें अपनाने को मजबूर हैं।

संसाधनों की कमी के अलावा जागरूकता भी पीरियड्स से जुड़ा एक मुद्दा है। आपको जानकर हैरानी होगी कि देश में कई युवतियों को अपने पहले मासिक धर्म के बारे में कोई जानकारी नहीं होती। इन आंकड़ों में ट्रांस समुदाय के लोग दूर-दूर तक शामिल नहीं है। जबकि समस्याएं उनके साथ और भी ज़्यादा हैं।

स्वास्थ, मानसिक तनाव और ज़िंदगी से जुड़े तमाम हिस्सों को प्रभावित करती माहवारी के प्रति आज भी हमारे समाज में बहुत सारी गलतफहमियां और भ्रांतियां मौजूद हैं लेकिन इसी देश में ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने इस समस्या का समाधान निकालने में अनूठी पहल की है।

आईए मिलते हैं 2019 के पीरियड चैंपियंस से, जिन्होंने इस मुद्दे को मुख्यधारा में लाया और चर्चा का एक नया पैमाना तय किया।

1. मौसम कुमारी-  जो गाँव-गाँव जाकर महिलाओं को कर रही हैं जागरूक

मौसम कुमारी रजौली प्रखंड गाँव (बिहार) की एक ऐसी युवा हैं, जिन्होंने माहवारी, बाल-विवाह, परिवार नियोजन और जेंडर वायलेंस पर बहुत काम किया है, लेकिन मौसम खुद कभी इन सारे विषयों को गंदा समझती थीं।

गाँव में महिलाओं को माहवारी स्वच्छता प्रबंधन पर वर्कशॉप देती मौसम

कुछ साल पहले मौसम ने एक वर्कशॉप में भाग लिया जहां माहवारी, बाल-विवाह और परिवार नियोजन जैसे विषयों पर बात की जा रही है। तब मौसम ने झिझक में सवाल किया कि हमें इन विषयों को जानने की क्या ज़रुरत है? उस वक्त मौसम की तरह गाँव की काफी लड़कियों को लगा कि यह विषय गन्दा है।

वर्कशॉप दे रही यूथ लीडर ने उनकी शर्म को समझा और  उन्हें एक घर लेकर गईं जहां एक सोलह साल की लड़की की मृत्यु हो गयी थी। वजह थी कि उस लड़की के दो साल के अंदर दो बच्चे पैदा हुए थे, जिससे उसका शरीर टूट चुका था। उस वक्त के बाद से मौसम ने विषय की गंभीरता को समझा और उसके बाद उन्होंने गाँव-गाँव जाकर कार्यशालाएं देना शुरू किया।

वे आज एक यूथ लीडर हैं, जो पिछले तीन सालों से महिला स्वास्थ्य पर चर्चा करती है। मौसम ग्राम मंडल के राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम का हिस्सा है जो घर-घर जाकर गाँवों और कस्बों की महिलाओं को स्वास्थ्य के लिए शिक्षित करता है।

2. एक कॉमिक आर्टिस्ट जिसने पीरियड डिस्कशन को अनोखा मंच दिया

समाज में फैले टैबूज़ को तोड़ते हुए रचिता तनेजा ने एक ऐसे प्लैटफॉर्म की शुरुआत की जिसने महिलाओं की समस्या और आवाज़ को सामने रखा। इस प्लैटफॉर्म का नाम है Sanitary Panels.

यह एक ऐसी वेब कॉमिक है जिसमें रचिता ने बड़ी क्रियेटिविटी से महिलाओं के लिए सामाजिक और राजनीतिक पहलुओं पर बात करने की जगह दी है।

देखिए, सैनेटरी पैनल्स के ये कार्टून्स।

फोटो साभार- Sanitary Panels फेसबुक पेज

3. फिल्म पैडमैन से प्रेरित हुई चित्रांश की टीम

फिल्म पैडमैन देखकर यूपी में बरेली के रहने वाले एक स्टूडेंट चित्रांश सक्सेना इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने पैडबैंक की शरुआत की। इसमें छात्र-छात्राएं हैं, जो इस अनोखे बैंक का काम संभालते हैं। ये सभी स्टूडेंट्स अलग-अलग कॉलेज से पढ़ाई कर रहे हैं।

टीम पैडबैंक

ये गॉंव और शहरों के आसपास घरों में जाकर महिलाओं और लड़कियों को जागरूक कर उन्हें मुफ्त में सैनेटरी पैड देते हैं और इस्तेमाल के लिए प्रेरित करते हैं।

पैडबैंक अधिकतर गॉंव के स्कूलों का दौरा करता है। वहां टीनएजर्स को वर्कशॉप के ज़रिये पीरियड्स के बारे में जागरूक करता है। वर्कशॉप के बाद उन बालिकाओं की पहचान की जाती है, जो सैनेटरी पैड्स खरीदने में सक्षम नहीं हैं। इसके बाद उन्हें एक पासबुक दी जाती है, जो कि पैडबैंक की अनोखी पासबुक होती है। इसके ज़रिये वे मुफ्त में सैनेटरी पैड्स पा सकती हैं।

हर महीने उन बालिकाओं तक आठ सैनेटरी पैड्स पहुंचाए जाते हैं। यहां तक की ये ग्रामीण एवं झुग्गी झोपड़ी के लोगों को पीरियड्स में साफ-सफाई और सैनेटरी पैड्स के फायदों के बारे में बताते हैं एवं उनका पैडबैंक में खाता खोलकर उन्हें पासबुक देते हैं। इसमें उनके निशुल्क पैड लेने का विवरण होता है।

4. पीरियड्स के प्रति जागरूकता को पाठ्यक्रम तक लाने वाली अदिति

अदिति गुप्ता Menstrupedia की सह-संस्थापक हैं। यह एक ऐसा कॉमिक है जिसे देश के 5 राज्यों में पढ़ाया जाता है। इस कॉमिक के ज़रिए अदिति ने पीरियड्स से जुड़ी तमाम भ्रांतियों को सामने रखा है।

फोटो साभार- Menstrupedia फेसबुक पेज

शुरुआती दौर में इन कॉमिक्स को लेकर अदिति, मेहसाना, गाँधी नगर, अहमदाबाद और रांची के स्कूलों में गईं जहां लड़कियों, उनके अभिभावक और शिक्षकों ने इन्हें काफी पसंद किया। अदिति की तैयार की गई सामग्री का इस्तेमाल उत्तर भारत के पांच राज्यों के स्कूलों में हो रहा है। इतना ही नहीं उनके इस काम के लिए उन्हें फोर्ब्स इंडिया ने 30 अंडर 30 की सूची में शामिल किया गया है।

Menstrupedia में चित्रों के ज़रिये अदिति ना सिर्फ पीरियड्स के प्रति जागरूकता फैलाने का काम कर रही हैं, बल्कि इन कॉमिक्स के ज़रिए उन्होंने लोगों के साथ एक बातचीत का माहौल तैयार किया है।

5. पहाड़ के दुर्गम इलाकों तक स्वच्छ माहवारी प्रबंधन करती विशाखा

विशाखा उत्तराखंड में Wings of hope नाम की संस्था की सह-संस्थापक हैं। इनका लक्ष्य है कि पीरियड्स की वजह से किसी भी लड़की को स्कूल ना छोड़ना पड़े और ना ही कोई महिला अस्वच्छ और हानिकारक विकल्पों का उपयोग करे।

विशाखा ने उत्तराखंड के दुर्गम गाँवों और स्कूलों में जाकर लड़कियों को जागरूक किया। सिर्फ यही नहीं उन्होंने महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए कुछ ग्रुप भी बनाए जहां वे खुद से सैनेटरी नैपकिन्स बनाती हैं।

विशाखा महिलाओं को माहवारी प्रबंधन के बारे में बताते हुए

6. सिर्फ महिलाओं को ही नहीं है पीरियड्स के दौरान समस्याएं

पीरियड्स पर बात करना आज भी चुनौती भरा काम है, यह हम सब जानते हैं लेकिन जहां बात ट्रांस समुदाय की आती है, यह चुनौती और बड़ी हो जाती है।

इसी चुनौती का सामना करते हुए पटना शहर की रेशमा सामने आई हैं। रेशमा स्वयं एक ट्रांस वुमेन हैं। उन्होंने पटना में ‘दोस्ताना सफर’ नाम के एक संगठन की स्थापना की जिसके ज़रिये वे किन्नर समुदाय की हक की लड़ाई लड़ रही हैं।

एक कार्यक्रम के दौरान रेशमा

उनका संगठन  रियूज़ेबल पैड बनाता है। इन पैड्स को एक बार यूज़ करने के बार इन्हें साबुन या डिटर्जेंट से अच्छी तरह धोने और धूप में सुखाने के बाद दोबारा भी यूज़ किया जा सकता है।

इन पैड्स को बनाने के पीछे रेशमा का लक्ष्य महिलाओं को पीरियड्स के दौरान स्वच्छता के साथ-साथ पर्यावरण को भी बचाना था। दरअसल, प्लास्टिक से बने आम पैड्स पर्यावरण और कूड़ा उठाने वाले लोगों के स्वास्थ पर बहुत बुरा असर डालते हैं। इसी बात को ध्यान में रखते हुए रेशमा ने  रियूज़ेबल पैड का काम किया।

रेशमा का इस दिशा में आगे बढ़ना ट्रांस समुदाय के लोगों के लिए प्रेरणा तो है ही लेकिन उसके साथ-साथ समाज के बाकी लोगों की भी गलत धारणाओं को तोड़ा है।

सेनिटरी नैपकिन या पीरियड में कोई स्वच्छ विकल्प ना होने के कारण महिलाओं को जानलेवा बिमारी होने की संभावना बनी रहती है। सिर्फ सेनिटरी नैपकिन ही नहीं देश में पीरियड फ्रेंडली शौचालयों की कमी भी इन बिमारियों को और पैर पसारने की जगह देती है।

शौचालयों और उसमें सुविधाओं की कमी से माहवारी के दौरान किसी भी महिला या व्यक्ति को कई शारीरिक और मानसिक परेशानियों का सामना करना पड़ता है। ऐसे में इन जैसे चैंपियंस के कार्य पीरियड्स से जुड़े टैबूज़ को तोड़ने में एक अहम भूमिका निभाते हैं।

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