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“19 साल की दलित लड़की का रेप और हत्या कर उसे पेड़ से लटकाने पर देश चुप क्यों है”

रेप के खिलाफ प्रोटेस्ट

रेप के खिलाफ प्रोटेस्ट

16 दिसम्बर 2012 के निर्भया केस में दोषी पाए गए चार आरोपियों को फांसी की सज़ा 7 जनवरी 2020 को शीर्ष अदालत ने सुनाई। निर्भया रेप केस की बर्बरता और अमानवीयता से राष्ट्रीय राजधानी सहित पूरा देश कांप उठा था। इस बेटी की कुर्बानी के बाद ही महिला सुरक्षा की दिशा में तत्परता बरती गई। 

यही नहीं, अपराधियों के खिलाफ कानून को और अधिक मज़बूत करने हेतु सार्थक प्रयास किए गए। भारतीय कानून व्यवस्था महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों विशेषकर दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराधों के मामले में बहुत सख्त हुई। बावजूद इसके बुनियादी सवाल यह है कि क्या अपराधों की दर में कोई कमी आई है?

गुजरात की घटना पर किसी ने उफ्फ तक नहीं की

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

प्रतिदिन अखबारों में इस तरह की दिल दहला देने वाली घटनाओं का मिल जाना सामान्य हो गया है। इस तरह का नॉर्मलाइज़ेशन भयावह है। समाज में जघन्यता और बर्बरता के इतने उदाहरण मौजूद हैं कि अब आम जन मानस उसके खिलाफ शिथिल हो गया है।

कुछ इसी तरह की एक घटना गुजरात के अरावली ज़िले के मोडासा कस्‍बे में घटित हुई। 31 दिसम्बर 2019 को एक दलित छात्रा लापता हो जाती है, जिसके बाद उसके परिजन 3 जनवरी को पुलिस से संपर्क करते हैं मगर पुलिस एफआईआर दर्ज़ करने से मना कर देती है।

पुलिस द्वारा दलील भी बहुत अजीब दी जाती है। इंस्पेक्टर कहते हैं,

उनकी बेटी उसी समुदाय के एक लड़के के साथ भाग गई है और दोनों ने विवाह कर लिया है। इस तरह से कोई केस नहीं बनता।

गौरतलब है कि 5 जनवरी को लड़की का शव पेड़ से लटका हुआ मिलता है। परिवारवाले लड़की का शव लेने से मना कर देते हैं। परिवारवालों के मुताबिक यह सुसाइड नहीं, बल्कि मर्डर है।

8 जनवरी को अहमदाबाद के सिविल हॉस्पिटल के डॉक्टरों के पैनल द्वारा लड़की के मृत शरीर का पोस्टमॉर्टम किए जाने के बाद पुलिस ने चार लोगों के खिलाफ अपहरण, गैंगरेप और मर्डर का केस दर्ज़ किया।

शिथिल भारतीय जन मानस यह घटना पढ़ता है और बिना किसी प्रतिक्रिया के आगे बढ़ जाता है। हालांकि यह घटना बिल्कुल भी सामान्य नहीं है। निर्भया, आशिफा, ट्विंकल आदि का मसला हो या उन्नाव रेप केस, एक के बाद एक घटती दिल दहला देने वाली घटनाएं  बिल्कुल भी सामान्य नहीं हैं।

कैसे काम करता है जातिगत समीकरण

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

इन घटनाओं के मूल को देखकर यह स्पष्ट लगता है कि हमारा सोशल स्ट्रक्चर असंतुलित है। ऐसा इसलिए कि पुरुष स्वयं को महिला से अधिक शक्तिशाली मानता है और यही कारण है कि वह अपनी सर्वोच्चता स्थापित करने के लिए इन घटनाओं को अंजाम देता है।

गुजरात में दलित महिला के साथ जो घटना हुई, उसके पीछे भी यही असंतुलन काम करता है। इसी तरह से जातिगत विभेद भी इस असंतुलन को प्रभावित करता है। एक ऐसे दौर में जब दलित एवं पिछड़ा तबका समाज में अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है, उस तबके की महिलाओं का अस्तित्व हाशिए पर ही रहता है।

उक्त घटना के चार आरोपियों में से तीन भरवाड़ समुदाय के हैं और उनके पास राजनीतिक साख है। यह साख ही उन्हें वह शक्ति प्रदान करती है, जिससे वे इस जघन्य घटना को अंजाम दे सकें।

साथ ही चौथा आरोपी ठाकुर है जिसके पास अपनी जातिगत सर्वोच्चता है। स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में असमानता का प्रतिस्फुटन ‘बलात्कार’ जैसे जघन्य अपराधों में परिणित होता है। जब तक यह असमानता मौजूद है, अपराध की दरें बनी रहेंगी। पितृसत्तात्मक ढांचे को तोड़कर ही इन अपराधों से निवृत्त हुआ जा सकता है। शक्ति संतुलन सामाजिक ढांचे के स्थायित्व के लिए आवश्यक उपादान है।

“बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ” के नारों में दब रही हैं चीखें

नरेन्द्र मोदी। फोटो साभार-  Getty Images

 नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो 2018 के डेटा के अनुसार रेप के मामलों में 17 फीसदी से अधिक बढ़ोतरी हुई है। अतः सवाल वर्तमान सरकार पर भी उठता है कि “बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ” के नारों में दब रही चीखों के प्रति जवाबदेही किसकी है? क्या यह सरकार की नीतिगत हार नहीं है कि कानून और प्रशासन के असहयोगात्मक रवैये में सुधार नहीं हो रहा है।

सच तो यही है कि सरकारी तंत्र महिला सुरक्षा की दिशा में उठाए गए ज़रूरी कदमों को ताक पर रखता आया है, जिससे अपराध बढ़ते रहे हैं। निर्भया के आरोपियों को 7 साल बाद फांसी की सज़ा सुनाई गई है। इस बीच में कितनी और निर्भया अखबारों की हेडलाइन बनकर रह गई होंगी और निर्भया केवल एक शब्द मात्र रह गया है। वास्तव में इस देश की हर महिला डरी हुई है।

नोट: गायत्री यादव Youth Ki Awaaz इंटर्नशिप प्रोग्राम जनवरी-मार्च 2020 का हिस्सा हैं।

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