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“ग्रामीण इलाकों में स्टूडेंट्स की उपस्थिति का टारगेट शिक्षकों पर मानसिक प्रेशर जैसा है”

आज का दिन यानी 24 जनवरी को दूसरे विश्व शिक्षा दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। विश्व शिक्षा दिवस की अवधारणा 3 दिसंबर 2018 को यूनाइटेड नेशन जनरल असेम्बली द्वारा अपनाई गई थी और 24 जनवरी को शिक्षा की दिशा में शांति और विकास के लिए अंतरराष्ट्रीय दिवस के रूप में इस दिन को अपनाया गया।

अंतरराष्ट्रीय शिक्षा दिवस 2020 का थीम है, Learning for people, planet, prosperity, and Peace, यानी जन, धरती, समृद्धि और शांति के लिए सीखना।

यह तो हुई विश्व शिक्षा दिवस की बात लेकिन क्या कभी शिक्षकों की बात किसी संस्थान के ज़हन में आई है? शिक्षा पर बात हमेशा से की जाती रही है और बेशक की जानी भी चाहिए लेकिन शिक्षक पर बात आते ही हम या तो शिक्षक के नियमितीकरण का मुद्दा उठा लेते हैं या फिर उनके वेतन का। इन सबके बीच हम भूल जाते हैं, शिक्षक और शिक्षा के रास्ते आने वाली विसंगतियों को।

ग्रामीण इलाकों के शिक्षकों की चुनौतियां

यदि आप कभी कस्बे या ग्रामीण क्षेत्रनुमा शिक्षण संस्थान (सरल तौर पर कहा जाए तो स्कूल) पहुंचेंगे तो आपको शिक्षक के तौर कार्यरत लोगों की स्थिति परेशान करेगी।

हम शिक्षा पर योजनाएं चला रहे होते हैं या कहिए कोई दिवस मना रहे होते हैं लेकिन एक शिक्षक की समस्या पर शायद ही बात करते हैं। एक शिक्षक के तौर पर स्टूडेंट्स और उनके अभिभावकों को शिक्षा का मूल समझाना बहुत मुश्किल काम होता है। उनके लिए शिक्षा केवल एक अधिकार है, जिसे वे जब चाहें उपयोग करें ना चाहे तो नहीं भी करें। शिक्षा उनका कोई मूल उद्देश्य नहीं है।

सरकार द्वारा जारी किए जाने वाले आदेशों जैसे कि स्टूडेंट्स की शिक्षा, उनके स्कूल/कॉलेज में उपस्थित होने का प्रतिशत आदि का पालन करना ग्रामीण इलाके के शिक्षकों के लिए बेहद कठिन काम होता है। ग्रामीण इलाकों में स्टूडेंट्स की उपस्थिति का टारगेट शिक्षकों पर मानसिक प्रेशर जैसा है।

नकारात्मक सामाजिक माहौल से आने वाले बच्चों को शिक्षा देना चुनौती का काम

जहां एक ओर विश्वशिक्षा दिवस की थीम people (जन), planet (धरती), prosperity (समृद्धि) और peace (शांति) की बात करती है और एक शिक्षक से समावेशी शिक्षा की अपेक्षा की जाती है, वहां उन शिक्षकों के इन मुद्दों पर गौर नहीं किया जाता है।

यह समझाना ज़रूरी है कि जिनको (स्टूडेंट्स) उन्नत करने की भरसक कोशिश की जा रही है, उनमें से आधे ‘अ’ अनार पढ़कर नहीं बल्कि अपने नशे में डूबे पिता, भाइयों के अपशब्दों को सुनकर बड़े हो रहे हैं।

समावेशी शिक्षा सभी को दी जानी चाहिए लेकिन यह तभी दी जा सकती है, जब उन्हें समान अनुकूल वातावरण मिल रहा हो। यदि आपको एक शिक्षक के तौर पर घर-घर जाकर अभिभावकों को यह समझाना पड़े कि आपके बालक/बालिका बाल मज़दूर नहीं हैं, उनसे काम नहीं कराया जाए, शिक्षा ही उनका पहला कर्म और शिक्षण संस्थान उनकी प्रथम कर्मस्थली है, तो एक शिक्षक के तौर पर यह कठिन प्रक्रिया है।

यह कोई ख्याली बात नहीं है, मेरा स्वयं का निजी अनुभव रहा है कि जहां आप एक शिक्षक के रूप में उन्हें मार्शल और फिशर की परिभाषाएं समझा रहे होते हैं, वहीं दूसरी ओर उनका दिमाग किसी घरेलू उलझन से जूझ रहा होता है। इन बातों को एक शिक्षक के रूप में दर्ज करने को कोई नियम पुस्तिका नहीं है। ग्रामीण इलाकों के शिक्षकों की बता आने पर मज़ाक उड़ाने वाले शायद ही उन शिक्षकों के इन संघर्षों को समझ सकते हैं।

शिक्षक की अहम भूमिका है शिक्षा के रूप में लोगों तक ज्ञान, समृद्धि और शांति स्थापित करना लेकिन शिक्षा को लोगों तक तब ही पहुंचाया जा सकता है, जब वे उसे उसी रूप में लेने को तत्पर हों।

नोट: सृष्टि तिवारी Youth Ki Awaaz इंटर्नशिप प्रोग्राम जनवरी-मार्च 2020 का हिस्सा हैं।

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