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क्या सच में बलात्कार के आरोपियों को मारकर महिलाएं सुरक्षित हो सकती हैं?

देश में लड़कियों और महिलाओं के प्रति बढ़ रही हिंसा एक चिन्ता का विषय है। सुबह का अखबार इस बात की स्पष्टता दे देता है कि देश में महिलाएं कितनी सुरक्षित हैं। मुश्किल तो तब बढ़ जाती है जब ऐसी खबरों को पढ़कर पितृसत्तात्मक सोच वाले लोगों को एक ओर ठोस बहाना मिल जाता है कि लड़कियों और महिलाओं को घरों की चार दीवारों तक सीमित रहना चाहिए।

हाल ही में हैदराबाद में महिला डॉक्टर के साथ हुए सामूहिक बलात्कार और हत्या ने देश में महिला सुरक्षा व्यवस्था पर फिर से एक सवाल उठाया है। अखबारों के पन्नों और लोगों के ज़हन से अभी इस घटना की दुःखद यादें धूमिल भी नहीं हुई थी कि एक बच्ची के साथ हुए बलात्कार की खबर ने फिर से लोगोंं को झिंझोड़ दिया है।

इन सिलसिलेवार आपराधिक घटनाओं ने लोगों के दिलों को आक्रोश और अविश्वास से भर दिया है।

लगातार बढ़ रही है महिलाओं के खिलाफ हिंसा

अगर हम 2017 के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़ों पर नज़र डालें तो देश मे 2017 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 3,59,849 मामले दर्ज किए गए। इन अपराधों में हत्या, बलात्कार, दहेज हत्या,आत्महत्या के लिए उकसाना, एसिड हमले आदि शामिल हैं। ये आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं कि लड़कियों और महिलाओं के प्रति हिंसा एक विकराल रूप ले रही है।

बलात्कार और हत्या के बाद, हाथों में मोमबत्तियां और मन में बहुत सारा आक्रोश लिए सड़कों पर बैठे सैकड़ो लोगों की नज़रें इंसाफ की मांग करती हैं। हैरानी की बात तो यह है कि ऐसे आक्रोश  प्रदर्शन में अक्सर कुछ वे लोग भी शामिल होते हैं, जो थोड़ी देर पहले सेक्शुअल हरासमेंट या घरेलू हिंसा की घटनाओं को अंजाम देकर आए हैं।

आक्रोश प्रर्दशन में कड़ी से कड़ी सज़ा के लिए बुलंद होती आवाज़ें तुरंत इंसाफ चाहती हैं। इंसाफ के रूप में फांसी की सज़ा को एक विकल्प के रूप में लाने के लिए लोग एकजुट होना शुरू कर देते हैं। शायद इसी कारण हैदराबाद में 4 अपराधियों को एनकाउंटर में मारा जाना लोगों के लिए जश्न और सन्तुष्टि का माहौल बना रहा हैं।

मौत की सज़ा को सही रास्ता मानना कितना सही

कानून व्यवस्था से परे एनकाउंटर को लोग न्यायसंगत बता रहे हैं। सोशल मीडिया में लोगो की प्रतिक्रिया इस बात का संकेत देती है कि बलात्कार जैसी घटनाओं को रोकने के लिए फांसी की सज़ा या एनकाउंटर ही सबसे बड़ा कारक साबित हो सकता है।

इन सभी विचारों को सुनकर यह महसूस होता है कि हम एक समस्या की सिर्फ टहनियों को काटकर सोच रहे हैं कि समस्या खत्म हो जाएगी लेकिन समस्या को जड़ से खत्म करने के लिए कोई बात नहीं करना चाहता है।

बलात्कार जैसे अपराध तक ले जाने वाली मानसकिता/सोच और उसे पनपने देने वाले कारकों को दरकिनार करके लोग सिर्फ मौत की सज़ा को सही रास्ता मान रहे हैं, जबकि महिला हिंसा पर रोक लगाने के लिए ऐसी मानसकिता और कारकों को पहचान पाना और बदलाव लाना ही एक मात्र विकल्प है।

सबसे पहले हम अगर बचपन की बात करें तो पुरुषों को यह पाठ सिखाया जाता है कि वे लड़कियों और महिलाओं से उच्चतम हैं। इस पाठ को वे अपने घरों में घरेलू हिंसा के माध्यम से तब सीखते हैं, जब पिता के द्वारा माँ पर हिंसा करते हुए देखते हैं। तभी लड़कों को सामाजिक अहसास हो जाता है कि लड़कियों और महिलाओं पर हिंसा करना पुरुषों का सामाजिक अधिकार है।

पितृसत्तात्मक सोच का बीज लड़कों के दिमाग में घरों से डाला जाता है

एक पुरुष से मर्द बनने की प्राथमिक शिक्षा सबसे ज़्यादा घरों से ही मिलती है। पितृसत्तात्मक सोच का बीज लड़कों के दिमाग में घरों से ही डाल दिया जाता है। पितृसत्तात्मक बीज को एक विशालकाय पेड़ बनने में आस-पड़ोस, रीति-रिवाज़, फिल्में और गाने आदि खाद का काम करते हैं।अगर हम हमारे ज़्यादातर गीतों की बात करें, चाहे वे लोक गीत हों या फिल्मी, दोनों में महिलाओं को एक वस्तु की तरह परोसा जाता है।

अधिकतर गीतों में लड़कियों को ना केवल वस्तु समझा जाता है बल्कि यौन हिंसा को भी मनोरंजन की तरह पेश किया जाता है। गानों में अक्सर नज़र आता है कि एक लड़का भद्दे तरीके से लड़कियों का पीछा करता है या फिर लड़कियों को पटाखा , तंदूरी चिकन या दारू की बोतल कहकर संबोधित किया जाता है।

ज़्यादातर हिंदी फिल्मों में भी महिलाओं के प्रति हिंसा को गौरवान्वित तरीके से प्रस्तुत किया जाता है। हीरो द्वारा हिरोइन का पीछा करना, बिना अनुमति के छू लेना, महिलाओं पर मालिकाना हक दिखाना, फिल्मों में इतना सहज तरीके से दिखाया जाता हैं कि वे अपराध कम और हीरोइज़्म का पैमाना ज़्यादा लगता है। जिसको देखकर आजकल का युवा उसे अपनी निजी ज़िंदगी का हिस्सा बना लेता है और तो ओर उन्हें अपराध बोध भी नहीं होता है।

आरोपियों को मारना महिला हिंसा को नहीं रोक सकता

फिल्मों के शुरुआत में चेतावनी के रूप में सिगरेट, तंबाकू, मदिरापान और जानवरों के प्रति क्रूरता के खिलाफ विज्ञापन आता है, जो कि सही भी है लेकिन आज तक फिल्मों के शुरुआत में कभी महिलाओं के प्रति हिंसा के खिलाफ कोई चेतावनी वाला विज्ञापन नहीं आता, बल्कि साथ ही जब कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति बोलता है कि “लड़के हैं गलती हो जाती है” तो अपराधों को ओर बढ़ावा मिलता है।

असल में पितृसत्तात्मक सोच और उसको बढ़ावा देने वाले कारक ही बलात्कार जैसे अपराधों की असल जड़ है। फांसी की सज़ा देना या एनकाउंटर में अपराधियों का मारा जाना कभी समाज मे महिला हिंसा को रोकने में बड़ी भूमिका नहीं निभा सकता है क्योंकि जब तक समस्या की जड़ों पर काम नहीं होगा, तब तक बदलाव आना मुश्किल है।

फांसी देना या एनकाउंटर करना समस्या को जड़ से खत्म नहीं करता है। यह बहुत कम समय के लिए समस्या को रोकता ज़रूर है लेकिन खत्म नहीं करता है। आज ज़रूरत समस्या को जड़ से खत्म करने की है। सबसे पहले तो सभी को घरों से लेकर फिल्मों तक, सड़को से लेकर संसद तक महिलाओं के प्रति हिंसा को अपराध समझना ज़रूरी है।

महिलाओं के प्रति हिंसा को रीतिरिवाजों, समाजीकरण या मनोरंजन के नाम पर सहज बनाने की प्रणालियों का हमेशा विरोध करना ज़रूरी है। इसके साथ ही बहुत ज़रूरी है कि हम अपराधियों और अपराध को धर्म और जाति से जोड़कर ना देखे क्योंकि अपराध, अपराध ही होता है चाहे करने वाले कोई भी जाति या धर्म से सम्बंध रखते हों। इसलिए अपराध को अपराध की तरह ही देखने की ज़रूरत है।

जब हम सभी घरों में, सिनेमा में, सड़कों पर और संसद में महिलाओं के प्रति हिंसा का विरोध करेंगे, तभी हम बलात्कारी मानसिकता पर लगाम लगा सकते हैं।

 

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