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एक खत प्यारे देशवासियों के नाम 

प्यारे भारतवासियों!

26 जनवरी अर्थात भारतीय गणतंत्र का पावन पर्व हर बार की भांति इस बार भी बीत चुका है। अक्सर ऐसे मौकों पर देखा गया है कि अनेकों देशवासियों की मुल्कपरस्त भावनाएं एकाएक प्रज्वलित हो उठती हैं।

यही नहीं, अचानक ऐसी भावनाएं कुछ इस तरह से सुसुप्तावस्था को प्राप्त हो जाती हैं मानो शीतलहर की चपेट में आ गई हों। आज के व्यस्त दौर में ऐसा होना स्वाभाविक भी है, क्योंकि अब शहरों से लेकर ग्रामीण अंचलों की गलियों में भारतीय लोकतंत्र के मौलिक विहंगम दृश्य यदा-कदा ही देखने को मिलते हैं। 

प्यारे देशवासियों, हमें मिलकर समझना होगा कि हमारा विवेक शिथिल तो नहीं हो चुका

इसका एक कारण शायद हमारी लोकतंत्रीय गणतंत्रात्मक भावनाओं का  डिजिटलीकरण होना हो सकता है। इसका कारण है कि हम धरातल पर देशप्रेम को क्रियान्वित करने के स्थान पर एक वर्चुअल स्पेस अर्थात सोशल मीडिया पर तिरंगे की फोटो शेयर करने तथा वीर सैनिकों की फोटो के नीचे वंदे मातरम् लिखने को ही देश के प्रति अपना कर्तव्य मान बैठे हैं। ऐसा करने में कोई बुराई नहीं है और न ही यह गलत है परंतु कहीं न कहीं हम इसकी आड़ में अपने वास्तविक कर्तव्यों की बलि चढ़ा रहे हैं। 

हमारा विवेक इतना शिथिल हो चुका है कि हमें स्वयं ही ज्ञात नहीं कि कब हमने भारत को छद्म राष्ट्रवाद की भट्टी में झोंक दिया है। आंखों पर पट्टी बांधकर हमने कब सत्तालोलुपों के हाथों अपनी वसुधैव कुटुम्बकम भारतीय संस्कृति को कट्टर हिंदुत्व तथा आध्यात्मिक फासीवाद में परिवर्तित कर दिया, हमें पता ही नहीं चला। 

कभी हिंदू, बौद्ध, इस्लाम तथा ईसाईयत जैसे विशाल धर्मों को स्वयं में अद्वितीय रूप से समाहित किया वह धरती भारत की है। उसे आज हमने कश्मीरी पंडितों से लेकर जुनैद एवं अखलाख की चीखों के साथ सम्पूर्ण विश्व में तमाशबीन बना दिया है। सोचिये कभी सावित्री माई, फातिमा बीबी तथा पंडिता रमाबाई ने भारत की आधी आबादी के अस्तित्व को व्यक्तित्व के रूप में पहचान दिलाई। आज उनकी आकांक्षाओं को वापसी के रूप में हमने निर्भया तथा डेल्टा मेघवाल की क्रंदन करती आत्माएं दी हैं। 

हमें समझना होगा कि हम लोकतंत्र का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं

वास्तव में क्या हम भारतीय लोकतंत्रात्मक गणराज्य का प्रतिनिधित्व करते हैं? देश के लिए अपनी जान न्यौछावर करने वाली वीरांगनाओं-सह-वीरों से लेकर संविधान निर्माताओं ने जिस देश का स्वप्न देखा था आज वही भारत हमसे प्रश्न करता है। हम संवैधानिक तथा नैतिक मूल्यों पर कितने खरे उतरे हैं? यह प्रश्न सिर्फ राजनेताओं, नौकरशाहों अथवा पढ़े लिखे नागरिकों से ही नहीं है अपितु उन सभी से है जो भारतीय होने का दावा करते हैं। भारत एक राष्ट्र नहीं अपितु एक देश है और एक देश अपने निवासियों तथा मूल्यों से निर्मित होता है। कहने का तात्पर्य ये है कि भारतीयता का दावा करने वाले प्रत्येक नागरिक की देश के प्रति कुछ ज़िम्मेदारी भी बनती है। 

जब हमारा संविधान लागू हुआ था, उसके कुछ वर्षों बाद ही भारतीय सिनेमा में एक गीत अत्यधिक प्रसिद्ध हुआ था। जिसके बोल “हम लाये हैं तूफान से कश्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के, तुम ही भविष्य हो मेरे भारत विशाल के इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के” थे। 

https://www.bhajanganga.com/mobile_bhajan/lyrics/id/1489/title/hum-laye-hain-tufan-se-kashti-nikal-ke-is-desh-ko-rakhna-mere-bachcho-sambhal-ke-Hindi-lyrics

तो भारत को ब्रिटिश हुकूमत के तूफानों से निकालने वाले मांझी अर्थात संविधान निर्माताओं ने विशाल देश को संभाल के रखने का ज़िम्मा हमें सौंपा था। वह आज संविधान के ज़रिये हमसे साक्षात्कार करना चाहते हैं। वह उस शपथ को भी याद दिलाना चाहते हैं जिसे उन्होंने एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष तथा लोकतांत्रिक गणराज्य को अंगीकृत, अधिनियमित तथा आत्मार्पित किया था। हमें उस शपथ को स्मरण तथा अनुपालन करने के लिए किसी विशेष दिन का इंतज़ार नहीं करना चाहिए। 

सोचिये “जिन दिनों में हम चौराहों पर उग्र कौम विरोधी नारे लगाते हैं, दलितों तथा वंचितों पर सरेआम अत्याचार करते हैं, पोस्टर फाड़ कर तथा स्कूल बस पर पथराव कर अपनी झूठी भारतीयता का परिचय देते हैं, उन्ही दिनों में हम संवैधानिक पदचिन्हों पर चलकर तथा अपनी गलतियों को सुधारकर भारत को पुनः महानता के शिखर पर पहुंचा सकते हैं।” यह किसी एक राजनेता अथवा तथाकथित समाजसुधारक के चुनावी वादों अथवा प्रयत्नों के द्वारा संभव नहीं है। 

अपितु आप, मैं और हम सब का समुचित, संतुलित तथा सामूहिक साहचर्य इसे संभव बनाता है। इस प्रकिया को देश कहते हैं। जबकि यही हमारी वास्तविक देशभक्ति होगी। एक ऐसी देशभक्ति जो तथाकथित राष्ट्रभक्ति से परे सुसुप्तावस्था में पड़े नागरिकों को जागने के लिए विवश करेगी। ऐसा इस संविधान, देश तथा जनता का विश्वास है।

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