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“यह हमारे फैमिली मेंबर ही तो हैं”: सभ्य समाज में महिला डोमेस्टिक वर्कर्स

 

“दस बज गए हैं। आज तू फिर लेट है। पता है ना तुझे की भैया को ऑफिस निकलना होता है, फिर भी तू जान बुझकर लेट आती है। बाकि घरों में तो टाइम पे जाती है। अब आज का क्या बहाना है …?”

यह कन्वर्सेशन किसी भी शहर के किसी भी घर की एक आम सुबह की शुरुवात होगी जहाँ पर ‘काम वाली’ के देर से आने पे उसे तंस कसा जाये। आखिर कौन है यह ‘काम वाली’? क्या रिश्ता है हमारा इनसे ? क्या स्थान है इनका हमारे सभ्य समाज में? क्या हमने कभी भी इन महिलाओं के दुवुधाओं को पारस्परिक सामाजिक दुविधा के तौर पे समझने की कोशिश की है? क्या इनकी चुनौतियाँ सामाजिक रूप से देखने की आवश्यकता नहीं? मेरे और आपके तरह यह भी तो एक काम-काजी ही हैं, तो क्या इनकी ज़रूरतें कुछ अलग हैं मुझसे और आपसे? क्या यह भेद- भाव नहीं ? यही कुछ सवाल और एकबार में तत्कालीन देश की स्थिति के शोर को दिमाग में दोहराते हुए मैं अखबार को सही सलीके से तय लगते-लगते मैंने ‘मौसी’ से पूछा, “मौसी चाय पियेंगी? आज कितनी ठण्ड है ना?” मैं उन्हें मौसी ही बुलाती हूँ बचपन से। मौसी ने बर्तन करते हुए चाय के लिए मना कर दिया। बोली “पीके आयी हूँ”। असल में सुबह की दूसरी चाय मम्मी और मौसी साथ ही पीते हैं। पर आज वह मम्मी की डाँट से नाराज़ हैं। मैं जानती हूँ पर कुछ नहीं बोलती। मैं तीन कप चाय चढ़ा देती हूँ और मौसी से बाते करने लगती हूँ।

“मौसी आप इतनी ठण्ड में जब सुबह घर से निकलते होंगे, तब तो अँधेरा होता होगा?” मौसी धीरे-धीरे मुझसे बात करने लगती हैं। उधर मम्मी भी डस्टिंग में बिजी है। उन्हें पता है की मैं उन दोनों की फिर से बनती बना लुंगी। असल में “घरेलु महिलाओं” और “काम वाळिओं” का एक अलग सा रिश्ता होता है, जो शायद आप और मैं को-डिपेंडेंस के तौर पे देखेंगे लेकिन उनके लिए यह एक अलग तरह का रिश्ता होता है, साझेदारी का, अलग तरह के दोस्ती का। आगे बढ़ने से पहले मैं आपको यह बता दूँ की मेरी मम्मी और मौसी की दोस्ती को पंद्रह साल हो गए हैं। तो आप समझ सकते हैं की मौसी हमारे परिवार की ही सदस्य हौं (फॅमिली मेंबर)। हैं क्या?

मौसी बिहार के एक गाओं से आती हैं। उनके पति गाओं के मुखिया हैं परन्तु पारिवारिक समस्याओं और यातनाओं के कारण उन्हें घर छोड़कर यहाँ शहर में अपने बच्चो के साथ आना पड़ा। उनके चार बच्चे हैं, तीन लड़कियाँ और एक लड़का। आज वह सभी कुशलतापूर्वक अपने-अपने जीवन में व्यस्त हैं। मौसी के लिए उनका काम उनकी गरिमा है। हलाकि एक “काम वाली” के तौर पे मौसी को आज भी कई चुनौतियां का सामना करना पड़ रहा है जो की हमारे सभ्य समाज में डिस्क्रिमिनेशन या हुमिलिएशन के तौर पे हम आज भी पहचानने में असफल हैं।

मौसी और मम्मी की चाय और बिस्कुट डाइनिंग टेबल पर रखके, मैं अपनी चाय लेके अखबार पड़ने लगी। “चाय ठंडी हो जाएगी। आओ हाथ धोके पहले चाय पि लो, फिर काम कर लेना।” मम्मी मौसी को बैडरूम से लेके आयी और दोनों महिलाएँ अपने रोज़ मर्राह की ज़िन्दगी के किस्से एक दूसरे से बांटने लगी।

बातों- बातों में मम्मी ने मौसी से पूंछा, “सुबह इतनी ठण्ड में निकलने में मुश्किल नहीं होती? अचे से गरम कपडे डालके निकलती हो ना? अकेले कैसे आती हो?” मौसी ने बताया कि वह अपने बेटे के साथ ही आती हैं। मौसी का बेटा BA (Honours) में ग्रेजुएशन कर रहा है, और सुबह हमारे कॉलोनी कि गढ़ियाँ साफ़ करता है। कन्वर्सेशन थोड़ा आगे बड़ा तो मौसी दूरसे घरों में काम करने के नियमों के बारे में बताने लगी। “दीदी, आप ठण्ड का पूछ रहीं हैं, वह जो कोने वाले घर में मैं काम करती हूँ न, वहाँ पे तोह मुझे पहले जाते ही कपड़े बदलने पड़ते हैं। उस घर की दीदी ने मेरे लिए अलग से ek gown रखा हुआ है जो उनके वहाँ ही मैं धोके रखती हूँ। वह पेहेनके ही मुझे रसोई में घुसने देती हैं दीदी। वह ही पेहेनके मैं उनके वहाँ काम करती हूँ। इन कपड़ो में नहीं। और आज क्या हुआ न के मैं तोह सुबह- सुबह घर से निकलती हूँ न, तोह उनके वहाँ काम करते वक़्त मुझे अचानक बाथरूम जाने की ज़रुरत पड़ी, तोह मैं क्या करती, मुझे दोबारा घर दौड़ना पड़ा बाथरूम जाने के लिए। रमा हैं न जो उनके वहाँ रात को रूकती है दीदी के पास, वह तोह बता रही थी की वह सुबह 4 बजे ही घर चली जाती है, वर्ण बड़ी दिक्कत में पड़ना पड़ता है। फिर बाथरूम वगेरानिपटाके फिर वापस आके वह दीदी के लिए नाश्ता बनती है। दीदी के वहाँ बाथरूम जाने की अनुमति नहीं है। लेकिन उसका घर तोह सामने ही है। मेरा घर दूर है न इसलिए कभी-कभार मुझे देर हो जाती है आपके यहाँ आने में।”

यह व्याख्या सुनकर मुझे गुस्से से बेचैनी होने लगी की यह किस तरह का बर्ताव है। मम्मी से मेरी बेचैनी छुपी नहीं थी। उन्होंने मेरे तरफ देखकर मौसी से दोबारा कन्फर्म किया , “तो तुम सिर्फ बाथरूम जाने के लिए घर गयी, उनके वहाँ ….” इससे पहले की मम्मी और कुछ पूछती, मौसी ने कहा, “अरे दीदी तभी तोह मैं आज लेट हो गयी।”

यह पहला ऐसा आख्या नहीं था। इससे पहले भी मौसी कई बार ऐसे किस्से बताती थी जहाँ लोगों ने उन्हें और उनके जैसे और काम वाळिओं को उनके बच्चों के लिए पुराने- बसी खाने का सम्मान, फटे-पुराने कपड़े दिए। इसके इलावा अलग थाली में खाना देना, अलग गिलास में पानी, टूटे या रिजेक्टेड कपों में चाय, घर के लोगों से दूर कोने में कहीं खाने को देना, घर का बाथरूम इस्तेमाल न करने देना, घर में काम करने से पहले रोज़ उसी घर में जाके नहाके- कपड़े बदलके फिर काम करने पे विवश करना, इत्यादि जैसे चीज़ें मौसी और मौसी जैसी न जाने कितनी काम वाळिओं की रोज़ की ज़िन्दगी का किस्सा हैं। इन किस्सों से आप और मैं शायद परिचित तो हैं, परन्तु क्या हमने इन घटनाओं को मानवाधिकार व उनके गरिमा को ठेस पहुंचने की दृष्टि से देखने की कोशिश की है? मेरा केवल एक ही प्रश्न है, अगर हम इन्हें अपने परिवारों का हिस्सा मानते हैं, तो कौनसे समाज में परिवार के सदस्य के साथ इस तरह का बर्ताव किया जाता है? क्या यह महिलाएँ काम-काजी महिलाएँ नहीं? क्या इन्हें हक़ नहीं की यह अपनी आजीबिका गौरव और गरिमा पूर्ण रूप से अर्जन कर सके? क्यों हम इन्हें छोटा महसूस करने में और अलग-थलग रखने की कोशिश करते हैं? अगर यह हमारे घरों और समाज को रहे लायक बनाने में हमारी सहायता करते हैं, तोह क्या हमे इनकी ज़रूरतों और चुनौतियों के बारे में सामाजिक रूप से कोई पहल नहीं करनी चाहिए? तत्कालीन समाज सही मैंने में इनका भी उतना ही है जितना की उन सबका जिनके लिए यह महिलाएँ काम करती हैं। यह समाज उनसे भी हैं। केवल परिवार का सदस्य बोलना ही काफी नहीं। एक प्रगतिशील समाज की प्रतिष्ठा करने के लिए, समाज के हर वर्ग से आये लोगों को समता और समानता पूर्वक जीवन जीने का अधिकार अनिवार्य है।

आज पीरियड पाठ की बात हो रही है। मैं स्क़्वाल है कि क्या हमने इन काम काजी महिलाओं (केवल काम वालिआं ही नहीं, उनके तरह अन्य महिलाएँ भी जिन्हें यह समाज गरिमा पूर्ण रूप से आजीविका अर्जन करने के हक़दार के रूप में नहीं देखता) को कभी महिलाओं के रूप में समझने और ैकमोदते करने कि कोशिश कि है? क्या उन्हें यह दुविधा नहीं? यह एक बुनयादी मानवाधिकार है सभी महिलाओं के लिए फिर वह काम वाली हो या कोई भी अन्य महिला अनौपचारिक कार्यकर्ता हो। यह सभी हमारे समाज कि काम-काजी महिलाएँ हैं। सामाजिक संरचनात्मक बाधाओं को तोड़ने कि क्षमता अगर किसी में हैं, तो वह हममे है। तो पूछिए अपने घरों में, अपने कॉलोनी में, अपने समुदाय में कि समाज में इन महिलाओं का क्या स्थान है?

दरअसल यह दुविधा केवल डोमेस्टिक वर्करस के लिए ही एक चुनौती नहीं। रिसर्च बताता है कि स्कूल जाती किशोरी कन्याओं के ड्रॉपआउट, IT इंडस्ट्री में महिला कर्णचरियों के कम भागीदारी दर, और ओवरआल अनौपचारिक महिला कर्मचारी के कम वर्कफोर्स पार्टिसिपेशन रेट के लिए भी बाथरूम जैसी अत्यावश्यक सुविधा कि उपलभ्दी न होना एक मूल कारण है। क्या यह अन्याय नहीं है? क्या यह हमारे पितृसत्तात्मक समाज के सोच की झलक नहीं है ?

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(यह लेख Domestic Workers in India: Domestic Workers (Registration, Social Security and Welfare) Act, 2008 और महिला अनौपचारिक कार्यकर्ता के कार्यस्थल, कार्यप्रणाली एवं बेसिक मानवाधिकार कि दृष्टि पर आधारित एक प्रारंभिक चेस्टा है। इस विषय पर गहरी जानकारी के लिए, इस विषय से जुड़े विधानों और कृत्यों को पढ़ें।)

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