भारत में बिजली की बढ़ती मांग की वजह से कार्बन उत्सर्जन का प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है और भविष्य में भी यह एक खतरे के रूप में देखा जा सकता है।
IEA के मुताबिक,
अगर बिजली की बढ़ती मांग की स्थिति वर्तमान जैसी ही रही तो भारत 2030 तक अमेरिका को पीछे छोड़ते हुए कार्बन डायऑक्साइड का दूसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक देश हो जाएगा और 2040 तक भारत में बिजली की खपत आज के मुकाबले 3 गुना बढ़ जाएगी, जिससे कार्बन डायऑक्साइड के उत्सर्जन में करीब 80% तक वृद्धि होगी। हालांकि, इस बीच कार्बन डायऑक्साइड का सबसे बड़ा उत्सर्जक चीन ही रहेगा।
बकौल IEA,
नवंबर, 2019 में रिलीज़ हुई संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण प्रोग्राम की एमिशन्स गैप रिपोर्ट के मुताबिक, भारत ग्रीनहाउस गैसों का चौथा सबसे बड़ा उत्सर्जक देश है। बीते दशक में 55% ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए शीर्ष चार उत्सर्जक (चीन, अमेरिका, ईयू और भारत) ज़िम्मेदार हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक,
हर साल वैश्विक स्तर पर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 7.6% गिरावट के बावजूद, दुनिया पेरिस जलवायु समझौते के तहत तय किए गए वैश्विक तापमान बढ़ोतरी 1.5°C (इस सदी के अंत तक) के लक्ष्य को पूरा नहीं कर सकेगी। इन गैसों के उत्सर्जन में सबसे ज़्यादा हिस्सेदारी ऊर्जा क्षेत्र और जीवाश्म ईंधन की है। इसके बाद, इंडस्ट्री का सबसे ज़्यादा योगदान है।
बीपी स्टैट्सिकल रिव्यू ऑफ वर्ल्ड इनर्जी-2018 के मुताबिक,
द कार्बन प्रोफाइल के मुताबिक,
भारत में कोल प्लांट्स से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले बुरे प्रभाव को लेकर काफी रिपोर्ट्स और विशेषज्ञ चिंता व्यक्त कर चुके हैं। इसका अंदाज़ा लैंसेट प्लैनट हेल्थ में प्रकाशित एक रिपोर्ट से लगाया जा सकता है कि भारत में होने वाली हर आठ में से एक मौत प्रदूषित हवा के चलते होती है।
अंतरराष्ट्रीय एनर्जी एजेंसी भी 2016 में यह चुकी है कि यदि ऊर्जा उत्पादन और उपभोग के तरीके को ना बदला गया, तो वायु प्रदूषण के कारण भारत समेत दुनियाभर में 2040 तक लाखों लोगों की मौत होगी।
खराब वायु गुणवत्ता के कारण विश्वभर में प्रतिवर्ष 65 लाख लोगों की मौत हो जाती है, जो लोगों की मौत के लिए चौथा बड़ा खतरा है। भारत कोयले के निर्माण और आयात के मामले में दुनिया का चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा देश है।
कोयले के इस्तेमाल से होने वाले वायु प्रदूषण को लेकर सरकार पर काफी सवाल उठते रहे हैं। भारत ने 2015 में कोयला संचालित ऊर्जा संयंत्रों से होने वाले वायु प्रदूषण के मद्देनज़र उत्सर्जन के नए मानक बनाए थे, जिन पर साल 2017 से अमल होना था। हालांकि, कंपनियों ने इन मानकों पर अमल नहीं किया और अब इसकी समयसीमा 2022 तक हो गई है।
द कार्बन प्रोफाइल के मुताबिक,
अब सवाल यह उठ रहा है कि भारत में अक्षय ऊर्जा के गिरते दामों के बीच नए कोयला प्लांट्स बनाना कितना उचित होगा? कुछ रिपोर्ट्स में यह भी कहा जा रहा है कि भारत के मौजूदा कोल प्लांट्स कब तक चल पाएंगे? इसके अलावा, भारत में कोयले की मांग के अनुमान भी बार-बार बदले जाते रहे हैं।
वहीं, क्लाइमेट ऐक्शन ट्रेकर (कैट) का कहना है कि कोयला संचालित बिजली उत्पादन की योजनाओं को ठंडे बस्ते में डालने से भारत की नीतियां 1.5 डिग्री सेल्सियस (इस सदी के अंत तक वैश्विक तापमान बढ़ने का पेरिस जलवायु समझौते का लक्ष्य) के अनुकूल हैं।
फोर्ब्स पत्रिका में छपे आर्टिकल के मुताबिक,
इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकोनॉमिक्स ऐंड फाइनेंसियल एनालिसिस (आईईईएफए) के मुताबिक,
फोर्ब्स मैगज़ीन के मुताबिक,
IEEFA के मुताबिक,
यह भी बात गौर करने लायक है कि भारत में अक्षय ऊर्जा बढ़ाने के लिए मुख्य चालकों में NTPC शामिल है और यह देश के सबसे बड़े नवीकरणीय ऊर्जा ऑफ टेकर्स में से एक है। यह भारत में मौजूदा 12 गीगावाट सौर क्षमता में से 3.6 गीगावाट के लिए ज़िम्मेदार है।
सौर ऊर्जा की लगातार गिरती कीमतों से यह बात भी स्पष्ट हो गई है कि बिजली वितरक कंपनियां अब कोयला आधारित बिजली के वितरण को लेकर ज़्यादा उत्साहित नहीं हैं।
हालांकि, भारत से कोल संयंत्रों को हटाना इतना आसान नहीं होगा, क्योंकि झारखंड जैसे कुछ राज्यों को हासिल होने वाले कुल राजस्व का आधा हिस्सा कोयले से ही प्राप्त होता है। ऐसे में हमें ऐसी वैकल्पिक नीतियां तलाशनी होंगी, जिससे इस सेक्टर में लगे हज़ारों मज़दूरों की रोज़ी-रोटी भी बच सके।
हमें यह बात हमेशा ध्यान में रखनी होगी कि जलवायु परिवर्तन के लिहाज़ से भारत की गिनती उन चुनिंदा देशों में होती है, जिन पर इसका सबसे ज़्यादा विपरीत असर होगा, क्योंकि भारत की अधिकतर आबादी कृषि और हिमालयी इलाकों से निकलने वाले पानी पर निर्भर है।
विश्व बैंक के मुताबिक,
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