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“प्याज़ की तरह वित्तमंत्री यह भी ना कह दें कि मैं गरीब नहीं, मुझे गरीबी से क्या मतलब”

मैंने संसद के उस दृश्य को कई बार देखा है, जिसमें वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण प्याज़ पर बहस के दौरान किसी सांसद के टोकने पर जवाब दे रही हैं,

मैं प्याज़-लहसुन नहीं खाती‌, इसलिए मुझे प्याज़ के दाम से कोई फर्क नहीं पड़ता।

उनका यह बयान बेहद मासूमियत से दिया गया था। मैं उन पर कोई दोषारोपण नहीं करने जा रहा हूं। मगर मेरी भी मासूमियत भरी एक जिज्ञासा तो है ही कि वह बताएं कि जब वह जेएनयू की छात्रा थीं, तो वहां हॉस्टल के मेस में रोज़ परोसी जाने वाली लहसुन-प्याज लिपटी सब्ज़ी के प्रति उनका रवैया क्या होता था?

निर्मला सीतारमण। फोटो सोर्स- Getty

इस बयान को लेकर निर्मला सीतारमण खूब ट्रोल हो रही हैं। एक ने तो यह तक कहते हुए उन पर निशाना साधा कि वह वित्तमंत्री की हैसियत से शायद यह कहकर कहीं देश की भयावह गरीबी से हाथ ना धो लें कि मैं गरीब नहीं हूं, इसलिए मुझे गरीबी से क्या मतलब?’

वाकई, देश के लाखों परिवार में रोज़मर्रा के इस्तेमाल में आने वाले एक आवश्यक खाद्य सामग्री को लेकर जब पूरे देश में हाहाकार मची हुई हो तो संसद के भीतर वित्तमंत्री के इस बयान को किसी भी कोने से औचित्यपूर्ण नहीं कहा जा सकता है।

वित्तमंत्री को यह बिल्कुल छूट नहीं होनी चाहिए कि वह जन-हित के मामले में उठे किसी ज्वलंत सवाल को अपने निहायत निजी आचरण का मिसाल देकर हास्यास्पद बना दे।

इसलिए, सीतारमण जी आपकी लाख मासूमियत के बावजूद आप यह जानिए कि संसद में आपका यह बयान प्याज़ की कीमतों में लगी भीषण आग से आक्रांत लाखों परिवार के ज़ख्म पर नमक छिड़कने से ज़रा भी कम नहीं है।

अब ज़रा असल सवाल पर आया जाएं। देशभर में आज प्याज़ 90 रुपए से लेकर 150 रुपए तक के बीच बेतहाशा बढ़े हुए मूल्य पर बिक रहा है। मूल्य में इस असामान्य बढ़ोतरी का सबसे बड़ा कारण बताया जा रहा है महाराष्ट्र में अतिवृष्टि। वहां प्याज़ की अधिकांश फसल नष्ट हो गई है ऐसा बताया जा रहा है।

ध्यान रहे कि प्याज़ के कुल राष्ट्रीय उत्पादन में अकेले महाराष्ट्र का योगदान 30 से 40 प्रतिशत के बराबर है। ज़ाहिर है, इतने बड़े पैमाने पर प्याज़ उत्पादक राज्य जब अतिवृष्टि का शिकार हो जाए तो देशभर में उसकी उपलब्धता को लेकर हाहाकार मचेगा ही। इस हाहाकार का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि भारत में रोज़ाना खाए जाने वाले प्याज़़ की मात्रा 50 हज़ार क्विंटल के लगभग है।

बिचौलियों का कारनामा

परंतु कोई है जो इस हाहाकार में भी आनंद के भवसागर में गोते लगा रहा है और उसकी चर्चा भी नहीं हो रही है। वह है, हमारे संपूर्ण बाज़ार तंत्र का सबसे कुख्यात पात्र- बिचौलिया। जब किसी वस्तु का अकाल पड़ता है तो एक सामान्य परिदृश्य तुरंत उभरकर सामने दिखने लगती है यानी बाज़ार से वह वस्तु छू मंतर की तरह तुरंत गायब हो जाती है।

बिचौलिए बचे खुचे माल को दबाकर बैठ जाते हैं। बेतहाशा ब्लैक में वह वस्तु मिलती भी है, तो चोरी-छिपे दुकानों के पिछवाड़े से। परंतु, प्याज़ के मामले में आज वस्तुस्थिति क्या है? मैं और शहरों की बात भले ना करूं मगर अपने शहर पटना जो कि प्रांतीय राजधानी भी है, के बारे में अधिकृत दावा तो कर ही सकता हूं।

यहां प्याज़ भले ही औसत 100 रुपए किलो के हिसाब से बिक रहा हो मगर खुले बाज़ार में प्याज़ आसानी से उपलब्ध है। दिखावा ही सही, बिस्कोमान भवन में सरकारी स्तर पर या फिर व्यक्तिगत स्तर पर जाप पार्टी के नेता पप्पू यादव को भी 35 रुपए किलो के रेट से बेचने के लिए प्याज़ आसानी से मिल जा रहे हैं।

बाज़ार से गायब नहीं हुई है प्याज़ की उपलब्धता

प्याज़ की प्रतीकात्मक तस्वीर

ज़ाहिर है, यह संकेत इस बात का खुलासा है कि अतिवृष्टि से महाराष्ट्र के किसानों की प्याज़-फसल को चाहे जितना नुकसान हुआ हो, बाज़ार में प्याज़ की उपलब्धता गायब नहीं हुई है। आपकी गांठ में यदि दम है तो आप आसानी से पर्याप्त मात्रा में प्याज़ मोल लेकर घर ले जा सकते हैं। ध्यान देने की बात है कि प्याज़ का बफर स्टॉक बनाने की बात सरकार अब कर रही है। एक खबर यह भी है कि सरकारी गोदामों में धरे हज़ारों टन प्याज़ सड़कर बर्बाद हो गए हैं। मतलब, प्याज़ के मामले में सरकार के हाथ तत्काल बिल्कुल खाली हैं।

इसके बाद भी बाज़ार में प्याज़ की उपलब्धता आसमान छूते दाम पर ही सही, यदि बनी हुई है तो साफ है कि बड़े पैमाने पर प्याज़ का स्टॉक कहीं-ना-कहीं सुरक्षित दबा पड़ा हुआ है। अब इस मोटे समीकरण को समझने के लिए बहुत सूक्ष्म समझ की ज़रूरत तो है नहीं। बस, बिचौलियों को याद कीजिए और बात आईने की तरह साफ हो जायेगी।

मगर प्याज़ के मामले में यह समझ सरकार को ही (जो लाखों मिल दूर चांद की सतह पर अपने दुर्घटनाग्रस्त विक्रम लैंडर के मलवे को ढूंढ़ लेने में सक्षम इसरो जैसी एजेंसी की मालिक हैं) सूझ नहीं रही है तो यह ‘बगल में बबुआ और मुहल्ला भर में ढिंढोरा’ वाली कहावत को चरितार्थ करना ही तो कहलायेगा ना।

जैसा कि मैंने बताया सरकार को सूझे या ना सूझे, यह मामला आईने की तरह साफ है। फसल के समय किसानों से मिट्टी के भाव खरीदे प्याज़ के बंबर स्टॉक अपने गोदामों में ठूंस कर देश के बिचौलिए इन्हीं ‘सुनहले’ दिनों की बांट जोहते रहते हैं। वे जानते हैं, वर्षा-देवता के मिज़ाज का कोई ठिकाना नहीं। आज अतिवृष्टि तो कल को शायद शून्य-वृष्टि! इन दोनों ही स्थिति में फसल का मारा जाना तय है।

यहीं पर बिचौलिए अपना खेल दिखाना शुरू कर देते हैं। सामान्य वर्षा के फलस्वरूप होने वाली अच्छी उपज को किसानों से मिट्टी के भाव खरीद कर और अपने गोदामों में ठूंसकर रखे उसके बंबर स्टॉक को सोना बरसाने वाली जिंस में बदलते उन्हें देर नहीं लगती है। इस बार यही हुआ है।

अतिवृष्टि की आड़ में उन्हें यह ‘सुनहला’ मौका बिन मांगे मुराद की तरह मिल गया है। उन्हें प्याज़ की भयावह किल्लत की चीख-पुकार मचाते देर नहीं लगी और देखते-देखते पिछले साल इन्हीं महीनों में महाराष्ट्र के किसानों से मुश्किल से डेढ़ से आठ रुपए तक खरीदे प्याज़ की कीमत आज वे सेव से भी ऊंची दर पर भारत की जनता से वसूल रहे हैं।

निर्मला सीतारमण जेएनयू जैसे भारत के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय से आर्थिक मामले की ही पढ़ाई पूरी करने वाली वित्तमंत्री हैं। फिर भी आज वह प्याज़ बिचौलियों के इस भोंडे अर्थशास्त्र को समझने में यदि खुद को समर्थ नहीं पा रही हैं, तो इसे जेएनयू की कमतरी के रूप में कतई नहीं देखा जाना चाहिए।

हमें प्याज़ संबंधी संसद में दिए उनके बयान के लिए उन्हें सार्वजनिक संपत्तियों को बड़ी तेज़ी से कॉरपोरेट घरानों के हाथों बेचने वाली मोदी सरकार में बैठी एक मजबूर वित्तमंत्री के रूप में देखना चाहिए। यानी वर्तमान शासन-व्यवस्था में बिचौलियों को अपने गोदामों में दबाये माल को संकट के नाम पर अब पिछवाड़े से नहीं, खुले बाज़ार में आसमान छूते भाव में बेचने में ज़रा भी भय का एहसास नहीं होता है।

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