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आगजनी, मारपीट, तोड़फोड़, सड़कों को जाम करना ये कौनसे लोकतंत्र की निशानी हैं?

जामिया कितना महान है, अलीगढ़ कितना ऐतिहासिक है या जेएनयू कितना अव्वल है। यह विश्वविद्यालय लोगों की दान दक्षिणा से कैसे बने? गाँधीजी ने क्या कहा था? नेहरू के क्या विचार थे?  इन सब बातों से आप इस बात को दबा नहीं सकते हैं कि इन्ही कैंपसों से एक भीड़ निकलती है, जो पत्थर फेंकती है, तोड़फोड़ करती है, बसे जलाती हैं और सड़कें जाम करती है।

यह भीड़ देश जाम करने के अपने मंसूबों को सार्वजनिक भी करती है। एक विधेयक पर विरोध करते-करते, आज़ादी का राग आलापने लगती है। फिर नारेबाज़ी होती है ‘हिंदुत्व से, आज़ादी, आज़ादी’।

विरोध में हिंसा क्यों?

पिछले कुछ वर्षों में इस देश ने कई आंदोलनों को देखा। हमने गुर्जरों के, पटेलों के, जाटों के, राजपूतों के, मराठों के, दलितों के, रामपाल के, राम रहीम के और राजनीतिक पार्टियों के भी आंदोलनों को देखा। हर बार जब भी भीड़ ने सरकारी संपत्ति का नुकसान पहुंचाया, मारपीट की, आगजनी की, तोड़फोड़ की, हमने उन्हें ‘गुंडों’ की संज्ञा दी, लेकिन यही कृत्य जब कुछ लोग खुद को स्टूडेंट बताते हुए कर रहे हैं, तो उनके विषय में कुछ भी बोलने पर हमारे होंठ कांपते हैं, लेकिन ऐसा क्यों?

बस इसी ‘क्यों’ के जवाब पर थोड़ा चिंतन कीजिए और समझने का प्रयत्न कीजिए कि कैसे उस जवाब का राजनीतिक इस्तेमाल होता आया है और आज हम सबके सामने उसकी तस्वीरें भी हैं।

मीडिया इस तरह के आंदोलनो के बाद हर बार एक रिपोर्ट जारी करती थी कि इस आंदोलन से देश को कितना नुक़सान हुआ? लेकिन क्या आपने ऐसी एक भी रिपोर्ट पढ़ी इन दिनो? चलो कोई छोटी रिपोर्ट ही पढ़ी क्या कि यूनिवर्सिटीयों के बंद रहने से दूसरे स्टूडेंट्स की पढ़ाई कितनी अफ़ेक्ट हुई?

स्टूडेंट्स के लिबास में दंगाई

स्टूडेंट्स के लिबास में एक दंगाई भीड़ जिसके पास इतने सारे पत्थर हैं फेंकने को, ईंधन है गाड़ियां जलाने को, संख्या है सड़कें जाम करने को उन्हें आप कौनसी संज्ञा देना पसंद करेंगे? खुद सोचियेगा और मुझे भी बताइयेगा।

यदि इस भीड़ को रोकने के लिए पुलिस अपना काम नहीं करेगी तो देश का लॉ एन्ड आर्डर कैसे संभलेगा।

देश लोकतान्त्रिक है, उसी हवाले से एक बिल दोनों सदनों में लाया जाता है, चर्चा होती है, वोटिंग होती है और बहुमत के साथ पारित भी होता है।

इस पर यदि विरोध है तो आप लोकतान्त्रिक रास्ता अपना सकते हैं। आगजनी, मारपीट, तोड़फोड़, सड़कों को जाम करना, ये कौनसे लोकतंत्र की निशानी हैं?

पार्टियां अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रही है

यदि आप इसको सही ठहराते हैं, तो हमें प्रधानमंत्री, कैबिनेट और दूसरे सभी मंत्रियों एवं सांसदों को छुट्टी पर भेज देना चाहिए और संसद के दोनों सदनों को बंद कर बियर-बार खोल देना चाहिए क्योंकि अब इनकी ज़रूरत ही क्या ? यूनिवर्सिटीज़ की भीड़ सक्षम ही है देश चलाने को।

इस भीड़ को बहुत सी पार्टियों का समर्थन है। इस हिसाब से लोकतान्त्रिक पहल तो यह होती कि ये तमाम पार्टियां उस भीड़ की मांगों के साथ सुप्रीम कोर्ट में सरकार के बिल को चुनौती देती और न्यायालय तय करता कि सरकार का फैसला सही है या नहीं।

फिर भी बड़ा अजीब संयोग है, जब पार्टियां अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रही है और एक तरफ यह भीड़ जिस छुरी से लोकतंत्र की हत्या कर रही है, उसी की दूसरी तरफ से छुरी को कलम बना कर सरकार पर लोकतंत्र की हत्या के आरोप लिख रही है।

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