मैं जानता हूं कि JNU पर मेरी यह पोस्ट काफी असहमति पैदा करेगी परन्तु बोलने के अधिकार का मज़ा भी तो यही है। JNU के इस स्टूडेंट आंदोलन पर लिखने से पहले मैं यह बता दूं कि मैं भी थोड़े समय के लिए JNU का स्टूडेंट रह चुका हूं। मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय और JNU में पढ़ने-लिखने का अवसर पाया है।
JNU में उठने वाली आवाज़ अखिल भारतीय आवाज़ कैसे बन जाती है?
अब मुद्दे पर आते हैं और इस सवाल का जवाब ढूंढते हैं कि आखिर JNU में उठने वाली कोई भी आवाज़ अखिल भारतीय आवाज़ कैसे बन जाती है? जबकि उसी तरह के मुद्दों पर या मिलती-जुलती समस्याओं से जूझ रहे दूसरे विश्वविद्यालयों की आवाज़ को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।
JNU को लेकर सोशल मीडिया समेत पूरे मीडिया जगत में व्याप्त बेचैनी और ध्रुवीकरण के कारण क्या हैं? पहला तो यह है कि भारत में बीजेपी के सामने विपक्ष के हथियार डाल देने के बाद पूरा मीडिया, सरकार का विरोध करने वाले लोग और सिविल सोसाइटी के लोगों ने JNU को प्रतिरोधक प्रतीक के रूप में एक संस्था मान लिया है।
परिणाम स्वरूप JNU में उठने वाला कोई भी मुद्दा सरकार के विरोध की एक सशक्त आवाज़ में तब्दील हो जाता है। ऐसा भी नहीं है कि फीस बढ़ोत्तरी या शिक्षा में होने वाली अनियमित्ता को लेकर पूरे भारत में स्टूडेंट्स कहीं आंदोलन नहीं करते लेकिन उनका महत्व JNU जैसा नहीं बन पाया, क्योंकि JNU केवल एक विश्वविद्यालय ही नहीं बल्कि पिछले पांच वर्षों से सत्ताधारी दल के विरोध का एक माध्यम बन चुका है।
थका हारा विपक्ष, कमज़ोर सिविल सोसायटी, आलोचनात्मक राय रखने वाला मीडिया, अलग-थलग पड़ चुके अल्पसंख्यक समुदाय और सामाजिक न्याय की बात उठाने वाले समूह JNU को अपनी आवाज़ उठाने हेतु आशा की एक किरण मानते हैं।
यही वजह है कि JNU के बहाने ये तमाम लोग असल में JNU द्वारा विरोध और असहमति के स्वर को मुखर करना चाहते हैं, जो भारत में कमज़ोर पड़ता जा रहा है। JNU उनकी इस आवाज़ को अखिल भारतीय आवाज़ बनाने के लिए कुछ आखिरी माध्यमों में से बचा हुआ एक माध्यम है।
तो कुल मिलाकर आप यही आंदोलन अगर दरभंगा विश्वविद्यालय, छत्रपति शाहूजी महाराज विश्वविद्यालय या वीर बहादुर सिंह विश्वविद्यालय में यदि करते हैं, तो इसकी कोई सुनवाई ना सरकार करेगी ना मीडिया। JNU द्वारा उठाए गए मुद्दों पर सारी संस्थाओं में मची खलबली असल में शिक्षा के मुद्दे पर सिर्फ हमारी बेचैनी ही नहीं, बल्कि वर्तमान सरकार के विरुद्ध विरोध करने की सामूहिक विपक्षी चेतना का परिणाम भी है जिसे JNU के माध्यम से हम सब उठाना चाहते हैं।
क्या JNU के स्टूडेंट्स का विरोध जायज़ है?
इस प्रश्न के उत्तर हेतु मैं अपनी राय मिश्रित किस्म की रखूंगा जिसमें JNU के समर्थन के तत्वों के साथ-साथ विरोध की भी बातें हैं। बात समर्थन हेतु शुरू करूं तो मैं कहूंगा कि विद्यार्थी जीवन में अगर विद्यार्थी केवल अपने कैरियर तक ही सोचते हैं और उन्हें देश-दुनिया के मुद्दों से कोई सरोकार नहीं, तो ऐसे राष्ट्र का पतन निश्चित है।
क्योंकि ज्वलंत मुद्दों पर युवाओं द्वारा यदि सवाल ही नहीं उठाया जाएगा तो इस लोकतंत्र के क्या मायने रह जाएंगे?
राष्ट्र निर्माण में स्टूडेंट्स की भागीदारी क्या होनी चाहिए?
स्टूडेंट्स को हमेशा समय-समय पर महत्वपूर्ण मुद्दों पर सरकार का प्रतिरोध करना चाहिए ताकि सरकारों में हमेशा यह डर बना रहे कि उनके किसी भी तानाशाही रवैया का देश के युवा स्टूडेंट्स जमकर प्रतिरोध करेंगे। ऐसे हज़ारों-लाखों स्टूडेंट्स जब किसी राष्ट्र की नैतिक चेतना के संरक्षक होते हैं, तब राज्य या राष्ट्र को कोई सरकार हाईजैक नहीं कर पाती है।
मेरे मत में JNU का विरोध इसलिए सकारात्मक है, क्योंकि कम-से-कम स्टूडेंट्स किसी एक मुद्दे पर सरकार को अपनी ताकत दिखाते रहे हैं। अपने ज़िंदा होने का सबूत भी देते रहे हैं। यही नहीं, राज्यों में बौद्धिक बहस छेड़ने का माध्यम बनते रहे हैं। मेरा तो यह मानना है कि भारत के सभी विश्वविद्यालयों में लोकतांत्रिक तरीके से संसद और सदन के बाहर विरोध की प्रक्रिया सदैव चलती रहनी चाहिए।
ध्यान रहे कि हमें विरोध का अधिकार केवल किसी विपक्षी राजनीतिक दल के भरोसे नहीं छोड़ना चाहिए। हम भारत के लोग संप्रभु हैं, क्योंकि विरोध हमारी संप्रभुता का प्रतीक है। इसलिए जब स्टूडेंट्स विरोध करते हैं, तो कई बार उनके मुद्दों से पूरी सहमति ना रखते हुए भी मुझे आंतरिक रूप से खुशी मिलती है। कोई तो है जो प्रतिरोध कर रहा है और कम-से-कम सरकारें इनसे तो डरेंगी।
मैं सरकारी निरंकुशता को किसी राज्य के लिए सबसे खतरनाक मानता हूं। आपने अवतार सिंह पाश की कविता ‘सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना’ ज़रूर पढ़ी होगी । तो यूं समझिए कि विरोध सपनों के ज़िंदा रहने का सबसे सबल प्रतीक है।