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“ये एनकाउंटर जैसे ‘ऑन द स्पॉट’ फैसले की मांग बड़ी सेलेक्टिव है”

क्या सच में आपको हैदराबाद के चारों आरोपियों को पुलिस एनकाउंटर में मार गिराए जाने की खुशी है और न्याय के इस तरीके से आपके मन को शांति मिल गई है? अगर हां, तो फिर हैदराबाद ही क्यों, देश में प्रतिदिन औसत 92 रेप के केस दर्ज़ होते हैं, तो हर एक केस में ऐसे ही होना चाहिए।

चलिए यह भी माना कि यह ज़्यादा वीभत्स केस था, इसलिए यह करना उचित था लेकिन यह वीभत्स था बाकी नहीं है या था, यह कैसे तय हुआ या होगा?

3 साल की बच्ची, या 80 साल की बुज़ुर्ग, विकलांग, एकल, वो तो कोई भी हो सकती है, तो सबके ‘आरोपियों’ के साथ ऐसे ही होना चाहिए? नहीं-नहीं आपके अनुसार हैदराबाद की वीभत्स घटना जैसे केस में तो कम-से-कम ऐसे ही होना चाहिए, बिना मतलब का कोर्ट कचहरी, कानून के चक्कर में समय खोटी क्यों करना फैसला ‘ऑन द स्पॉट’ होना चाहिए।

फोटो प्रतीकात्मक है।

तो हैदराबाद जैसी घटना आमतौर पर 5% तो घटती ही होगी देश में (कभी मीडिया में आती है, कभी नहीं आती), तो हर ऐसे 5% वाले केस में फैसला ‘ऑन द स्पॉट’ होना चाहिए, नहीं? तो फिर ऐसा करते हैं कि भारत की न्याय प्रणाली/व्यवस्था जैसी कोई चीज़ नहीं है और होनी भी नहीं चाहिए यह मान लेते हैं।

रेप ही क्यों अन्य अपराधों का फैसला भी ‘ऑन द स्पॉट’ कर लेते हैं

फिर रेप ही क्यों हर ऐसा कृत जो आपको जघन्य लगे, उसमें फैसला ‘ऑन द स्पॉट’ कर लेते हैं, नहीं? लेकिन फिर यह बात भी है कि यह तय कैसे होगा कि कौन सा कृत जघन्य है और कौन सा नहीं? आपके हिसाब से अमुक कृत जघन्य हो सकता है, मेरे हिसाब से अमुक कृत, फिर हर व्यक्ति अपने-अपने हिसाब से फैसला ‘ऑन स्पॉट’ कर ले, नहीं?

अगर साहब आप फैसला ‘ऑन द स्पॉट’ के समर्थक हैं, तो वर्त्तमान सरकार की आधी कुर्सी खाली हो जाएगी (मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता) क्योंकि इसमें आधों पर महिला उत्पीड़न/रेप जैसे केस दर्ज़ हैं।

बड़ी सेलेक्टिव है यह ‘ऑन द स्पॉट’ फैसले की च्वाइस

फोटो प्रतीकात्मक है।

आपका ‘ऑन द स्पॉट’ का फैसला भी बड़ा सेलेक्टिव है, इन चार आरोपियों में से कोई विधायक-सांसद/या उसका बेटा नहीं था, ना ही कोई बाबा, ना ही कोई पूंजीपति या उसका बेटा था। अगर होता तो आप देखते कि कितना जल्दी फैसला ‘ऑन द स्पॉट’ होता है और आप उस पुलिस की ताकत भी देखते, जिसका अभी गुणगान कर रहे हैं।

यहां मैं रेप और फिर जला देने के कृत का समर्थन तो बिलकुल भी नहीं कर रहा हूं, इस गफलत में बिलकुल मत रहिएगा। मैं न्याय व्यवस्था और प्रणाली की बात कर रहा हूं। अगर आपको और बाकी जनता को लगता है कि ऐसे केस में ऐसी ही सज़ा होनी चाहिए तो फिर सीआरपीसी में ऐसी सज़ा का प्रावधान कर लेना चाहिए सरकार को, इसमें कोई गुरेज़ नहीं है। नहीं तो फिर ज्यूडिसरी सरकार और पुलिस से पूछे कि अब उसकी ज़रूरत है भी की नहीं।

अब फैसला ‘ऑन द स्पॉट’ होना तो सबको मंज़ूर है, फिर इसके अंजाम को भी समझ ही लीजिए

दुनिया के जिस भी देश के कानून का हवाला (व्हाट्सएप्प दुनिया का ज्ञान से) देकर ऐसी न्याय व्यवस्था की बात की जाती है, जिसमें ऐसे लोगों को फांसी देने की बात होती है, ज़िन्दा जलाने की बात होती है, सूली पर चढ़ा देने की बात होती है, लिंग काट देने की बात होती है, अपंग कर देने की बात होती है, क्या उन देशों में अब रेप नहीं होते हैं? क्या महिला हिंसा बंद हो गई है (देशों का नाम नहीं लूंगा पर ज़रा आंकड़े आप देख लें, सभी देशों के जहां के उदहारण आप दे रहे हैं)?

फोटो प्रतीकात्मक है।

सवाल यह है कि हम बहुत सेलेक्टिव हैं, जो आसान रास्ता दिखता है वह तुरंत चुन लेते हैं। यह आसान रास्ता था और बहुत ही राजनीति भरा, और सही समय भी कि जनता मांग क्या रही है, जनता का रुख किधर है? कठिन रास्ते तो लम्बे होते हैं, इतनी जल्दी जनता को कैसे शांत करते। हम बच्चों को, लड़कों को, पुरुषों को संवेदित नहीं करते, उनकी परवरिश में महिलाओं का सम्मान करना नहीं सिखाते, इसकी बात नहीं करते और करते भी हैं तो कितनी और क्या?

हमें, आपको नहीं पता क्या कि चाय की दुकान पर, अपने छोटे समूह में, स्कूल-कॉलेजों जैसी जगहों में लड़के/पुरुष क्या-क्या और कहां तक की बात करते हैं? पितृसत्ता किस कदर हावी है, क्या उसकी बात नहीं होनी चाहिए? सत्ता संबंधों की बात करने से सबको बड़ी परेशानी होती है, क्योंकि सत्ताधारी को चुनौती लगती है, क्योंकि सत्ता (ताकत) के माध्यम तो बहुत हैं। किसी को धर्म से मिलती यह सत्ता मिलती है, किसी को जाति से, किसी को पुरुष होने के नाते, तो किसी को धन से।

महिला हिंसा की बात करेंगे और दलितों पर अत्याचार पर पीछे हट जाएंगे ऐसा कैसे? अच्छा यह भी बहुत सेलेक्टिव है। महिला हिंसा में भी घरेलू हिंसा की बात नहीं, चयन के अधिकार की बात नहीं होगी, अपनी मर्ज़ी की बात नहीं होगी। तब उस समय हमारी सभ्यता, संस्कृति, जाति, धर्म के आड़े आ जायेगी।

तो ऐसे सेलेक्टिव न्याय पर और उसका फैसला ‘ऑन द स्पॉट’ होने पर आप गर्व कर सकते हैं पर मैं नहीं। आपका भरोसा हो सकता है पर मेरा नहीं, आप अपने मन को खुशी दे सकते हैं पर मैं नहीं।

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