रांची में लॉ की छात्रा से रेप, भोपाल में नाबालिग लड़की का यौन शोषण, हैदराबाद में लड़की के साथ गैंगरेप और बदायूं में बलात्कार, उन्नाव में एक रेप सर्वाइवर अपनी ज़िंदगी की लड़ाई लड़ रही है, तो उसी उन्नाव में एक और रेप सर्वाइवर को जला दिया जाता है, जो आज 90 फीसदी जलकर अस्पताल में एक और लड़ाई लड़ रही है।
पिछले 24 घंटे से सोशल मीडिया, टीवी और अखबार सहित सभी जगहों पर यह हेडलाइन फ्लैश कर रही है। यह सभी घटनाएं सिर्फ चुनिंदा है, जो मीडिया की सुर्खियों में आ गई है। वरना राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ( NCRB) की रिपोर्ट की मानें तो देशभर में महिलाओं के खिलाफ अपराध बढ़ गए हैं।
बहरहाल, रेप के इस आंकड़े से ज़्यादा इस बात पर बहस होनी चाहिए कि कितने केस में न्याय मिला? कितने केसों में रेप सर्वाइवर या उस महिला को न्याय लेने में कठिनाई नहीं आई? कितने केस में अदालत ने ऐसी कठोर सज़ा सुनाई, जिससे समाज में एक संदेश जाए?
न्याय की लड़ाई में कितनी सफलता?
अगर उंगली से गिना भी जाए तो दोनों हाथों की पूरी उंगलियों से भी यह आंकड़े नहीं गिने जा पाएंगे। निचली अदालत से ऊपरी अदालत तक केस आते-आते न्याय हांफने लगता है, जिसके बाद रेप सर्वाइवर और उसके परिवार वाले इस हादसे को भूल जाना चाहते हैं।
तो क्या हमारी न्याय तंत्र में खामी है? जो बलात्कार जैसे जघन्य अपराध को रोक नहीं पा रही? या उसपर त्वरित न्याय नहीं कर पा रही है?
नहीं, सिर्फ न्याय तंत्र नहीं, इसके लिए पुलिस और कार्यपालिका भी उतनी ही ज़िम्मेदार हैं।
सरकार के एजेंडे में महिला सुरक्षा गायब
याद कीजिए, आपने अंतिम बार कौनसी सरकार के मुख्य एजेंडे में महिला सुरक्षा का मुद्दा देखा था? किस सरकार ने महिला सुरक्षा को तंदरुस्त करने के लिए अपना मेनिफेस्टो बनाया और उसे पूरा किया? याद कीजिए।
याद नहीं आएगा क्योंकि ऐसा हुआ हीं नहीं है, लेकिन इससे भी खौफनाक है कि हमारे एजेंडे से भी यह गायब हो गया है। हमारे वोट देने की प्राथमिकता से महिला सुरक्षा को गायब कर दिया गया है।
दिल्ली-मुंबई-न्यूयॉर्क से आया चुनावी मैनेज मेंटर, हमारे वोट देने की प्राथमिकता को तय करता है और हम भी उसी अनुसार चलते हैं।
तो फिर बलात्कार होने पर लिखकर क्या होगा? बोलकर कर होगा? सरकार कुछ देर के लिए आश्वासन दे देगी। सर्वाइवर के परिवार को कुछ अनुकंपा वगैरह मिल जाएगी लेकिन इससे क्या बदलेगा?
मीडिया में बलात्कार इंवेट रिपोर्टिंग की तरह है
वर्तमान घटना के बाद न्यूज़ चैनलों की कुछ महिला एंकर रोने लगी हैं। ट्विटर पर खूब लिख रही हैं, लेकिन इन एंकरों से कोई पूछ ले कि बताइए पिछले दो सालों में कितनी बार महिला सुरक्षा पर आपने डिबेट कराया है? कितने प्रोग्राम महिला सुरक्षा पर कराए हैं? सवाल सुनने के बाद यह एंकर बगल झांकने लगेंगी।
बलात्कार की घटना को मीडिया ने इंवेट रिपोर्टिंग बना दिया है। मीडिया का एक धरा इसपर खूब सक्रिय भी है लेकिन आंच पर चढ़ा दूध की तरह होने से क्या फायदा? जहां आग बुझते ही छाले पड़ जाए।
हमने एक समाज के तौर पर बलात्कार पर लिखने और बोलने का अधिकार खो दिया है। अगर हम किसी समस्या के निदान तक नहीं पहुंच पाते हैं/ पहुंचना चाहते हैं, तो उसपर बोलने का अधिकार हमें नहीं है।
बलात्कार खत्म करने का निदान अगर हम नहीं ढूंढ पाते हैं, तो इसपर उबलते दूध की तरह बोलने से कुछ नहीं होगा।