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“रोज़गार का वादा करने वाली सरकार ने कई कश्मीरियों का रोज़गार ही छीन लिया”

सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार 10 जनवरी को जम्मू-कश्मीर में अस्पतालों, शैक्षणिक संस्थानों जैसी सभी ज़रूरी जगहों पर इंटरनेट सेवा बहाल करने का निर्देश दिया था। यह निर्देश देते हुए शीर्ष अदालत ने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में बोलने की स्वतंत्रता अनिवार्य तत्व है। इंटरनेट का उपयोग करने का अधिकार अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत एक मौलिक अधिकार है।

मैंने अपने पिछले तमाम लेख में इंटरनेट बाधित किए जाने के संदर्भ में लिखा है। मैंने लिखा है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी के स्तंभ जंग खाकर खोखले होते जा रहे हैं और हम हैं कि स्वस्थ लोकतंत्र की वकालत करते नहीं थकते हैं।

मैंने लिखा था कि स्वस्थ लोकतंत्र में इंटरनेट पर रोक लगाया जाना भी एक तरीके से अभिव्यक्ति की आज़ादी पर अतिक्रमण है। आंकड़ें बताते हैं कि भारत नेट की पाबंदी लगाने वाले देशों की सूची में प्रथम स्थान पर है। 2019 के आखिर तक पूरे भारत से 106 बार पर इंटरनेट बंद किए जाने के केस सामने आए हैं। इंटरनेट शटडाउन्स वेबसाइट के अनुसार,

स्टेट ऑफ इंटरनेट शटडाउंस की रिपोर्ट के अनुसार भारत इस सूची में सबसे ऊपर था और दूसरे नंबर पर पाकिस्तान था, जहां इंटरनेट बंद किए जाने के मात्र 12 मामले थे ।

कश्मीर में इंटरनेट शटडाउन से वहां के युवाओं पर प्रभाव

धारा 370 का हटना सही है या गलत, इस पर लोगों की अपनी-अपनी राय हो सकती है परन्तु लोकतांत्रिक व्यवस्था में तानाशाही व्यवस्था की कोई जगह नहीं हो सकती है। मेरी अभी कुछ दिन पूर्व कश्मीर विश्वविद्यालय की छात्रा से लंबी वार्ता हुई। मैंने उनसे पूछा कि कश्मीर में लंबे समय से इंटरनेट व्यवस्था बाधित है, इन हालातों में आप क्या महसूस करती हैं?

इसपर उन्होंने बताया कि यदि आपको दुनिया से अलग कर दिया जाए, तो आप कैसा महसूस करेंगे? यदि आपको एक कमरे में बंद करके छोड़ दिया जाए, तो क्या आपको तनाव नहीं होगा?

वह आगे बताते हुए कहती हैं कि सच कहें तो कश्मीर के हालात बेहद भयावह हैं। मेरी जानकारी में अब तक 10 से अधिक युवा तनावग्रस्त होकर मृत्यु का शिकार हो चुके हैं। मेरा कॉलेज पिछले 3 माह से बंद है, अब जाकर मेरा कॉलेज खुलने वाला है। अब सोचिए सरकार ने वादा किया था कि 370 हटने के बाद कश्मीर के लोगों को मुख्यधारा में लाएंगे पर हम तो अभी भी स्वयं को कैद में ही महसूस कर रहे हैं।

पढ़े भारत, बढ़े भारत का नारा क्या ऐसे ही साकार होगा? हमारे यहां अच्छी किताबें नहीं मिल पाती हैं, या तो हम ऑनलाइन पढ़ते हैं या बुकिंग से मंगाते हैं परन्तु आजकल वो भी नहीं मिल पा रही है। हमारे पास पढ़ाई के कोई बेहतर संशाधन ही नही बचे हैं। कश्मीर का एक ऐसा चित्र खींच दिया गया है, जो वास्तविकता में वैसा है ही नहीं है।

“हम लोग देश दुनिया में पिछड़ते जा रहे हैं”

मेरे इस सवाल पर कि आप देश की सरकार से क्या उम्मीद करती हैं, इसपर उन्होंने कहा,

हम लोग देश दुनिया में पिछड़ते जा रहे हैं, हमारी नौकरियां जा रही हैं। यदि जल्दी ही सबकुछ सामान्य नहीं हुआ तो यहां की आवाम भुखमरी से ग्रसित हो जाएगी। बच्चे खुद को खत्म करने लगेंगे। हम बस यही चाहते हैं कि सब जल्द सही हो जाए, हमारे स्कूल कॉलेज खुल जाए, हमको नौकरियां मिल जाएं।

उन्होंने आगे अपनी बात रखते हुए कहा,

टूरिज़्म में जो नुकसान यहां की आवाम को हुआ है, उसकी भरपाई हालातों को जल्द ही सामान्य करके पूरी की जा सकती है। हम कश्मीरियों के पास रोज़गार के लिए टूरिज़्म से बेहतर संशाधन नहीं हैं, उसी के भरोसे कई परिवार अपना गुज़ारा कर रहे हैं। बस यही उम्मीद है कि जल्द सब सही हो।

हम बस इंतज़ार कर सकते हैं-

हमारी बातचीत को आगे बढ़ाते तो उन्होंने कहा कि ऐसे अनेक स्टूडेंट्स होंगे, जो अपने बेहतर भविष्य गढ़ने की जुगत में लगे होंगे परन्तु वे कुछ नहीं कर सकते हैं, सिवाय इंतज़ार के।

मेरे विचार से स्वस्थ लोकतंत्र में लोगों को अपनी राय रखने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। घर, सड़क, विद्यालय और देश बंद कर देने के बाद भी इंटरनेट को बंद नहीं किया जाना चाहिए।

आवश्यकता है कि आपत्तिजनक सामग्रियों को साझा करने वालों को चिन्हित करके उनके विरुद्ध कठोरतम कार्यवाही की जाए। किसी व्यवस्था को बंद कर देना उसका हल नहीं है। नेट पर पाबंदी भी एक तरह से विचारों पर कर्फ्यू लगाने जैसा है, आखिर कभी तो हमें बेहतर निर्णय लेने ही होंगे।

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