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शाहीन बाग़ की महिलाओं के नाम एक ख़त

शाहीन बाग की मेरी प्यारी और बहादुर बहनों,

मुझे स्टेज पर खड़े होकर बोलना नहीं आता, लेकिन कुछ है जो आपके साथ साझा करने का मन हुआ, इसलिए यह लिख रही हूँ। उम्मीद है कोई तो इसे आप तक पहुँचा ही देगा। मैं जेएनयू से आती हूँ। जेएनयू के अलावा मेरी एक और पहचान है जिसपर मुझे नाज़ है, मेरा महिला होना। पहले नहीं था। बहुत डर लगता था जब-जब ख़ुद को मुश्किल में पाती थी। हम लड़कियों को तो ऐसे ही बड़ा किया जाता है ना! कभी आत्मविश्वास ही नहीं था कि मैं अपनी लड़ाई ख़ुद भी लड़ सकती हूँ। जिंदगी में ऐसा बहुत कुछ हुआ जिसके बाद काफ़ी चीजें बदलीं लेकिन उस दिन सब बदल गया जिस दिन मैं शाहीन बाग़ आई। मेरी बड़ी बहनों, दादीयों और अम्मियों से जो उत्साह, मुश्किलात के इस दौर में भी चेहरे की वो चमक, जोश और उमंग अपने साथ ले आई, उसने यह विश्वास दिलाया की मुश्किल के वक्त में सबसे बेहतरीन क्रांतिकारी एक महिला ही होती है। जब-जब आसपास की जद्दोजहद से परेशान होकर, थककर हार मानने लगती हूँ तो शाहीन बाग़ की दादी का वो चेहरा सामने आ जाता है। जैसे कितने गर्व से कह रही हों- तुम कुछ भी कर लो, हम नहीं डरेंगे! पलक झपकते ही ख़याल आने लगता है कि जब मेरी दादी, अम्मी, बहना इतने जाड़े और बारिश में बिना थके, बिना डरे लड़ सकती हैं तो मैं कैसे हार मान सकती हूँ! आप आने वाली पीढ़ियों की लड़कियों को अपने ख़िलाफ़ ही नहीं बल्कि अपने इर्द-गिर्द होने वाले हर जुल्म के ख़िलाफ आवाज़ बुलंद करने का हौसला दे रही हैं। ये लोग कहते हैं कि हमें हमारे घर के मर्दों ने ढ़ाल बनाकर धरने पर भेज दिया। हम कहते हैं कि हम ख़ुद लड़ने आईं हैं तुमसे। हाँ, हर डर, हर बंंधन, हर आशंका को पीछे छोड़कर हम उस संविधान को बचाने आईं हैं जो हमें बराबरी का हक- अधिकार देता है।

हम जानते हैं, ये डरते हैं हमसे। इनकी बौख़लाहट साफ़ नज़र आ रही है। लेकिन सवाल ये है कि ये क्यों डरते हैं एक शाहीन बाग़ से जो जम्हूरियत को, आपसी प्रेम और भाईचारे को एक उत्सव की तरह इतनी ख़ूबसूरती से मना रहा है? मुझे समझ आया कि इनके डरने के दो कारण हैं। पहला ये कि ये महिला विरोधी हैं। अब मेरी और आपकी जैसी लड़कियाँ, देशभर में खड़े हुए सैकड़ों शाहीन बागों की महिलाएँ, जामिया की लड़कियाँ, जेएनयू की लड़कियाँ इतनी मुख़रता से इनकी नफ़रती साज़िश को नाकाम कर रहीं हैं तो इनसे कैसे बरदाश्त हो? बधाई हो, हम और आप इनके आँखों की किरकिरी बन गई हैं हम। नफ़रत, विध्वंस और देश की बर्बादी का रास्ता जो इन्हें साफ दिख़ रहा था उसमें धुंध की तरह छा गईं हैं हम। अब इन्हें सामने कुछ नज़र नहीं आ रहा। यह तिलमिलाहट भी इसी लिए है। महिला-एकता और नारी मुक्ति के बिगुल ने इनके नफ़रती सांप्रदायिक ढ़ोल की आवाज़ को दबा दिया है। इनका डरना, हमारी जीत है। इनके डर का दूसरा कारण है मुहब्बत। हमारी-आपकी मुहब्बत। इन्हें प्यार से बहुत डर लगता है। मेरी एक दोस्त है-क़ैफ़ी। मैं धर्म से हिंदू हूँ, वो मुसलमान है। जाने क्यों हर बार ऐसा होता है कि चाहे जो मुद्दा हो, धरने-प्रदर्शन में हम साथ निकल पड़ती हैं। साथ-साथ नारे लगाती हैं। साथ-साथ लड़ती हैं। ख़ुशबू और क़ैफ़ी के बीच की मुहब्बत से डरते हैं ये लोग, उसी तरह जिस तरह सावित्री और फ़ातिमा के साथ से डरते थे। हाँ बिल्कुल उसी तरह, जिस तरह अश्फ़ाक-बिस्मिल और मौलाना आज़ाद-नेहरू की दोस्ती से डरते थे। ये कभी नहीं चाहते कि किसी सलमा और किसी सविता में दोस्ती हो, प्यार हो, अपनापन हो। ये कभी नहीं चाहते कि किसी अबुल और अक्षय में यारी हो, अपनापन हो, भाईचारा हो। ये चाहते हैं कि हम आपस में लड़ते रहें और उनका राज़ चलता रहे। क्योंकि ये जानते हैं, हमारा आपसी प्रेम वो हथियार है जिसे इनकी नफ़रत की फसलों को काटते देर नहीं लगेगी। इन्हें बखूबी मालूम है कि हमारी मुहब्बत की आँधी इनकी नफ़रत और सांप्रदायिकता पर बनी इमारत को चुटकी में खंडहर में तब्दील कर देगी। एक बार गले मिला जाएगा और सब ठीक हो जाएगा। लेकिन ये चाहें जो कर लें, हमें, हमारे आपसी लगाव को ख़त्म नहीं कर सकते। ये कहते हैं, तुम अलग हो, साथ कैसे रहोगे? हम कहते हैं, हम अलग हैं, इसीलिए तो इतनी मुहब्बत है। अलग-अलग रंगों के फूलों से सजे बगीचे की खूबसूरती एक रंग के फूलों वाले बगीचे में कहाँ? ये लोग बेहतर तरीके से जानते हैं कि जिस दिन सावित्री-फ़ातिमा, अश्फ़ाक बिस्मिल साथ आकर लड़ने लगेंगे, इनकी ओछी राजनीति के दिन लद जाऐंगे। शाहीन बाग देख़कर इन्हें याद आ जाता है कि इन्हें अब अपनी उल्टी गिनती शुरू कर देनी चाहिए। उनका घर ताश के पत्तों का है, प्यार का एक झोंका भी उसे ज़मीन पर पटक देगा।

वो हार रहे हैं, इसलिए डर रहे हैं। हमें जीतना है, इसलिए लड़ रहे हैं। आप सभी बहुत ख़ुबसूरत हैं। मुझे आप सब से प्यार है। आप सभी के लिए अंत में हमारे जनकवि विद्रोही की दो पंक्तियाँ-“
मैं तुम्हें इसलिए प्यार करता हूँ, कि जब मैं तुम्हें देख़ता हूँ तो मुझे लगता है कि क्रांति होगी!”

आप सभी के जज़्बे को, हमारी मुहब्बत को, हमारे संघर्ष को इंकलाबी सलाम!

आपकी ही,आपके जैसी छोटी बहन,

ख़ुशबू

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