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“उत्तराखंड के स्टेशनों का नाम उर्दू से संस्कृत करने के पीछे राजनीति नहीं लॉजिक है”

9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड राज्य, उत्तर प्रदेश से अलग होकर अस्तित्व में आया था। केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री आदि विशिष्ट धामों का घर होने का गौरव प्राप्त इस राज्य को देवभूमि नाम से जाना जाता है।

अपने पितृ राज्य की कुछ धारणाएं लेते हुए इस राज्य ने भी अपनी प्रथम राजकीय भाषा हिन्दी और द्वितीय भाषा उर्दू रखी परन्तु 2010 में तत्कालीन मुख्यमंंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने राज्य की द्वितीय राजकीय भाषा का दर्जा उर्दू के स्थान पर देवभाषा संस्कृत को दिया।

अभी तक उर्दू में लिखे थे रेलवे स्टेशनों के नाम

देहरादून स्टेशन

रेलवे द्वारा लिये गये फैसले के अनुसार, अब हिंदी, अंग्रेज़ी और संस्कृत में स्‍टेशनों के नाम लिखे जाएंगे। अधिकारियों ने बताया कि यह फैसला रेलवे (Railway) मैन्युअल के हिसाब से लिया गया है, जो कहता है कि रेलवे स्टेशनों का नाम हिंदी, अंग्रेज़ी और राज्य की दूसरी राजकीय भाषा में लिखा जाना चाहिए।

ऐसे में सवाल यह है कि इस फैसले को लेने में पूरा एक दशक क्यों लग गया? इस सवाल पर रेलवे अधिकारियों का कहना है कि इससे पहले उर्दू को रेलवे की तीसरी भाषा के तौर पर इस्तेमाल किया जाता था, क्योंकि उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का हिस्सा था जहां उर्दू दूसरी राजकीय भाषा है। लेकिन जब किसी ने इस ओर हमारा ध्यान दिलाया, तब हमने परिवर्तन करने का फैसला लिया है।

अभी कुछ दिन पहले ही रेलवे बोर्ड द्वारा एक निर्णय लिया गया, जिसमें यह निश्चित किया गया है कि उत्तराखंड के रेलवे स्टेशनों के नाम तीन भाषाओं हिन्दी,अंग्रेज़ी और संस्कृत में लिखे जाएंगे जो कि अभी तक हिन्दी, अंग्रेज़ी और उर्दू में लिखे जाते रहे हैं।

इस निर्णय के पीछे रेलवे बोर्ड का यह तर्क है कि उनकी गाइडलाइन का उन्हें अनुसरण करना ज़रूरी है, जिसके अनुसार किसी भी राज्य के रेलवे स्टेशनों के नाम राज्य की राजकीय भाषा में लिखे जाएं।

क्या संस्कृत में सही नाम रखना आसान होगा?

हमारे देश में गिनकर कर्नाटक राज्य में ही एक गाँव है जहां संस्कृत बोली जाती है। स्कूलों में भी संस्कृत एक सब्जेक्ट के रूप में भले ही पढ़ाई जाती है लेकिन आगे चलकर उस भाषा में करियर स्कोप नज़र नहीं आता है।

हिंदी भाषी राज्यों में जहां हिंदी तक ठीक से नहीं लिखी जाती है, वहां संस्कृत एक चुनौती ना बने, यह कैसे नहीं माना जा सकता है? राज्य के सभी रेलवे स्टेशनों का संस्कृत में सही-सही अनुवाद करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य होगा। इसपर रेलवे का कहना है कि उन्होंने जिन ज़िलों में रेलवे स्टेशन आते हैं, उनके ज़िलाधिकारियों को पत्र लिखकर स्टेशनों की हिंदी, अंग्रेज़ी और संस्कृत में सही स्पेलिंग पूछी है और अब वे उनके जवाब का इंतज़ार कर रहे हैं।

कर्नाटक के मट्टूर गाँव जहां संस्कृत पढ़ाई जाती है। फोटो साभार – सोशल मीडिया

इस फैसले पर इतना हल्ला क्यों?

इस फैसले पर कई लोग सोच रहे हैं कि स्टेशन के नाम संस्कृत में हो जाएंगे जबकि ऐसा नहीं है। स्टेशन का नाम वही होगा लेकिन साइनबोर्ड में जहां उर्दू में लिखा जाता था वहां अब संस्कृत में लिखा जाएगा।

ऐसा हर राज्य में होता है। अब आप दक्षिण भारत चले जाइए वहां भी राज्य की दूसरी भाषा के हिसाब से स्टेशनों के नाम लिखे जाते हैं, तो फिर संस्कृत से क्या दिक्कत है? 

अभी भी जब आप स्टेशनों पर उर्दू भाषा में कुछ लिखा देखते थे तो कौनसा समझ जाते थे। ऐसे में संस्कृत भाषा देखकर कौन सा खास फर्क पड़ेगा? बल्कि संस्कृत की लिपि देवनागरी है तो ज़्यादा लोग पढ़ पाएंगे।

भाषाओं को बचाना हमारी ज़िम्मेदारी है

उत्तराखंड में बच्चे

वर्तमान में यदि उत्तराखंड घूमा जाए तो वहां पर यह परिवर्तन आपको विद्यालयों के नाम पर भी मिलेंगे। कुछ विद्यालयों के नाम संस्कृत में उल्लेखित हैं और कुछ अन्य विद्यालयों में परिवर्तन अभी हो रहे हैं।

इन सबके बीच अगर मैं संस्कृत की बात करूं तो मुझे लगता है कि भाषाओं को बचाना हर एक नागरिक की ज़िम्मेदारी है। फिर चाहे वह संस्कृत हो या उर्दू।

आज काफी देशों में संस्कृत भाषा पर अन्वेषण भी हो रहें है, देखा जाता है कि विदेशों से बहुत सारे लोग वेद, उपनिषद, योग और संस्कृत का अध्ययन करने उत्तराखंड के प्रमुख स्थानों जैसे, ऋषिकेश, हरिद्वार आदि स्थानों पर आते रहते हैं। संस्कृत भाषा को विश्व में तो ख्याति मिल रही है लेकिन हमारे देश में आज भी इस भाषा को संघर्ष करना पड़ रहा है। इसका कारण है संस्कृत भाषा में युवाओं के लिए करियर स्कोप ना होना।

उपरोक्त सारी बातों को नज़र में रखते हुए राज्य के इस कदम को एक अच्छी पहल मानी जा सकती है, बशर्ते इस पहल को राजनीति के साथ जोड़कर ना देखा जाए।

 

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