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“आदिवासियों के आंदोलनों को नक्सलवाद से जोड़ने की यह कैसी विचारधारा?”

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

भारत में विभिन्न धार्मिक संगठनों एवं उनके सहयोगी राजनीतिक दलों द्वारा धार्मिक मुद्दों पर हो रही हिंसक आंदोलनों को लेकर हर तरफ खामोशी रहती है। सरकार भी इन हिंसक आंदोलनों के खिलाफ कुछ नहीं बोलती है।

वहीं, जब आदिवासी समुदाय अपने जल, जंगल और ज़मीन की रक्षा के लिए आंदोलन कर रहे होते हैं, तब उनको “राष्ट्रद्रोही” घोषित करके सलाखों के अंदर डाल दिया जाता है। पिछले कुछ दशकों में कई ऐसे नरसंहार और जगह-जगह हिंसक घटनाएं हुईं जिसके पीछे धार्मिक विवाद मुख्य कारण था।

इस देश में धर्म एक विशेष मुद्दा रहा है और ऐसे मुद्दों को राजनीतिक दल अपने वोट बैंक के लिए काफी इस्तेमाल करते हैं। इसी धर्म के मुद्दों द्वारा एक राजनीतिक दल ने सरकार भी बनाई लेकिन इसी वर्ष उच्चतम न्यायालय ने एक धार्मिक विवादित मामले का निपटारा भी कर दिया।

आदिवासियों को देशद्रोही बताना बेहद शर्मनाक

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

आदिवासियों ने जल, जंगल और ज़मीन की लंबी लड़ाई लड़ी है। औपनिवेशिक काल में सर्वप्रथम विदेशी सरकार से आमने-सामने की लड़ाई भी आदिवासियों ने ही लड़ी थी लेकिन दुखद बात यह कि आज़ाद भारत में अपने हक और अधिकार की बात करने पर उनको “देशद्रोही” कहकर कारागारों में डाल दिया जाता है, जो बेहद शर्मनाक है।

जो समुदाय भारत के मूल हैं, जिनके पुरखों को अपनी मातृभूमि यानी ज़मीन के लिए अपने प्राणों की आहुति तक देनी पड़ी, आज उनके लोगों को ही देशद्रोही, अलगाववादी और नक्सलवादी जैसे अशोभनीय एवं अपमानजनक संबोधनों से नवाज़ा जा रहा है।

इस देश में धार्मिक मुद्दा सर्वोपरि माना गया है और इसी धार्मिक मुद्दों के इर्द-गिर्द ही राजनीति का तानाबाना बुना जाता है लेकिन जो समुदाय जीवनदायिनी प्रकृति की रक्षा करने में अपना सब कुछ कुर्बान करते आ रहे हैं, ऐसे समुदायों को उनके ही पैतृक अधिकारों से जबरन वंचित करने का क्रूरतम प्रयास किया जा रहा है।

उन्हें झूठे आरोपों में जेल भेजा जा रहा है। देश के शहरों में रहने वालों को तो मालूम ही नहीं कि सुदूर जंगलों-पहाड़ों में रहने वाले भारत के मूल लोगों के साथ क्या-क्या अमानुषिक अन्याय और अत्याचार हो रहा है। इस देश में आदिवासी सिर्फ आदिवासी बनकर ही रह गए लेकिन आज तक उनकी वास्तविक पहचान मुकम्मल नहीं हो पाई।

आदिवासियों के विस्थापन पर भी फेल हुई सरकार

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी। फोटो साभार- Getty Images

चीन से निकला एक विचारधारा माओवाद कहलाया। यह विचारधारा एक सशस्त्र आंदोलन में तब्दील हुआ और 1960-70 के दशक में बंगाल के नक्सलबाड़ी नामक स्थान से चारु मजूमदार और उनके बेटे अभिजीत मजूमदार ने इस सशस्त्र आंदोलन को आगे बढ़ाया।

भारत की आज़ादी से पूर्व एक लंबे समय से किसान, मज़दूर एवं सुदूर जंगलों में रहने वाले आदिवासी समुदाय अंग्रेज़ सरकार और उनके मुलाज़िम ज़मींदारों एवं साहूकारों के खिलाफ सशस्त्र आंदोलन कर रहे थे। देश की आज़ादी के बाद भी अन्याय और शोषण का अंत नहीं हुआ था। किसानों, मज़दूरों एवं आदिवासियों के साथ शोषण का अंत ना होने के कारण माओवाद बड़ी तेज़ी से फैलने लगा।

विकास की बड़ी-बड़ी योजनाओं के कारण गरीब किसानों, मज़दूरों एवं आदिवासियों को बड़ी संख्या में विस्थापित होना पड़ा जिसे रोकने में भी फेल हुई सरकार। मुवावज़े के नाम पर केवल तसल्ली मिली। गरीबी और दबंगो के अन्याय की वजह से माओवाद को और पोषण मिला।

भारत के आदिवासी प्रारंभ से ही हाशिये पर रहे हैं। विकास एवं शिक्षा में आदिवासी समुदाय हमेशा से आखरी पायदान पर रहे हैं। सबसे बड़ी त्रासदी एवं विस्थापन आदिवासियों का हुआ, क्योंकि आदिवासी जिस क्षेत्र में रहते थे, वह क्षेत्र खनिज संपदाओंं से भरा हुआ क्षेत्र था। सरकार ने विकास और औधोगिक विकास के नाम पर आदिवासियों को उनके निवास क्षेत्रों से बाहर निकालना शुरू किया।

सरकारी नीतियों में बदलाव लाने की ज़रूरत

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

इसी कारण सीधे-सरल आदिवासियों का सरकार और व्यवस्था के खिलाफ अविश्वास बढ़ता चला गया जिसके कारण आदिवासी सशस्त्र आंदोलन में शामिल होते गए। इस तरह के विद्रोह के प्रति सरकार को भी ज़िम्मेदार माना जाना चाहिए, क्योंकि आदिवासी शुरू से ही अपनी ज़मीन से भावनात्मक रूप से जुड़े हुए होते हैं लेकिन यह सोचना कि हर सामाजिक आंदोलन के पीछे नक्सलवाद या माओवाद की विचारधारा होती है, तो यह गलत है।

जब नक्सलवाद पैदा भी नहीं हुआ था, उस समय से आदिवासी समुदाय जल, जंगल और ज़मीन की सुरक्षा के लिए संघर्ष करते आ रहे हैं। नक्सलवाद और आदिवासियों के आंदोलन को एक साथ जोड़ना न्यायसंगत नहीं होगा, क्योंकि आदिवासी समुदाय आज भी अपने जल, जंगल और ज़मीन को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

आज के वर्तमान परिपेक्ष में नक्सलवाद विकृत होकर ताकत और सत्ता का पर्याय बन गया है जिस पर सवर्णों ने कब्ज़ा किया हुआ है और सीधे-साधे आदिवासियों का केवल इस्तेमाल किया जा रहा है।

आदिवासी समाज कभी भी हिंसा के पक्षधर नहीं रहे हैं। उन्होंने अपने हथियार अन्याय और शोषण के विरुद्ध उठाया था लेकिन कभी-कभी व्यवस्था में निरंकुशता के कारण अपवाद स्वरूप आदिवासी युवाओं एवं युवतियों को नक्सलवाद के दलदल में धकेल दिया जाता है, जहां उन्हें मौत के सिवाय कुछ हासिल नहीं होता है।

आदिवासी संगठनों का यह कर्तव्य है कि इस दिशा में अपने समाज के युवाओं को जागरूक करते हुए उन्हें बताएं कि हिंसा सभी तरह की समस्याओं का समाधान नहीं है लेकिन सरकार को भी अपनी नीतियों पर गौर करना होगा कि कहीं उनकी विकास योजना आदिवासियों के विस्थापन और विनाश का कारण तो नहीं!

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