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केमिकल फैक्ट्रियों में आए दिन मज़दूरों को गंवानी पड़ती है अपनी जान

भोपाल में 35 साल पहले 2-3 दिसंबर की मध्य रात्रि को डाउ कैमिकल्स के प्लांट में मिथाइल आइसोसाइनेट गैस रिसाव के कारण एक त्रासदी हुई। अपने नाम की ही तरह इस त्रासदी के परिणामों से भोपाल आज भी नहीं उबर पाया है।

2-3 दिसंबर, 1984 की मध्य रात्रि को हुई इस भयानक औद्योगिक दुर्घटना के नतीजे इतने भयावह थे कि 15000 से अधिक लोगों ने अपनी जान से हाथ धोया और आज भी एक पीढ़ी शारीरिक विकलांगता से ग्रसित जन्म ले रही है।

इस दुर्घटना के पीछे मुख्य कारण कंपनी द्वारा सुरक्षा मानकों की अवहेलना करना था। सुरक्षा मानकों के अनुसार सभी स्थानीय भाषा में मैनुअल होने चाहिए। फैक्ट्री से जुड़े सभी ज़रूरी मैनुअल अंग्रेज़ी में थे और इस तरह दुर्घटना के समय अंग्रेज़ी नहीं जानने के कारण कर्मचारी आवश्यक कदम नहीं उठा सके। प्लांट से हुई ज़हरीली गैस के रिसाव ने पूरी तरह पर्यावरण को प्रभावित किया।

हाल ही में, भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ित और अन्य पीड़ितों को मुआवज़े व नौकरी के लिए आंदोलन करने वाले समाजसेवी अब्दुल जब्बार (61) का भोपाल के एक अस्पताल में निधन हो गया। इस त्रासदी में जब्बार की आंखों की 50% रोशनी चली गई थी लेकिन वह आजीवन लोगों और कंपनी की इन खामियों के खिलाफ लड़ते रहें।

डाउन टू अर्थ वेबसाइट में छपे आर्टिकल के मुताबिक,

पर्यावरण कार्यकर्ता सतीनाथ सारंगी का कहना है कि मिथाइल आइसोसाइनेट पर कभी प्रतिबंध लगाया ही नहीं गया। यूनियन कार्बाइड की पेरेंट कंपनी डाउ कैमिकल्स अब भी पॉलीयूरेथेन को भारत में ला रही है, जो जलने के बाद मिथाइल आइसोसाइनेट पैदा करती है।

प्लांट से मानकों के हिसाब से निकली गैस का इस कदर डर है कि हाल ही में ऐमज़ॉन प्राइम पर फैमिली मैन सीरीज़ आई, जिसका अंत या भविष्यवाणी इस बात पर होती है कि कैसे एक आतंकी प्लांट से निकलने वाली गैस का इस्तेमाल लोगों को मारने के लिए करेगा।

नैशनल पॉल्यूशन प्रिवेंशन डे

आज मैं आपको अचानक से यह सब क्यों बता रहा हूं, क्योंकि कल (2 दिसंबर) नैशनल पॉल्यूशन प्रिवेंशन डे (राष्ट्रीय प्रदूषण नियंत्रण दिवस) था, जिसका उद्देश्य औद्योगिक आपदा के प्रबंधन और नियंत्रण के प्रति लोगों के बीच जागरूकता फैलाना है। साथ ही, लोगों को इस बारे में भी जागरूक करना है कि पानी और मिट्टी को प्रदूषित होने से कैसे बचाया जा सके। हालांकि, आंकड़ों और रिपोर्ट्स की बात की जाए तो सबसे ज़्यादा प्रदूषण इंडस्ट्री ही फैला रही है, क्योंकि वे मानकों का पालन नहीं करती हैं।

केंद्रीय वन एवं पर्यावरण विभाग के मुताबिक,

श्रम एवं रोज़गार मंत्रालय के डेटा के मुताबिक,

ब्रिटिश सेफ्टी कॉउंसिल का अध्ययन (2017) इसे लेकर एक बड़ी तस्वीर दिखाता है जिसके मुताबिक,

वहीं, श्रम दिवस पर जारी रिपोर्ट के मुताबिक,

हमें यह बात ध्यान में रखनी होगी कि ये सब दुर्घटनाएं तब हो रही हैं, जब हमारे देश में विभिन्न इंडस्ट्रीज़ में कामगारों की सुरक्षा, स्वास्थ्य और काम को लेकर 13 श्रम कानून हैं। 2018 में, सरकार ने यह प्रस्ताव दिया कि इन सभी 13 कानूनों को एक ही कानून में शामिल कर दिया जाए। अब सवाल यह उठता है कि क्या कागज़ों पर काम करने वाले इन कानूनों से ऐसी घटनाओं को रोका जा सकता है? अगर इस बारे में रिपोर्ट और खबरें देखी जाएं, तो ऐसा बिलकुल भी नहीं लगता है।

अगर दिल्ली और बड़े शहरों में बढ़ रहे औद्योगिक कचरे की बात करें तो हर मेट्रो शहर में कूड़े का सही तरीके से निस्तारण ना हो पाने के कारण ज़मीन में लेड, आर्सेनिक, क्रोमियम और एस्बस्टस जैसे हानिकारक कैमिकल पहुंच रहे हैं, जिससे लोगों को कैंसर हो रहा है।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक,

ओडिशा, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में ज़मीन व पानी में सर्वाधिक खतरनाक रसायनों की पुष्टि हुई है। अगर सरकार वाकई में राष्ट्रीय प्रदूषण नियंत्रण दिवस के उद्देश्यों को पूरा करना चाहती है, तो उसे सबसे पहले कागज़ से उतरकर ज़मीन पर आना पड़ेगा।

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सोर्स- Business Standard, Business Standard, scroll.in, News18, livehindustan, Down to earth

This post has been written by a YKA Climate Correspondent as part of #WhyOnEarth. Join the conversation by adding a post here.
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