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“क्या सरकारें बीमा कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिए स्वास्थ्य योजनाएं बनाती हैं?”

कोटा का अस्पताल

कोटा का अस्पताल

उत्तरप्रदेश में ऑक्सीजन की कमी से, बिहार में दवाओं के कमी से और अब राजस्थान के कोटा में दम तोड़ती सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं से हो रही बच्चों की मौत ने यह तो साबित कर दिया है कि देश अपने बच्चों के लिए कितना फ्रिकमंद है। ज़ाहिर है देश में हर साल हज़ारों बच्चे काल के गाल में समाते रहते हैं और चुने हुए हमारे जनप्रतिनिधि  गाल बजाते रहते हैं।

नौकरशाही और स्वास्थ्य सेवाओं के बुरे हाल को दुरुस्त ना करके शासन प्रमुखों द्वारा जिस तरीके से बयानबाज़ी का काम किया जा रहा है, वो यह साबित करता है कि सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो, बच्चों की स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने में वह पूरी तरह से विफल रही है।

कोई भी पार्टी के सत्ता संभालने के बाद ठप्प पर चुकी स्थास्थ्य सेवाओं को दुरुस्त करने के लिए कोई दूरदर्शी योजनाएं नहीं हैं। इसलिए वे कभी लीची का बहाना देते हैं, तो कभी ‘बच्चे तो मरते ही रहते हैं’ जैसे अंसवेदनशील बयान देकर अपनी ज़िम्मेदारी से बचना चाहते हैं।

भामाशाह योजना भी नहीं चला पाई राजस्थान सरकार

भामाशाह योजना। फोटो साभार- सोशल मीडिया

हाल के सालों में बच्चों की मौत पर कमोबेश हर सरकारों की कार्य प्रणाली को देखते हुए यही लगता है कि चाहे सरकार किसी भी पार्टी की हो, ना ही वे समस्या को ठीक-ठाक समझ पा रहे हैं और ना ही उसके अनुसार कदम उठा पा रहे हैं फिर चाहे गोरखपुर हो, मुज़फ्फरपुर हो या कोटा? सब जगह एक ही कहानी है। सरकारें बीमा कंपनियों की जेब में मुनाफा भरने के लिए स्वास्थ्य योजनाएं बना रही हैं।

सवाल यह है कि जब देश के किसी भी प्राथमिक चिकित्सालय में बेसिक स्वास्थ्य सेवाएं भी उपलब्ध नहीं हैं, तो इन स्वास्थ्य बीमाओं का औचित्य ही क्या रह जाता है?

केंद्र सरकार की “आयुष्मान भारत योजना” एक हद तक बीमार व्यक्ति के परिजन को आर्थिक सहायता मुहैया करा सकती है मगर इस बात का जवाब कौन देगा कि कमोबेश हर राज्य में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा कभी डाक्टरों-नर्सो की कमी, कभी उपकरणों की कमी, तो दवाईयों-आक्सीजन सिलेंडरों की कमी से जूझ रही है। हर साल किसी ना किसी राज्य में मरते हुए बच्चों का आंकड़ा यही बता रहा है कि सरकार निजी स्वास्थ्य सेवाओं को मुनाफा देने के लिए सरकारी अस्पतालों को पंगु बना रही है।

फिलहाल उस राज्य में बच्चों की मौत की खबरें आ रही हैं, जहां पिछली सरकार “भामाशाह योजना” का डंका चुनावी मैदान में पीट रही थी और उसी “भामाशाह योजना” के आधार पर “आयुषमान भारत” की नींव पूरे देश के लिए रखी गई। ज़ाहिर है राज्य और देश में स्वास्थ्य योजनाओं से बीमा कंपनियों को मुनाफा तो मिल रहा है मगर देश के बच्चों को मौत! इस परिस्थिति में स्वास्थ्य बीमा योजनाएं और दम तोड़ते बच्चों के बीच के अंकगणित को समझना ज़रूरी हो जाता है।

भारत में सालाना प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य पर खर्च होते हैं मात्र 1112 रुपये

सरकारी अस्पताल में लाइन में खड़ी महिलाएं। फोटो साभार- सोशल मीडिया

स्वास्थ्य सेवाएं किसी भी सरकार की प्राथमिकता में कभी नहीं रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक भारत में प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य पर मात्र 1112 रुपए सालाना खर्च किए जाते हैं। यानी तीन रुपय प्रतिदिन, जो बेहद शर्मनाक है। पिछले एक दशक में प्रमुख स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में काफी बदलाव देखने को मिले हैं लेकिन जनसंख्या के हिसाब से तमाम उपाय ऊंट के मुंह में जीरा ही साबित हो रहे हैं। भारत की स्वास्थ्य प्रणाली व व्यवस्था के लिए एक नई क्रांतिकारी दृष्टिकोण की ज़रूरत है।

पहले उत्तरप्रदेश फिर बिहार और अब राजस्थान में बच्चों की मौतों ने यह साबित कर दिया है कि इन राज्यों ने एक-दूसरे से पहले हुई घटनाओं से कोई सबक नहीं लिया है। यकीन मानिए देश के अन्य राज्यों के स्थास्थ्य सेवाओं की स्थिति इनसे बेहतर भी नहीं होगी।

दवाओं और चिकित्सा के उपकरणों, डॉक्टरों-नर्सों की कमी से अन्य राज्य भी इसी तरह जूझ रहे होंगे मगर इन समस्याओं से कैसे निपटना है, इसका ब्लू-प्रिंट किसी के पास नहीं होगा।

नौनिहाल हमारे भविष्य हैं, उन्हें हर हाल में बचाना देश की प्राथमिकता होनी चाहिए। इस वाक्य का रूदाली गान हर राज्य सरकारें करेंगी और जब उनकी बारी आएगी तो पूर्व की सरकारों या व्यवस्था पर सारा ठीकरा फोड़कर अपनी ज़िम्मेदारी से पीछा छुड़ाने की कोशिश करेगी। इसका परिणाम यह है कि दुनिया में मरने वाला हर छठा बच्चा आज भारत का होता है।

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