मुंबई में मेट्रो शेड प्रोजेक्ट के लिए 2500 से ज़्यादा पेड़ काट दिए गएं, जिसका विरोध करने पर कई स्टूडेंट्स और अन्य लोगों पर FIR दर्ज कर दी गई है। इस खबर को टीवी और सोशल मीडिया पर खूब दिखाया गया। वहीं, छत्तीसगढ़ और ओडिशा में इससे बड़े पैमाने पर पेड़ काटे जा रहे हैं लेकिन यह खबर पूरी तरह से मीडिया और सोशल मीडिया से गायब है।
छत्तीसगढ़ में करीब 1,70,000 हेक्टेयर में फैले हसदेव अरण्य के वन क्षेत्र में कुल 20 कोल ब्लॉक चिह्नित किए गए हैं, जिनमें से 6 ब्लॉक में खदानों के खोले जाने की प्रक्रिया अब भी जारी है। इस कोल ब्लॉकों के लिए लाखों पेड़ काटे जाने हैं, जिसके विरोध में ग्रामीण बीते 4 महीनों से आंदोलन कर रहे हैं।
द वायर वेबसाइट के मुताबिक,
इस आंदोलन में सरगुजा, सूरजपुर और कोरबा ज़िले के साल्ही, फतेहपुर, हरिहरपुर, घाटबर्रा, सैदू, सुसकम, परोगिया, तारा, मदनपुर, मोरगा, पुटा, गिधमुड़ी, पतुरियाडांड़, खिरटी, जामपानी, करैहापारा, धजाक, बोटोपाल, उचलेंगा, ठिर्री आमा, केतमा, अरसियां गॉंवों के सैकड़ों आदिवासी शामिल हैं।
यह खबर तकरीबन-तकरीबन हर जगह से गायब है।
क्यों आदिवासी और ग्रामीण इस रहे हैं इन कोल ब्लॉक्स का विरोध?
1. मनुष्य और इंसान के बीच का बढ़ेगा द्वंद
सघन वनों से भरपूर होने के कारण इस इलाके में जंगली हाथी, भालू, हिरण और अन्य दुर्लभ वन्य जीवों के प्राकृतिक निवास हैं और इस क्षेत्र में कई बार हाथियों व इंसान के बीच द्वंद की घटनाएं होती रही हैं। ऐसे में अगर कोल खदान के लिए जंगल या वन्य क्षेत्र घटे तो ऐसी घटनाएं और अधिक बढ़ जाएंगी।
2. नदियों का वजूद खतरे में
स्थानीय लोगों और कई पर्यावरणविदों की यह आशंका है कि हसदेव अरण्य वन क्षेत्र हसदेव बांगो (मिनीमाता बांगो बांध) का कैचमेंट एरिया (ऐसा क्षेत्र जहां पानी नैचुरल लैंडस्केप में एकत्रित होता है) है और खदान चालू होने से दो मुख्य नदी (हसदेव व चोरनई) का वजूद खतरे में आ जाएगा। इसके चलते, बांध पर भी सूखे का संकट आने की संभावना है जबकि इसी के पानी से तकरीबन 4 लाख 53 हज़ार हेक्टेयर ज़मीन पर खेती आश्रित है।
ऊर्जा के लिए या फिर चंद कॉर्पोरेट घरानों के लिए कोयले ब्लॉक्स के आवंटन के समय स्थानीय जलवायु, जीव और वहां रहने वाले लोगों को पूरी तरह नकार दिया जाता है, इसका जीता जागता उदहारण ओडिशा के तालाबीरा गॉंव का है।
कलिंगा टीवी की रिपोर्ट के मुताबिक,
रेंगाली फारेस्ट रेंज के अंतर्गत आने वाले तालाबीरा गॉंव (संबलपुर ज़िला) में खदान के लिए 9 दिसंबर, 2019 को 40,000 पेड़ काट दिए गए जबकि स्थानीय लोगों ने इसका जमकर विरोध किया था। इन सभी पेड़ों को बहुत कड़ी सुरक्षा में गिराया गया।
बतौर रिपोर्ट,
पेड़ों की कटाई के समय 10 प्लेटून पुलिस फोर्स गॉंवों में तैनात कर दी गई थी। संबलपुर के मुख्य वन संरक्षक की साइट निरीक्षण रिपोर्ट के मुताबिक, कोयले की खदान के लिए कुल 1,30,721 पेड़ों को काटा जाना ज़रूरी है।
पर्यावरण मंत्रालय ने कब दी थी कोयला खनन परियोजना के लिए वन भूमि देने की सहमति?
केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने 28 मार्च, 2019 को ओपनकास्ट कोल माइनिंग प्रोजेक्ट के लिए 1,038.187 हेक्टेयर वन भूमि देने की सहमति दी थी और झारसुगुड़ा व संबलपुर ज़िलों में इस प्रोजेक्ट को शुरू करने की ज़िम्मेदारी एनएलसी इंडिया लिमिटेड (भारत सरकार की नवरत्न कंपनी) को दी गई है।
एनएलसी ने साल 2018 में खदान के विकास (माइन डेवलपमेंट) और ऑपरेटर कॉन्ट्रैक्ट के लिए अडाणी ग्रुप से समझौता किया था। हालांकि, सरकार ने जिस क्षेत्र को कोयला की खदानों के लिए दिया है, उसकी रक्षा पारंपरिक तौर पर तालाबीरा गॉंव के वनवासी व 5 अन्य हेमलेट्स (इंसानों के छोटे-छोटे समूह या गांव) करते आए हैं।
ग्रामीणों व आदिवासियों का इस मसले पर क्या कहना है?
डाउन टू अर्थ वेबसाइट में छपे आर्टिकल में खिंदा हेमलेट के निवासी हेमंत कुमार राउत ने बताया,
हमने इस जंगल की रक्षा 50 वर्षों से अधिक समय तक की है और तकरीबन 3000 लोग इस जंगल पर निर्भर हैं, जो क्षेत्रफल में तकरीबन 970 हेक्टेयर है। अब सरकार कोयले के लिए यहां मौजूद पेड़ों को काट रही है। हमने सोचा था कि यह जंगल हमारा है और इसे हमसे कोई भी छीन नहीं सकता है। हमने कभी भी नहीं सोचा था कि हमसे जंगलों को छीन लिया जाएगा, इसलिए हमने कभी भी फॉरेस्ट राइट्स एक्ट (2006) के लिए आवेदन नहीं किया।
इस ज़मीन पर मूल समस्या यह है कि इस जंगल पर यहां के लोग निर्भर हैं लेकिन उन्होंने कभी भी फॉरेस्ट राइट्स एक्ट के तहत इस पर अपना मालिकाना हक दर्ज़ नहीं कराया। हालांकि, वन अधिकार अधिनियम नियम, 2012 में ये प्रावधान है कि स्थानीय अधिकारियों को इस एक्ट के नियमों के बारे में लोगों को जागरूक करना होता है, ताकि वे अपना मालिकाना हक के लिए दावा कर सकें।
राउत ने यह भी कहा कि इस संबंध में वह और उनके पड़ोसी डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर के पास गए थे और वहां हम सभी को यह बताया गया कि यह जंगल सरकार की संपत्ति है और ग्रामीणों को सरकारी कार्य के बारे में कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है।
जंगलों पर स्थानीय लोगों के कानूनी अधिकारों को लेकर बहुत कम जागरूकता होने के कारण आदिवासियों और ग्रामीणों के अधिकारों की चिंता किए बिना जंगलों को काटा जा रहा है।
नमति एन्वायरमेंटल जस्टिस प्रोग्राम (सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च) के वरिष्ठ शोधकर्ता कांची कोहली ने बताया,
फॉरेस्ट राइट्स एक्ट 2012 के तहत, संबंधित अधिकारियों को कानून और उसके प्रावधानों के बारे में जागरुक करना ज़रूरी है। यह तब और ज़रूरी हो जाता है जब वन्य क्षेत्र की ज़मीन पर इस कानून के तहत आदिवासी या किसान अपना मालिकाना हक नहीं जताते हैं।
संबलपुर और झारसुगुडा में एफआरए के कार्यान्वयन के लिए दिए गए थे ₹88 लाख
खिंदा हेमलेट के निवासी हेमंत कुमार राउत के मुताबिक, अधिकारियों के द्वारा फॉरेस्ट राइट्स एक्ट (एफआरए) के लिए कोई जागरूकता अभियान नहीं चलाया गया। आंकड़ों के अनुसार, साल 2008-09 से संबलपुर और झारसुगुडा में वन विभाग को एफआरए के कार्यान्वयन के लिए क्रमशः ₹74 लाख और ₹14 लाख दिए जा चुके हैं। ग्रामीणों का यह भी आरोप है कि ज़िले के अधिकारियों ने खनन शुरू करने की प्रक्रिया के लिए एक झूठी ग्राम सभा की अनुमति ली।