विश्वविद्याल स्टूडेंट्स दिसंबर के मध्य से लेकर आखिरी समय में या तो अपनी परीक्षाएं खत्म करके घूमने की तैयारी कर रहे होते हैं या फिर कुछ अपनी आगे की पढ़ाई की प्लांनिग कर रहे होते हैं।
लेकिन इस साल दिसंबर में हर स्टूडेंट डरा हुआ है, लोकतंत्र के लिए लड़ रहा है। दोस्तों के साथ घूमने का मानो तो ख्याल ही नहीं आ रहा किसी के मन में। चाहे वे प्रोटेस्ट में शामिल रहे हों या नहीं, डर सबके ज़हन में समा गया है। मुझे लगता है कि एक स्टूडेंट ही स्टूडेंट की बात समझ सकता है।
15 दिसम्बर 2019 की शाम दिल्ली की जामिया यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले एक मित्र को मैंने फोन किया। उसने फोन उठाते ही कहा,
भाई मैं लाइब्रेरी में हूं। पुलिस वाले लाइब्रेरी में घुस आए हैं, बाद में बात करता हूं।
कुछ देर इंतज़ार करने के बाद जब दोबारा बात हुई तो वह काफी चिंतित और डरा हुआ था। उसने कहा,
भाई जहां बैठकर पढ़ते थे, वह जगह तो अब बर्बाद कर दी गई। छत पर था किसी तरह से जान बची है। घर वालों का फोन आया था। यहां हालात पता नहीं कब सही हो। मैं घर जा रहा हूं, कब आऊंगा पता नहीं।
वहीं दूसरी तरफ दिल्ली यूनिवर्सिटी की एक दोस्त से बात की और कहा कि चलो लाइब्रेरी में बुक वापस कर दी जाए, क्योंकि छुट्टियां पड़ने वाली है। तो उसका जवाब था कि मम्मी बाहर जाने से मना कर रही है।
इन सभी बातों से यह साफ ज़ाहिर होता है कि जामिया में 15 दिसंबर की शाम हुई घटना के बाद से सभी छात्र-छात्राएं व उनके अभिभावक किस तरह से डरे हुए हैं। सभी के मन में डर का माहौल बना हुआ है। सभी घर से निकलने से पहले 10 बार सोच रहे हैं कि कहीं मेट्रो अचानक बंद हो गई या रोड ब्लॉक हो गएं तो हम क्या करेंगे।
यहां कहानी सिर्फ मेरे दोस्तों या मेरी नहीं है, बल्कि विश्वविद्यालय में पढ़ने वाला हर स्टूडेंट इस समय डरा सहमा हुआ है। सिर्फ दिल्ली में ही देश के अन्य शहरों में भी विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले स्टूडेंट्स का यही हाल है।
यह सब देखकर यह मालूम होता है कि किसी जय प्रकाश नारायण को फिर से ज़िन्दा होने की ज़रूरत है और स्टूडेंट्स के माध्यम से देश की आवाज़ को ऊपर उठाने की ज़रूरत है।
लेकिन यह आसान नहीं है। कई कठिनाइयां हैं इसमें, अगर हालात यही रहें तो यह नामुमकिन भी नहीं है। स्टूडेंट्स में डर का माहौल लगातार बना हुआ है। वे अपने फ्लैट या पीजी के बाहर निकलने से कतरा रहे हैं। सभी जल्द-से-जल्द अपने घर पहुंचना चाहते हैं।
एक दोस्त ने व्हाट्सऐप पर स्टेटस पोस्ट करते हुए लिखा,
घर जाना चाह रहा था छुट्टियों में लेकिन असम की ट्रेन कैंसिल हो गई। हालात देखकर लगता है कि अब यही समय गुज़ारना पड़ेगा।
मेरा यह दोस्त दिल्ली यूनिवर्सिटी में मेरा क्लासमेट है।
कोई इस समय शांति का माहौल बनाने की ओर ध्यान नहीं दे रहा है। टीवी चैनल्स के एंकर यह सवाल उठा रहे हैं कि इस हिंसक प्रदर्शन का ज़िम्मेदार कौन? मुझे तो लगता है कि इन सबके ज़िम्मेदार वे स्वयं हैं। राजनीतिक पार्टियां अपनी रोटी सेकने में लगी हैं। निश्चित रूप से हमारे देश का लोकतंत्र खतरे में है। भारतीय लोकतंत्र एक नैतिक और संस्थागत संकट के दौर से गुज़र रहा है।
मैं किसी भी प्रकार की हिंसा का समर्थन नहीं करता हूं लेकिन अगर प्रदर्शन शांतिपूर्ण ठंग से करने दिया जाता, तो शायद ऐसा ना होता। क्या अब लोकतंत्र में हम अपनी आवाज़ उठाने का अधिकार खो चुके हैं?