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“आज़ादी के इतने सालों बाद भी हम आदिवासियों को जंगली कहा जाता है”

आदिवासी समुदाय

आदिवासी समुदाय

मानव अधिकार दिवस के मौके पर 10 दिसंबर को राजधानी दिल्ली में मानव विकास रिपोर्ट (HDR) को सार्वजनिक किया गया। तमाम तरह की बातें निकलकर सामने आईं कि शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सराहनीय काम हुआ है, जिस वजह से असमानता की खाई कम हुई है।

आकंड़े के मुताबिक मानव विकास रिपोर्ट में भारत की रैंकिंग 129 दर्ज़ की गई है। जबकि पिछले साल यह आंकड़ा 130 था। यानी कि हमें एक स्थान का फायदा हुआ है। अच्छी बात है कि यूनाइडेट नेशन्स द्वारा ऐसी पहल की जा रही है मगर इन आकंड़ों में हम आदिवासियों के लिए गर्व करने का कोई कारण है क्या?

एक तरफ से देखा जाए तो अभी भी झारखंड में आदिवासियों की दशा और दिशा समय के अनुसार अधिक नहीं बदली है। मुख्य सड़क को छोड़कर गाँव की ओर अग्रसर होने पर हम पाएंगे कि सड़कें ही नहीं हैं। अब आपको लगेगा कि सड़कों का असमानता और आदिवासियों से भला क्या रिश्ता?

हमें जंगली कहा जाता है

आदिवासी समुदाय। फोटो साभार- सच्चिदानंद सोरेन

साहब, यहीं से तो भेदभाव शुरू होता है। बड़े घराने के लोगों ने आदिवासियों को जंगली ही मान लिया है और इसलिए इन्हें ज़रूरी सुविधाओं से वंचित रख रहे हैं। यहां के किसान आज भी पालन-पोषण के लिए बाज़ारों का रुख करते हैं या बड़े शहरों में जाते हैं, क्योंकि हमारे यहां तो इनकी कोई कद्र ही नहीं है।

ग्रामीण आदिवासी महिलाएं ह्यूमन ट्रैफिकिंग का शिकार हो रही हैं। इसकी संख्या आए दिन बढ़ते ही जा रही है। किसानों के लिए सिंचाई तक की मुकम्मल व्यवस्था नहीं है, जिस कारण ज़मीन बंजर भूमि में तब्दील हो रहे हैं।

समय के अनुसार किसानों का आधुनिकीकरण नहीं हो पाया है। अभी भी आपको कई आदिवासी गाँव मिल जाएंगे, जहां पीने के लिए साफ पानी तक नहीं है। पानी की कमी के कारण ग्रामीण शौचालय का व्यवहार नहीं कर रहे हैं।

जिस हिसाब से यहां महंगाई बढ़ी, उस हिसाब से ग्रामीणों के रोज़गार के लिए ठोस व्यवस्था नहीं हुई। अभी भी ग्रामीण झोला छाप डॉक्टरों पर अधिक विश्वास करते है। ग्रामीण बच्चे शिक्षा तो ले रहे हैं मगर ड्रॉप आउट की समस्या हमें परेशान कर रही हैं।

HDR की रिपोर्ट में जो चीज़ मुझे सबसे अच्छी लगी, वो यह कि कम-से-कम समानता और असमानता पर बात तो हो रही है। यानी कि कोई एक ऐसी संस्था तो है जिसे फर्क पड़ता है मगर एक राज्य के तौर पर, वह भी आदिवासी बहुल इलाके का निवासी होने के नाते मैं शर्म महसूस करता हूं।

आदिवासी बहुल इलाके की स्थिति दयनीय

नमोडीह गाँव। फोट साभार- सच्चिदानंद सोरेन

अगर असमानता नहीं है, तो मेरे गाँव में आदिवासी बच्चों को मिड डे मील में घटिया क्वालिटी का भोजन क्यों दिया जाता है? अगर असमानता नहीं है, तो आज़ादी के इतने साल बाद भी हम आदिवासियों को जंगली क्यों कहा जाता है? अगर असमानता नहीं है, तो आदिवासियों की बहू-बेटियों कि इज़्जत क्यों लूटी जाती है? ये ऐसे सवाल हैं, जिनका जवाब हमें स्वयं से पूछना होगा।

मैं फिर दोहरा रहा हूं कि HDR की रिपोर्ट में अगर कहा जा रहा है कि शिक्षा और स्वास्थ्य में काम हुआ है, तो हमारे झारखंड के आदिवासी बहुल इलाकों की स्थिति इतनी दयनीय क्यों है? क्यों नमोडीह गाँव के लोग आज भी नाले का पानी पीते हैं?

हमें सोचना होगा कि टॉप 10 की सूचि में पहले नंबर पर नॉर्वे और अंतिम पर नीदरलैंड अगर है, तो इन दो देशों के बीच जो गैप है, उसमें हम क्यों नहीं है? कब तक एक स्थान के इज़ाफे के नाम पर हम ढोल पीटते रहेंगे?

कुछ सुझाव पेश कर रहा हूं, ताकि अगली दफा जब रिपोर्ट जारी हो तो आदिवासियों के हित में काम हो-

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