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“यूनिवर्सिटी पर हमला करने वाली सरकार स्टूडेंट्स और शिक्षकों से डरती क्यों है?”

दूर बैठे लोगों से एक अपील, एक बात याद रखो, “जिस ओर जवानी चलती है, उस ओर ज़माना चलता है।”

जवानों को खत्म कर दो ओर ज़माना दिशाविहीन होकर इधर-उधर भागेगा। ये जवान ही आज यूनिवर्सिटी है और आज सरकार यूनिवर्सिटीज़ को ही निशाना क्यों बना रही है?

उनको यह पता है कि आम जनता असलियत के तह तक नहीं जाती है। बुद्धिजीवी, स्टूडेंट्स, शिक्षक ही हैं, जो हमेशा समाज को बौद्धिक दिशा देने का काम करते हैं। ये बिलकुल उसी तरह है, जैसे कुछ समय पहले तक ग्रामीण इलाकों में सिर्फ एक व्यक्ति पढ़ा-लिखा होता था और पूरा गाँव उसके पास अपना काम लेकर जाता था। आज भी वही स्थिति है, अंतर बस स्तर का है।

प्रदर्शन कर रहे जामिया स्टूडेट्स पर हमला करती पुलिस। फोटो सोर्स- सोशल मीडिया

आजकल स्तर बढ़ गया है और हर कोई कमाने-खाने लायक हो गया है लेकिन एक बात याद रखो कि तुम कभी भी बुद्धिजीवी और शिक्षक की बराबरी नहीं कर पाओगे। सरकारों ने सीधा बुद्धिजीवियों और शिक्षक वर्ग को निशाना बनाया है, इसकी चपेट में जूनियर सीनियर और बड़े-बड़े स्कॉलर भी आए हैं।

मैं हिंसा का बिलकुल समर्थन नहीं करता लेकिन कानून का पालन बराबरी से होना चाहिए। सारे कानून ताक पर रखकर सरकार सिर्फ यह संदेश दे रही है कि जो सरकार बोल दे वही सही है और उसको पूरी ताकत के साथ लागू कराया जायेगा।

वास्तविकता में हर बार ये सरकारें सही नहीं होती और इस बार यही स्थिति है। इसका सत्यापन इस बात से किया जा सकता है कि जीडीपी लगातार गिरती जा रही है, फॉरेन मार्केट में रुपये की स्थिति भी ठीक नहीं है, ज़रूरी वस्तुओं के दाम आसमान छू रहे हैं और सुविधाएं आम आदमी की पहुंच से बाहर हैं। इसके साथ क्राइम ग्राफ बढ़ा है, बॉर्डर पर जवाओं की मौत की संख्या में बढ़त हुई है, रेप और महिलाओं के खिलाफ अत्याचार चरम सीमा पार कर चुके हैं।

वर्तमान सरकार को जनता से डर क्यों नहीं

दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को 2019 लोकसभा चुनाव में तकरीबन 347 लोकसभा सीटों में धांधली पाए जाने पर नोटिस दिया है और जवाब मांगा है। यह इंगित करता है कि यह सरकार जनता के वोट की बहुमत पाई सरकार नहीं है इसलिए इसको जनता का डर नहीं है।

ऐसा नहीं है कि भारत ने इससे बुरा समय नहीं देखा, कभी प्रधानमंत्री रही इंदिरा गाँधी को अपनी लोकतांत्रिक तानाशाही पर भी इतना ही नाज़ था लेकिन जनता ने अगले ही चुनावो में उनको सबक सिखा दिया। उस समय उनके पास 400 से ज़्यादा का बहुमत था। आज तो सरकारों के पास सामान्य बहुमत है।

प्रदर्शन कर रहे जामिया स्टूडेट्स पर हमला करती पुलिस। फोटो सोर्स- सोशल मीडिया

चिंता का विषय यह है कि मतदान व्यवस्था में भारी गड़बड़ी के कारण जनादेश का कोई औचित्य नहीं रह गया है। अगर आपको लगता है कि अगले चुनाव में वोट देकर दूसरी सरकार बना लेंगे तो ऐसा संभव नहीं है, क्योंकि ऐसा प्रयास बेशक 2019 में हुआ प्रतीत होता है और तभी 347 लोकसभा सीटों में भारी गड़बड़ी हुई है। मैं भारत की जनता को इतना मूर्ख नहीं मानता।

अपने दायित्वों से पीछे हटती जा रही है सरकार

आज बात सिर्फ CAB या NRC की नहीं है, यूनिवर्सिटीज़ की बढ़ती फीस की ही नहीं है, हिन्दू या मुसलमान की नहीं है, राम मंदिर और बाबरी मस्जिद की नहीं है। बात है सरकार के आधारभूत दायित्वों की जिससे सरकार पीछे हटती जा रही है।

0.5 -2% कट्टरपंथी कार्यकर्ताओं को छोड़ दिया जाए, तो किसी को भी इन सबसे कोई फायदा नहीं है। कार्यकर्ताओ को भी फायदा इसलिए है क्योंकि जब तक वे कट्टरपंथी पार्टियों के साथ कार्य कर रहे हैं, तब तक उनके पर्सनल हित सुरक्षित हैं, ऐसा उनको लगता है।

तुम लोग भी चाय में मक्खी से ज़्यादा कुछ नहीं हो, कानून बिगड़ेगा तो एक-ना-एक दिन तुम्हारा भी घर जलेगा, तुम्हारी भी माँ-बहनों के साथ गुंडे अराजकता करेंगे, आग में तुम भी जलोगे और हम तब तक सिर्फ अफसोस जताने लायक ही बचेंगे।

समर्थन नहीं कर पा रहे तो विरोध भी मत करना

अब बात उनसे है जो अपने केबिन में, ऑफिस में, घर में, हॉस्पिटल में, बैंक में, क्यूबिकल्स में बैठे हैं। एक बात याद रख लेना कि अगर समर्थन नहीं कर पा रहे, तो विरोध भी नहीं करना चाहिए। अगर आप मीडिया की कही सुनाई बातों पर अपनी राय बना रहे हैं, तो यह आपके भविष्य के लिए सबसे घातक है, क्योंकि मीडिया में कैडर बेस्ड कट्टरपंथियों का प्रतिशत ज़्यादा है। ये आप खुद 20 अखबारों या न्यूज़ चैनलों पर आधे घंटे सर्वे करके पता कर सकते हैं।

प्रदर्शन कर रहे जामिया स्टूडेट्स पर हमला करती पुलिस। फोटो सोर्स- सोशल मीडिया

मीडिया बिन पेंदी का लोटा होती है, क्योंकि भारत में ये कॉर्पोरेट के पैसों पर पली बढ़ी है। इनका अधिकतर IPO (इनिशियल पब्लिक ऑफरिंग) कॉर्पोरेट निर्धारित करता है और कॉर्पोरेट सरकारों के मालिक होते हैं, इसलिए एक मीडिया चैनल के ज़रिये अपनी राय ना बनाएं और आंदोलन करने वालों को अगर समर्थन नहीं कर सकते तो विरोध भी मत करें।

आप बहुत दूर-दूर और बिखरे हुए हैं और आप सड़कों पर नहीं आ सकते, इसलिए आपकी सड़क की लड़ाई स्टूडेंट्स को लड़नी पड़ रही है और अगर हम नहीं बचे या यूनिवर्सिटीज़ नहीं बची, तो आपके साथ वही होगा जो हमने आज़ादी की लड़ाई में झेला था।

याद रखना कि समाज को दिशा आंबेडकर, विवेकानंद, राजाराम मोहन रॉय जैसे विद्वानों ने दी है, गोडसे जैसे आतंकवादी कातिलों ने नहीं। आप हमारे बिना कभी एकजुट नहीं हो पाओगे, क्योंकि यूनिवर्सिटीज़ देश का ब्रेन हैं। और हां, यह मत सोचो कि आप बच जाओगे या सरकारें आपको छोड़ देंगी, अगर यह गलतफहमी है तो निकाल दो, क्योंकि सब खत्म होने के बाद अगला नंबर सीधा पब्लिक का ही होता है। यही इतिहास में हुआ है। सिर्फ इतना समझ जाना आपके लिए काफी होगा कि अगर सड़कें वीरान हुईं, तो संसद आवारा हो जाएंगी।

सरकारों से मैं इतना ही कहूंगा कि लोकतंत्र को खत्म करना तुम्हारी और तुम्हारी मशीनरी की औकात नहीं है। यह मत सोच बैठना कि हम डर गए हैं, हम लोकतंत्र और कानून का पूरा सम्मान करते हुए ही तानाशाही के ताबूत में अंतिम कील ठोकेंगे। तानाशाही का जवाब इंकलाब से देंगे।

-यूनिवर्सिटी का एक छात्र जो संविधान और देश को लुटता पिटता देख रहा है।

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