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“पर्यावरण की लड़ाई को योजनाओं और कागज़ों से निकालकर ज़मीनी स्तर पर लाना होगा”

एक अभियान के तहत दो साल पहले मैं वायु प्रदूषण पर बात करने दिल्ली के श्रीनिवासपुरी स्थित एक झुग्गी में पहुंचा। वहां लोगों ने बताया कि हम ठंड के समय कचड़ा इसलिए जलाते हैं, ताकि हम ठंड से बच सके।

हम जानते हैं कि इसे जलाने से वायु प्रदूषित होती है लेकिन हमारे पास खराब धुआं और सर्दियों में ज़िन्दा रहने के बीच विकल्प का चुनाव करना पड़ता है, हम ज़िन्दा रहना चुन लेते हैं।

फोटो प्रतीकात्मक है।

झुग्गी के लोगों की बात तभी से मेरे दिमाग में जाकर अटक गई है। सवाल है कि दुनियाभर में आज पर्यावरण को बचाने और जलवायु परिवर्तन से निपटने की लड़ाई तेज़ हो गई है। अलग-अलग मोर्चे पर हज़ारों-लाखों लोग, संस्थाएं और देश पर्यावरण को बचाने की लड़ाई में भागीदार हैं। लेकिन हमें यह समझना होगा कि पर्यावरण बचाने की लड़ाई पर्यावरण के सिर्फ किसी एक मुद्दे के साथ नहीं लड़ी जा सकती है और ना ही यह टुकड़ों में लड़ी जा सकती है।

मुद्दा सिर्फ लोगों को जागरूक करने का ही नहीं है बल्कि पर्यावरण के प्रति लोगों में संवेदना जागृत करने का भी है। संयुक्त राष्ट्र के मानवीय पर्यावरण सम्मेलन में, जो जून, 1972 में स्टॉकहोम में हुआ था और जिसमें भारत ने भाग लिया था, यह निश्चय किया गया था कि मानवीय पर्यावरण के संरक्षण और सुधार के लिए समुचित कदम उठाए जाएं।

भारत में पर्यावरण का कानून

भारत में पर्यावरण कानून का इतिहास 125 वर्ष पुराना है। सबसे पहले भारत में पर्यावरण को लेकर कानून 1894 में बना था, जिसमें वायु प्रदूषण के मुद्दों को शामिल किया गया था। पर्यावरण को सुरक्षा प्रदान करने के लिए ब्रिटिशकाल में कुछ कानून भी बने थे किंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत सरकार द्वारा सन् 1980 में पर्यावरण को लेकर पर्यावरण मंत्रालय की स्थापना की गई।

इसके बाद 1986 में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम में पर्यावरण को लेकर कई ठोस कदम उठाये गए लेकिन आज हम देखते हैं कि इतने सालों बाद भी, तमाम कानून लागू होने के बावजूद जलवायु परिवर्तन का संकट और गहरा तथा खतरनाक स्तर पर ही पहुंच गया है।

फोटो प्रतीकात्मक है।

दरअसल, हमें यह समझने की ज़रूरत है कि पर्यावरण की लड़ाई ज़मीनी स्तर पर ही लड़ी जा सकती है। हमारा इतिहास भी यही कहता है। पर्यावरण को लेकर ज़मीनी लड़ाई ने ही पर्यावरण को एक राजनीतिक पहचान दी, जिसका जीता-जागता उदाहरण हम वर्ष 1973 में हुए चिपको आंदोलन को मानते हैं।

यह चिपको आंदोलन का ही परिणाम था कि पहली बार पर्यावरण की लड़ाई का इतना असर हुआ कि भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गॉंधी ने वर्ष 1980 में एक विधेयक बनाया, जिसमें हिमालयी क्षेत्रों के वनों को काटने पर 15 सालों का प्रतिबंध लगा दिया था। बाद में चिपको आंदोलन भारत के पूर्व, मध्य और साउथ के राज्यों में भी फैला।

ज़ाहिर है हमें राष्ट्रीय स्तर के साथ-साथ क्षेत्रीय स्तर पर पर्यावरण संबंधी योजना बनाने की ज़रूरत है। हमें स्थानीय स्तर पर, समुदायों के साथ मिलकर उनके लिए पर्यावरण संकट से निपटने के उपाय करने की ज़रूरत है। पर्यावरण को लेकर छोटे-छोटे समूह को उनकी पहचान दिलाने की ज़रूरत है, जिससे लोगों को संवेदनशील बनाया जा सके।

पर्यावरण की लड़ाई को आर्थिक विषमता से जोड़े जाने की है ज़रूरत

हमें पर्यावरण की लड़ाई को आर्थिक विषमता से भी जोड़ने की ज़रूरत है। दुनियाभर में जिस मॉडल पर विकास किया जा रहा है वह पूंजीपतियों के हाथ में है और ज़्यादा-से-ज़्यादा प्राकृतिक संसाधनों के दोहन पर टिका मॉडल है। यह मॉडल ना सिर्फ पर्यावरण की समस्या को बढ़ाता है, बल्कि आर्थिक विषमता को भी पैदा करता है, इसलिए ज़रूरी है कि पर्यावरण के खिलाफ लड़ाई को आर्थिक विषमता की लड़ाई से भी जोड़ा जाए।

वायु प्रदूषण पर अभियान चलाते वक्त ही हमारी मुलाकात आगरा की कुछ महिलाओं से हुई, जो स्वयं सहायता समूह चलाती हैं। ये महिलाएं ट्रांसपोर्ट नगर स्थित एक बस्ती में कचड़ा प्रबंधन करके एक सुंदर पार्क का निर्माण कर रही हैं।

इससे ज़ाहिर होता है कि पर्यावरण की लड़ाई को योजनाओं और कागज़ों से निकालकर ज़मीनी स्तर पर लाना पड़ेगा, ज़मीनी स्तर के मुद्दों को योजनाओं में शामिल करना पड़ेंगा, तभी हम अपनी धरती को, लोगों के स्वास्थ्य और ज़िन्दगी को बचा पाएंगे।

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